महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-102
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दुर्योधने निरुन्धाने कृष्णेन तद्दुष्कृतानुस्मारणपूर्वकमर्जुनम्प्रति तद्वधचोदना।। 1 ।। अर्जुनम्प्रति दुर्योधनस्य वीरवादः।। 2 ।।
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वासुदेव उवाच। | 5-102-1x |
दुर्योधनमतिक्रान्तमेतं पश्य धनञ्जय। आपद्गतमिमं मन्ये नास्त्यस्य सदृशो रथः।। | 5-102-1a 5-102-1b |
दूरपाती महेष्वासः कृतास्त्रो युद्धदुर्मदः। दृढहस्तश्चित्रयोधी धार्तराष्ट्रो महाबलः।। | 5-102-2a 5-102-2b |
अत्यन्तसुखसंवृद्धो मानितश्च महारथैः। कृती च सततं पार्थ नित्यं द्वेष्टि च पाण्डवान्।। | 5-102-3a 5-102-3b |
तेन युद्धमहं मन्ये प्राप्तकालं तवानघ। अत्र नो द्यूतमायत्तं विजयायेतराय वा।। | 5-102-4a 5-102-4b |
अत्र क्रोधविषं पार्थ विमुञ्च चिरसम्भृतम्।। एष मूलमनर्थानां पाण्वानां महात्मनाम्।। | 5-102-5a 5-102-5b |
सोऽयं प्राप्तस्तवाक्षेपं पश्य साफल्यमात्मनः। कथं हि राजा राज्यार्थी त्वया गच्छेत संयुगम्।। | 5-102-6a 5-102-6b |
दिष्ट्या त्विदानीं सम्प्राप्त एष ते बाणगोचरम्। यथाऽयं जीवितं जह्यात्तथा कुरु धनञ्जय।। | 5-102-7a 5-102-7b |
ऐश्वर्यमदसम्मूढो नैष दुःखमुपेयिवान्। न च ते संयुगे वीर्यं जानाति पुरुषर्षभ।। | 5-102-8a 5-102-8b |
त्वां हि लोकास्त्रयः पार्थ ससुरासुरमानवाः। नोत्सहन्ते रणे जेतुं किमुतैकः सुयोधनः।। | 5-102-9a 5-102-9b |
स दिष्ट्या समनुप्राप्तस्तव पार्थ रथान्तिकम्। जह्येनं त्वं महाबाहो यथा वृत्रं पुरन्दरः।। | 5-102-10a 5-102-10b |
एष ह्यनर्थे सततं पराक्रान्तस्तवानघ। निकृत्या धर्मराजं च द्यूते वञ्चितवानयम्।। | 5-102-11a 5-102-11b |
बहूनि सुनृशंसानि कृतान्येतेन मानद। युष्मासु पापमतिना अपापेष्वपि नित्यदा।। | 5-102-12a 5-102-12b |
तमनार्यं सदा क्रुद्धं पुरुषं कामरूपिणम्। आर्यां युद्धे मतिं कृत्वा जहि पार्थाविचारयन्।। | 5-102-13a 5-102-13b |
निकृत्या राज्यहरणं वनवासं च पाण्डव। परिक्लेशं च कृष्णाया हृदि कृत्वा पराक्रम।। | 5-102-14a 5-102-14b |
दिष्ट्यैष तव बाणानां गोचरे परिवर्तते। प्रतिघाताय कार्यस्य दिष्ट्या च यततेऽग्रतः।। | 5-102-15a 5-102-15b |
दिष्ट्या जानाति सङ्ग्रामे योद्धव्यं हि त्वया सह। दिष्ट्या च सफलाः पार्थ सर्वे कामा ह्यकामिताः।। | 5-102-16a 5-102-16b |
तस्माज्जहि रणे पार्थ धार्तराष्ट्रं कुलाधमम्। यथेन्द्रेण हतः पूर्वं जम्भो देवासुरे मृधे।। | 5-102-17a 5-102-17b |
अस्मिन्हते त्वया सैन्यमनाथं भिद्यतामिदम्। वैरस्य दिष्ट्या सहजं मूलं छिन्धि दुरात्मनाम्।। | 5-102-18a 5-102-18b |
सञ्जय उवाच। | 5-102-19x |
तं तथेत्यब्रवीत्पार्थः कृत्यरूपमिदं मम। सर्वमन्यदनादृत्य गच्छ यत्र सुयोधनः।। | 5-102-19a 5-102-19b |
येनैतद्दीर्घकालं नो भुक्तं राज्यमकण्टकम्। अप्यस्य युधि विक्रम्य च्छिन्द्यां मूर्धानमाहवे।। | 5-102-20a 5-102-20b |
