महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-099
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अर्जुनेन रणाङ्कणे हयाप्यायनाय शरैः सरोनिर्माणम्।। 1 ।। तथा शरमयवेश्मनिर्माणम्।। 2 ।।
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सञ्जय उवाच। | 5-99-1x |
`वर्तमाने तदा युद्धे द्रोणस्य सह पाण्डुभिः'। परिवर्तमान आदित्ये तत्र सूर्ये च रश्मिभिः। रजसा कीर्यमाणाश्च मन्दीभूताश्च कौरवाः।। | 5-99-1a 5-99-1b 5-99-1c |
तिष्ठतां युध्यमानानां पुनरावर्ततामपि। भज्यतां जयतां चैव जगाम तदहः शनैः।। | 5-99-2a 5-99-2b |
तथा तेषु विषक्तेषु सैन्येषु जयगृद्धिषु। अर्जुनो वासुदेवश्च सैन्धवायैव जग्मतुः।। | 5-99-3a 5-99-3b |
रथमार्गप्रमाणं तु कौन्तेयो निशितैः शरैः। चकार यं च पन्थानं ययौ तेन जनार्दनः।। | 5-99-4a 5-99-4b |
यत्रयत्र रथो याति पाण्डवस्य महात्मनः। तत्रतत्रैव दीर्यन्ते सेनास्तव विशाम्पते।। | 5-99-5a 5-99-5b |
रथशिक्षां तु दाशार्हो दर्शयामास वीर्यवान्। उत्तमाधममध्यानि मण्डलानि विदर्शयन्।। | 5-99-6a 5-99-6b |
ते तु नामाङ्किता बाणाः कालज्वलनसन्निभाः। स्नायुनद्धाः सुपर्वाणः पृथवो दीर्घगामिनः।। | 5-99-7a 5-99-7b |
वैणवाश्चायसाश्चोग्रा ग्रसन्तो विविधानरीन्। रुधिरं पतगैः सार्धं प्राणिनां पपुराहवे।। | 5-99-8a 5-99-8b |
रथस्थितोऽग्रतः क्रोशं यानस्यत्यर्जुनः शरान्। रथे क्रोशमतिक्रान्ते तस्य ते घ्नन्ति शात्रवान्।। | 5-99-9a 5-99-9b |
तार्क्ष्यमारुतरंहोभिर्वाजिभिः साधुवाहिभिः। यथाऽगच्छद्धृषीकेशः कृत्स्नं विस्मापयञ्जगत्।। | 5-99-10a 5-99-10b |
न तथा गच्छति रथस्तपनस्य विशाम्पते। नेन्द्रस्य न तु रुद्रस्य नापि वैश्रवणस्य च।। | 5-99-11a 5-99-11b |
नान्यस्य समरे राजन्गतपूर्वस्तथा रथः। यथा ययावर्जुनस्य मनोभिप्रायशीघ्रगः।। | 5-99-12a 5-99-12b |
प्रविश्य तु रणे राजन्केशवः परवीरहा। सेनामध्ये हयांस्तूर्णं चोदयामास भारत।। | 5-99-13a 5-99-13b |
ततस्तस्य रथौघस्य मध्यं प्राप्य हयोत्तमाः। कृच्छ्रेणरथमूहुस्तं क्षुत्पिपासासमन्विताः।। | 5-99-14a 5-99-14b |
क्षताश्च बहुभिः शस्त्रैर्युद्धशौण्डैरनेकशः। मण्डलानि विचित्राणि विचेरुस्ते मुहुर्मुहुः।। | 5-99-15a 5-99-15b |
हतानां वाजिनागानां रथानां च नरैः सह। उपरिष्टादतिक्रान्ताः शैलाभानां सहस्रशः।। | 5-99-16a 5-99-16b |
`श्रमेण महता युक्तास्ते हया वातरंहसः। मन्दवेगगता राजन्संवृत्तास्तत्र संयुगे'।। | 5-99-17a 5-99-17b |
एतस्मिन्नन्तरे वीरावावन्त्यौ भ्रातरौ नृप। सहसेनौ समार्च्छेतां पाण्डवं क्लान्तवाहनम्।। | 5-99-18a 5-99-18b |
तावर्जुनं चतुःषष्ट्या सप्तत्या च जनार्दनम्। शराणां च शतैरश्वानविध्येतां मुदान्वितौ।। | 5-99-19a 5-99-19b |
