महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-025

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वेदव्यासः
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द्वन्द्वयुद्धवर्णनम्।। 1 ।।

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सञ्जय उवाच। 5-25-1x
महद्भैरवमासीन्नः सन्निवृत्तेषु पाण्डुषु।
दृष्ट्वा द्रोणं छाद्यमानं तैर्भास्करमिवाम्बुदैः।।
5-25-1a
5-25-1b
तैश्चोद्भूतं रजस्तीव्रमवचक्रे चमूं तव।
ततो हतममंस्याम द्रोणं दृष्टिपथे हते।।
5-25-2a
5-25-2b
तांस्तु शूरान्महेष्वासान्क्रूरं कर्म चिकीर्षतः।
दृष्ट्वा दुर्योधनस्तूर्णं स्वसैन्यं समचूचुदत्।।
5-25-3a
5-25-3b
यथाशक्ति यथोत्साहं यथासत्वं नराधिपाः।
वारयध्वं यथायोगं पाण्डवानामनीकिनीम्।।
5-25-4a
5-25-4b
ततो दुर्मर्षणो भीममभ्यगच्छत्सुतस्तव।
आराद्दृष्ट्वा किरन्बाणैरिच्छन्दोणस्य जीवितम्।।
5-25-5a
5-25-5b
तं बाणेरवतस्तार क्रुद्धो मृत्युरिवाहवे।
तं च भीमोऽतुदद्बाणैस्तदाऽऽसीत्तुमुलं महत्।।
5-25-6a
5-25-6b
त ईश्वरसमादिष्टाः प्राज्ञाः शूराः प्रहारिणः।
राज्यं मृत्युभयं त्यक्त्वा प्रत्यतिष्ठन्परान्युधि।।
5-25-7a
5-25-7b
कृतवर्मा शिनेः पौत्रं द्रोणं प्रेप्सुं विशाम्पते।
पर्यवारयदायान्तं शूरं समरशोभिनम्।।
5-25-8a
5-25-8b
तं शैनेयः शरव्रातैः क्रुद्धः क्रुद्धमवारयत्।
कृतवर्मा च शैनेयं मत्तो मत्तमिव द्विपम्।।
5-25-9a
5-25-9b
सैन्धवः क्षत्रवर्माणमायान्तं निशितैः शरैः।
उग्रधन्वा महेष्वासं यत्ततो द्रोणादवारयत्।।
5-25-10a
5-25-10b
क्षत्रवर्मा सिन्धुपतेश्छित्त्वा केततनकार्मुके।
नाराचैर्दशभिः क्रुद्धः सर्वमर्मस्वताडयत्।।
5-25-11a
5-25-11b
अथान्यद्धनुरादाय सैन्धवः कृतहस्तवत्।
विव्याध क्षत्रवर्माणं रणे सर्वायसैः शरैः।।
5-25-12a
5-25-12b
युयुत्सुं पाण्डवार्थाय यतमानं महारथम्।
सुबाहुर्भारतं शूरं यत्तो द्रोणादवारयत्।।
5-25-13a
5-25-13b
सुबाहोः सधनुर्बाणावस्यतः परिघोपमौ।
युयुत्सुः शितपीताभ्यां क्षुराभ्यामच्छिनद्भुजौ।।
5-25-14a
5-25-14b
राजानं पाण्डवश्रेष्ठं धर्मात्मानं युधिष्ठिरम्।
वेलेव सागरं क्षुब्धं मद्रराट् समवारयत्।।
5-25-15a
5-25-15b
तं धर्मराजो बहुभिर्मर्मभिद्भिरवाकिरत्।
मद्रेशस्तं चतुःषष्ट्या शरैर्विद्ध्वाऽनदद्भृशम्।।
5-25-16a
5-25-16b