अपि तस्य ह्यनर्हायाः परिक्लेशस्य माधव। कृष्णायाः शक्नुयां गन्तुं पदं केशप्रधर्षणे।। | 5-102-21a 5-102-21b |
`अप्यहं तानि दुःखानि पूर्ववृत्तानि माधव। दुर्योधनं रणे हत्वा प्रतिमोक्ष्ये कथञ्चन'।। | 5-102-22a 5-102-22b |
इत्येवंवादिनौ कृष्णौ हृष्टौ श्वेतान्हयोत्तमान्। प्रेषयामासतुः सङ्ख्ये प्रेप्सन्तौ तं नराधिपम्।। | 5-102-23a 5-102-23b |
तयोः समीपं सम्प्राप्य पुत्रस्ते भरतर्षभ। न चकार भयं प्राप्ते भये महति मारिष।। | 5-102-24a 5-102-24b |
तदस्य क्षत्रियाः कर्म सर्व एवाभ्यपूजयन्। यदर्जुनहृषीकेशौ प्रत्युद्यातौ न्यवारयत्।। | 5-102-25a 5-102-25b |
ततः सर्वस्य सैन्यस्य तावकस्य विशाम्पते। महानादो ह्यभूत्तत्र दृष्ट्वा राजानमाहवे।। | 5-102-26a 5-102-26b |
तस्मिञ्जनसमुन्नादे प्रवृत्ते भैरवे सति। कदर्थीकृत्य ते पुत्रः प्रत्यमित्रमवारयत्।। | 5-102-27a 5-102-27b |
आवारितस्तु कौन्तेयस्तव पुत्रेण धन्विना। संरम्भमगमद्भूयः स च तस्मिन्परन्तपः।। | 5-102-28a 5-102-28b |
तौ दृष्ट्वा प्रतिसंरब्धौ दुर्योधनधनञ्जयौ। अभ्यवैक्षन्त राजानो भीमरूपाः समन्ततः।। | 5-102-29a 5-102-29b |
दृष्ट्वा तु पार्थं संरब्धं वासुदेवं च मारिष। प्रहसन्नेव पुत्रस्ते योद्धुकामः समाह्वयत्।। | 5-102-30a 5-102-30b |
ततः प्रहृष्टो दाशार्हः पाण्डवश्च धनञ्जयः। व्यक्रोशेतां महानादं दध्मतुश्चाम्बुजोत्तमौ।। | 5-102-31a 5-102-31b |
तौ हृष्टरूपौ सम्प्रेक्ष्य कौरवेयास्तु सर्वशः। निराशाः समपद्यन्त पुत्रस्य तव जीविते।। | 5-102-32a 5-102-32b |
शोकमापुः परं चैव कुरवः सर्व एव ते। अमन्यन्त च पुत्रं ते वैश्वानरमुखे हुतम्।। | 5-102-33a 5-102-33b |
तथा तु दृष्ट्वा योधास्ते प्रहृष्टौ कृष्णपाण्डवौ। हतो राजा हतो राजेत्यूचिरे च भयार्दिताः।। | 5-102-34a 5-102-34b |
जनस्य सन्निनादं तु श्रुत्वा दुर्योधनोऽब्रवीत्। व्येतु वो भीरहं कृष्णौ प्रेषयिष्यामि मृत्यवे।। | 5-102-35a 5-102-35b |
इत्युक्त्वा सैनिकान्सर्वाञ्जयापेक्षी नराधिपः। पार्थमाभाष्य संरम्भादिदं वचनमब्रवीत्।। | 5-102-36a 5-102-36b |
पार्थ यच्छिक्षितं तेऽस्त्रं दिव्यं पार्थिवमेव च। तद्दर्शय मयि क्षिप्रं यदि जातोऽसि पाण्डुना।। | 5-102-37a 5-102-37b |
यद्बलं तव वीर्यं च केशवस्य तथैव च। तत्कुरुष्व मयि क्षिप्रं पश्यामस्तव पौरुषम्।। | 5-102-38a 5-102-38b |
अस्मत्परोक्षं कर्माणि कृतानि प्रवदन्ति ते। स्वामिसत्कारयुक्तानि यानि तानीह दर्शय।। | 5-102-39a 5-102-39b |
।। इति श्रीमन्महाभारते द्रोणपर्वणि जयद्रथवधपर्वणि चतुर्दशदिवसयुद्धे द्व्यदिकशततमोऽध्यायः।। 102 ।। |
5-102-1 नास्तीत्यर्जुनोत्तेजनम्।। 5-102-6 आक्षेपं शरगोचरम्।। 5-102-15 कार्यस्य जयद्रथवधरूपस्य।। 5-102-19 कृत्यरूपमत्यन्तकरणीयम्।। 5-102-29 पदं प्रतिपदम्। गन्तुं पदवीं कलहस्य च इति क. पाठः।। 5-102-39 स्वामिसत्कारो वीरप्रधानोऽयमिति यदन्यैः सत्करणं तेन युक्तानि योग्यतां गतानि।। 5-102-102 द्व्यधिकशततमोऽध्यायः।।
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