तावर्जुनो महाराज नवभिर्नतपर्वभिः। आजघान रणे क्रुद्धो मर्मज्ञो मर्मभेदिभिः।। | 5-99-20a 5-99-20b |
ततस्तौ तु शरौघेण बीभत्सुं सहकेशवम्। आच्छादयेतां संरब्धौ सिंहनादं च चक्रतुः।। | 5-99-21a 5-99-21b |
तयोस्तु धनुषी मुष्टौ भल्लाभ्यां श्वेतवाहनः। चिच्छेद समरे तूर्णं भूय एव धनञ्जयः। अथान्यैर्विशिखैस्तूर्णं ध्वजौ च कनकोज्ज्वलौ।। | 5-99-22a 5-99-22b 5-99-22c |
अथान्ये धनुषी राजन्प्रगृह्य समरे तदा। पाण्डवं भृशसङ्क्रुद्धावर्दयामासतुः शरैः।। | 5-99-23a 5-99-23b |
तयोस्तु भृशसङ्क्रुद्धः शराभ्यां पाण्डुनन्दनः। धनुषी चिच्छिदे तूर्णं भूय एव धनञ्जयः।। | 5-99-24a 5-99-24b |
तथान्यैर्विशिखैस्तूर्णं रुक्मपुङ्खैः शिलाशितैः। जघानाश्वांस्तथा सूतौ पार्ष्णी च सपदानुगौ।। | 5-99-25a 5-99-25b |
ज्येष्ठस्य च शिरः कायात्क्षुरप्रेण न्यकृन्तत। स पपात हतः पृथ्व्यां वातरुग्ण इव द्रुमः।। | 5-99-26a 5-99-26b |
विन्दं तु निहतं दृष्ट्वा ह्यनुविन्दः प्रतापवान्। हताश्वं रथमुत्सृज्य गदां गृह्य महाबलः।। | 5-99-27a 5-99-27b |
अभ्यवर्तत सङ्ग्रामे भ्रातुर्वधमनुस्मरन्। गदया रथिनां श्रेष्ठो नृत्यन्निव महारथः।। | 5-99-28a 5-99-28b |
अनुविन्दस्तु गदया ललाटे मधुसूदनम्। स्पष्ट्वा नाकम्पयत्क्रुद्धो मैनाकमिव पर्वतम्।। | 5-99-29a 5-99-29b |
तस्यार्जुनः शरैः षड्भिर्ग्रीवां पादौ भुजौ शिरः। निचकर्त स सञ्छन्नः पपाताद्रिचयो यथा।। | 5-99-30a 5-99-30b |
ततस्तौ निहतौ दृष्ट्वा तयो राजन्पदानुगाः। अभ्यद्रुवन्त सङ्क्रुद्धाः किरन्तः शतशः शरान्।। | 5-99-31a 5-99-31b |
तानर्जुनः शरैस्तूर्णं निहत्य भरतर्षभ। व्यरोचत यथा वह्निर्दावं दग्ध्वा हिमात्यये।। | 5-99-32a 5-99-32b |
तयोः सेनामतिक्रम्य कृच्छ्रादिव धनञ्जयः। विबभौ जलदं हित्वा दिवाकर इवोदितः।। | 5-99-33a 5-99-33b |
तं दृष्ट्वा कुरवस्त्रस्ताः प्रहृष्टाश्चाभवन्पुनः। अभ्यवर्तन्त पार्थं च समन्ताद्भरतर्षभ।। | 5-99-34a 5-99-34b |
श्रान्तं चैनं समालक्ष्य ज्ञात्वा दूरे च सैन्धवम्। सिंहनादेन महता सर्वतः पर्यवारयन्।। | 5-99-35a 5-99-35b |
तांस्तु दृष्ट्वा सुसंरब्धानुत्स्मयन्पुरुषर्भः। शनकैरिव दाशार्हमर्जुनो वाक्यमब्रवीत्।। | 5-99-36a 5-99-36b |
शरार्दिताश्च ग्लानाश्च हया दूरे च सैन्धवः। किमिहानन्तरं कार्यं साधिष्ठं तव रोचते।। | 5-99-37a 5-99-37b |
ब्रूहि कृष्ण यथातत्त्वं त्वं हि प्राज्ञतमः सदा। भवन्नेत्रा रणे शत्रून्विजेष्यन्तीह पाण्डवाः।। | 5-99-38a 5-99-38b |
मम त्वनन्तरं कृत्यं यद्वै तत्त्वं निबोध मे। हयान्विमुच्य हि सुखं विशल्यान्कुरु माधव।। | 5-99-39a 5-99-39b |
सञ्जय उवाच। | 5-99-40x |