तस्य नानदतः केतुमुच्चकर्त च कार्मुकम्।
क्षुराभ्यां पाण्डवो ज्येष्ठस्तत उच्चुक्रुशुर्जनाः।।
5-25-17a
5-25-17b
तथैव राजा बाह्लीको राजानं द्रुपदं शरैः।
आद्रवन्तं सहानीकः सहानीकं न्यवारयत्।।
5-25-18a
5-25-18b
तद्युद्धमभवद्धोरं वृद्धयोः सहसेनयोः।
यथा महायूथपयोर्द्विपयोः सम्प्रभिन्नयोः।।
5-25-19a
5-25-19b
विन्दानुविन्दावावन्त्यौ विराटं मत्स्यमार्च्छताम्।
सहसैन्यौ सहानीकं यथेन्द्राग्नी पुरा बलिम्।।
5-25-20a
5-25-20b
तदुत्पिञ्जलकं युद्धमासीद्देवासुरोपमम्।
मत्स्यानां केकयैः सार्धमभीताश्वरथद्विपम्।।
5-25-21a
5-25-21b
नाकुलिं तु शतानीकं भूतकर्मा सभापतिः।
अस्यन्तमिषुजालानि यान्तं द्रोणादवारयत्।।
5-25-22a
5-25-22b
ततो नकुलदायादस्त्रिभिर्भल्लैः सुसंशितैः।
चक्रे विबाहुशिरसं भूतकर्माणमाहवे।।
5-25-23a
5-25-23b
सुतसोमं तु विक्रान्तमायान्तं तं शरौघिणम्।
द्रोणायाभिमुखं वीरं साल्वो बाणैरवारयत्।।
5-25-24a
5-25-24b
स तु भीमरथः साल्वमाशुगैरायसैः शितैः।
षड्भिः साश्वनियन्तारमनयद्यमसादनम्।।
5-25-25a
5-25-25b
श्रुतकीर्तिं समायान्तं मयूरसदृशैर्हयैः।
चित्रसेनो महाराज तव पौत्रं न्यवारयत्।।
5-25-26a
5-25-26b
तमार्जुनिः शरैश्चक्रे पितृव्यं जर्झरच्छविम्।
शरैश्च द्रौपदीपुत्रं चित्रसेनः समावृणोत्।।
5-25-27a
5-25-27b
किरन्तं शरजालानि प्रभिन्नमिव कुञ्जरम्।
श्रुतकर्माणमायान्तं दौश्शासनिरवारयत्।।
5-25-28a
5-25-28b
तौ पौत्रौ तव दुर्धर्षौ परस्परवधैषिणौ।
पितॄणामर्थसिद्ध्यर्थं चक्रतुर्युद्धमुत्तमम्।।
5-25-29a
5-25-29b
तिष्ठन्तमग्रे तं दृष्ट्वा प्रतिविन्ध्यं महाहवे।
द्रौणिर्मानं पितुः कुर्वन्मार्गणैः समवारयत्।।
5-25-30a
5-25-30b
तं क्रुद्धं प्रतिविव्याध प्रतिविन्ध्यः शितैः शरैः।
सिंहलाङ्गूललक्ष्माणं पितुरर्थे व्यवस्थितम्।।
5-25-31a
5-25-31b
प्रवपन्निव बीजानि बीजकाले कृषीवलः।
द्रौणायनिर्द्रौपदेयं शरवर्षैरवाकिरत्।।
5-25-32a
5-25-32b
यस्तु शूरतमो राजन्नुभयोः सेनयोर्मतः।
तं पटच्चरहन्तारं लक्ष्मणः समवारयत्।।
5-25-33a
5-25-33b
स लक्ष्मणस्येष्वसनं छित्त्वा लक्ष्म च भारत।
लक्ष्मणे शरजालानि विसृजन्बह्वशोभत।।
5-25-34a
5-25-34b
ततोऽभिमन्युः कर्माणि कुर्वन्तं चित्रयोधिनम्।
आर्जुनिः कृतिनं शूरं लक्ष्मणं समयोधयत्।।
5-25-35a
5-25-35b
स सम्प्रहारस्तुमुलस्तयोरासीन्महात्मनोः।
श्रोतॄणामीक्षितॄणां च भृशं प्रीतिविवर्धनः।।
5-25-36a
5-25-36b
विकर्णस्तु महाप्राज्ञो याज्ञसेनिं शिखण्डिनम्।
पर्यवारयदायान्तं युवानं समरे युवा।।
5-25-37a
5-25-37b
ततस्तमिषुजालेन याज्ञसेनिः समावृणोत्।
विधूय तद्बाणजालं बभौ तव सुतो बली।।
5-25-38a
5-25-38b
अङ्गदोऽभिमुखं वीरमुत्तमौजसमाहवे।
द्रोणायाभिमुखं यान्तं शरौघेण न्यवारयत्।।
5-25-39a
5-25-39b
स सम्प्रहारस्तुमुलस्तयोः पुरुषसिंहयोः।
सैनिकानां च सर्वेषां तयोश्च प्रीतिवर्धनः।।
5-25-40a
5-25-40b
दुर्मुखस्तु महेष्वासो वीरं पुरुजितं बली।
द्रोणायाभिमुखं यान्तं वत्सदन्तैरवारयत्।।
5-25-41a
5-25-41b
स दुर्मुखं भ्रुवोर्मध्ये नाराचेनाभ्यताडयत्।
तस्य तद्धि बभौ वक्त्रं सनालमिव पङ्कजम्।।
5-25-42a
5-25-42b
कर्णस्तु केकयान्भ्रातॄन्पञ्च लोहितकध्वजान्।
द्रोणायाभिमुखं याताञ्शरवर्षैरवारयत्।।
5-25-43a
5-25-43b
ते चैनं भृशसन्तप्ताः शरवर्षैरवाकिरन्।
स च तांश्छादयामास शरजालैः पुनः पुनः।।
5-25-44a
5-25-44b
नैव कर्णो न ते पञ्च ददृशर्बाणसंवृताः।
साश्वसूतध्वजरथाः परस्परशराचिताः।।
5-25-45a
5-25-45b
पुत्रास्ते दुर्जयश्चैव जयश्च विजयश्च ह।
नीलकाश्यजयत्सेनांस्त्रयस्त्रीन्प्रत्यवारयन्।।
5-25-46a
5-25-46b
तद्युद्धमभवद्धोरमीक्षितृप्रीतिवर्धनम्।
सिंहव्याघ्रतरक्षूणां यथर्क्षमहिषर्षभैः।।
5-25-47a
5-25-47b
क्षेमधूर्तिबृहन्तौ तु भ्रातरौ सात्वतं युधि।
द्रोणायाभिमुखं यान्तं शरैस्तीक्ष्णैस्ततक्षतुः।।
5-25-48a
5-25-48b
तयोस्तस्य च तद्युद्धमत्यद्भुतमिवाभवत्।
सिंहस्य द्विपमुख्याभ्यां प्रभिन्नाभ्यां यथा वने।
5-25-49a
5-25-49b
राजानं तु तथाम्बष्ठमेकं युद्धाभिनन्दिनम्।
चेदिराजः शरानस्यन्क्रुद्धो द्रोणादवारयत्।।
5-25-50a
5-25-50b
ततोऽम्बष्ठोऽस्थिभेदिन्या निरभिद्यच्छलाकया।
स त्यक्त्वा सशरं चापं रथाद्भूमिमुपागमत्।।
5-25-51a
5-25-51b
वार्धक्षेमिं तु वार्ष्णेयं कृपः शारद्वतः शरैः।
अक्षुद्रः क्षुद्रकैर्बाणैः क्रुद्धरूपमवारयत्।।
5-25-52a
5-25-52b
युध्यन्तौ कृपवार्ष्णेयौ येऽपश्यंश्चित्रयोधिनौ।
ते युद्धासक्तमनसो नान्यं बुबुधिरे क्रियाम्।।
5-25-53a
5-25-53b
सौमदत्तिस्तु राजानं मणिमन्तमतन्द्रितम्।
पर्यवारयदायान्तं यशो द्रोणस्य वर्घयन्।।
5-25-54a
5-25-54b
स सौमदत्तेस्त्वरितश्चित्रेष्वसनकेतने।
पुनः पताकां सूतं चच्छत्रं चापातयद्रथात्।।
5-25-55a
5-25-55b
अथाप्लुत्य रथात्तूर्णं यूपकेतुरमित्रहा।
साश्वसूतध्वजरथं तं चकर्त वरासिना।।
5-25-56a
5-25-56b
रथं च स्वं समास्थाय धनुरादाय चापरम्।
स्वयं यच्छन्हयान्राजन्व्यधमत्पाण्डवीं चमूम्।।
5-25-57a
5-25-57b
पाण्ड्यमिन्द्रमिवायान्तमसुरान्प्रति दुर्जयम्।
समर्थः सायकौघेन वृषसेनो न्यवारयत्।।
5-25-58a
5-25-58b
`अथाजगाम हैडिम्बो महामायो महाबलः।
पितॄणां हितमन्विच्छन्दहन्कौरववाहिनीम्'।।
5-25-59a
5-25-59b
गदापरिघनिस्त्रिंशपट्टसायोघनोपलैः।
कडङ्गरैर्भुशुण्डीभिः प्रासैस्तोमरसायकैः।।
5-25-60a
5-25-60b
मुसलैर्मुद्गरैश्चक्रैर्न्भिण्डिपालपरश्वथैः।
पांसुवाताग्निसलिलैर्भस्मलोष्ठतृणद्रुमैः।।
5-25-61a
5-25-61b
आतुदन्प्ररुजन्भञ्जन्निघ्नन्विद्रावयन्क्षिपन्।
सेनां विभीषयन्नायाद्दोणप्रेप्सुर्घटोत्कचः।।
5-25-62a
5-25-62b
तं तु नानाप्रहरणैर्नानायुद्धविशेषणैः।
राक्षसं राक्षसः क्रुद्धः समाजघ्ने ह्यलम्बुसः।।
5-25-63a
5-25-63b
तयोस्तदभवद्युद्धं रक्षोग्रामणिमुख्ययोः।
तादृग्यादृक्पुरावृत्तं शम्बरामरराजयोः।।
5-25-64a
5-25-64b
एवं द्वन्द्वशतान्यासन्रथवारणवाजिनाम्।
पदातीनां च भद्रं ते तव तेषां च सङ्कुले।।
5-25-65a
5-25-65b
नैतादृशो दृष्टपूर्वः सङ्ग्रामो नैव च श्रुतः।
द्रोणस्याभावभावे तु प्रसक्तानां परस्परम्।।
5-25-66a
5-25-66b
इदं घोरमिदं चित्रमिदं रौद्रमिति प्रभो।
तत्र युद्धान्यदृश्यन्त प्रततानि बहूनि च।।
5-25-67a
5-25-67b
।। इति श्रीमन्महाभारते द्रोणपर्वणि संशप्तकवधपर्वणि
द्वादशदिवसयुद्धे पञ्चविंशोऽध्यायः।। 25 ।।

सम्पाद्यताम्

5-25-1 भीरोर्भावो भैरवं भयमिति यावत्।। 5-25-2 दृष्टिपथे गते इति ङ पाठः।। 5-25-7 बाह्यं मृत्युभयं इति क.ङ.पाठः।। 5-25-21 उत्पिञ्जलकमत्यन्ताकुलम्। तदद्भुततमं युद्धं इति क.ङ.पाठः।। 5-25-22 भूतकर्मा सभापतिरिति द्विनामा।। 5-25-25 भीमरथो राजभ्राता।। 5-25-45 ददृशुः ददृशिरे।। 5-25-51 शलाकया शङ्कुना।। 5-25-60 अयोघाना कडङ्गरैर्दण्डैः।। 5-25-62 आतुदन् व्यथयन्। प्ररुजन्विध्यन्। भञ्जन् आमर्दयन्। निघ्नन् मारयन्। विद्रावयन्पलाययन्। क्षिपन्प्रेरयन्।। 5-25-66 आभावभावे मारणे रक्षणे च।। 5-25-25 पञ्चविंशोऽध्यायः।। 25 ।।

द्रोणपर्व-024 पुटाग्रे अल्लिखितम्। द्रोणपर्व-026