एवमुक्तस्तु पार्थेन केशवः प्रत्युवाच तम्। ममाप्येतन्मतं पार्थ यदितं ते प्रभाषितम्।। | 5-99-40a 5-99-40b |
अर्जुन उवाच। | 5-99-41x |
अहमावारयिष्यामि सर्वसैन्यानि केशव। त्वमप्यत्र यथान्यायं कुरु कार्यमनन्तरम्।। | 5-99-41a 5-99-41b |
सञ्जय उवाच। | 5-99-42x |
सोऽवतीर्य रथोपस्थादसम्भ्रान्तो धनञ्जयः। गाण्डीवं धनुरादाय तस्थौ गिरिविवाचलः)।। | 5-99-42a 5-99-42b |
तमभ्यधावन्क्रोशन्तः क्षत्रिया जयकाङ्क्षिणः। इदं छिद्रमिति ज्ञात्वा धरणीस्थं धनञ्जयम्।। | 5-99-43a 5-99-43b |
तमेकं रथवंशेन महता पर्यवारयन्। विकर्षन्तश्च चापानि विसृजन्तश्च सायकान्।। | 5-99-44a 5-99-44b |
शस्त्राणि च विचित्राणि क्रुद्धास्तत्र व्यदर्शयन्। छादयन्तः शरैः पार्थं मेघा इव दिवाकरम्।। | 5-99-45a 5-99-45b |
अभ्यद्रवन्त वेगेन क्षत्रियाः क्षत्रियर्षभम्। नरसिंहं रथोदाराः सिंहं मत्ता इव द्विपाः।। | 5-99-46a 5-99-46b |
तत्र पार्थस्य भुजयोर्महद्बलमदृश्यत। यत्क्रुद्धो बहुलाः सेनाः सर्वतः समवारयत्।। | 5-99-47a 5-99-47b |
अस्त्रैरस्त्राणि संवार्य द्विषतां सर्वतो विभुः। इषुभिर्बुभिस्तूर्णं सर्वानेव समावृणोत्।। | 5-99-48a 5-99-48b |
तत्रान्तरिक्षे बाणानां प्रगाढानां विशाम्पते। सङ्घर्षेण महार्चिष्मान्पावकः समजायत।। | 5-99-49a 5-99-49b |
तत्रतत्र महेष्वासैः श्वसद्भिः शोणितोक्षितैः। हयैर्नागैश्च सम्भिन्नैर्नदद्भिश्चारिकर्शन।। | 5-99-50a 5-99-50b |
संरब्धैश्चारिभिर्वीरैः प्रार्थयद्भिर्जयं मृधे। एकस्थैर्बहुभिः क्रुद्धैरूष्मेव समजायत।। | 5-99-51a 5-99-51b |
शरोर्मिणं ध्वजावर्तं नागनक्रं दुरत्ययम्। पदातिमत्स्यकलिलं शङ्खदुन्दुभिनिःस्वनम्।। | 5-99-52a 5-99-52b |
असङ्ख्येयमपारं च रजो नीरमतीव च। उष्णीषकमठं छत्रपताकाफेनमालिनम्।। | 5-99-53a 5-99-53b |
रथसागरमक्षोभ्यं मातङ्गाङ्गशिलाचितम्। वेलाभूतस्तदा पार्थः पत्रिभिः समवारयत्।। | 5-99-54a 5-99-54b |
[धृतराष्ट्र उवाच। | 5-99-55x |
अर्जुने धरणीं प्राप्ते हयहस्ते च केशवे। एतदन्तरमासाद्य कथं पार्थो न घातितः।। | 5-99-55a 5-99-55b |
सञ्जय उवाच। | 5-99-56x |
सद्यः पार्थिव पार्थेन निरुद्धाः सर्वपार्थिवाः। रथस्था धरणीस्थेन वाक्यमच्छान्दसं यथा।। | 5-99-56a 5-99-56b |
स पार्थः पार्थिवान्सर्वान्भूमिस्थोपि रथस्थितान्। एको निवारयामास लोभः सर्वगुणानिव।।] | 5-99-57a 5-99-57b |
ततो जनार्दनः सङ्ख्ये प्रियं पुरुषसत्तमम्। असम्भ्रान्तो महाबाहुरर्जुनं वाक्यमब्रवीत्।। | 5-99-58a 5-99-58b |
उदपानमिहाश्वानां नालमस्ति रणेऽर्जुन। परीप्सन्ते जलं चेमे पेयं न त्ववगाहनम्।। | 5-99-59a 5-99-59b |
इदमस्तीत्यसम्भ्रान्तो ब्रुवन्नस्त्रेण मेदिनीम्। अभिहत्यार्जुनश्चक्रे वाजिपानं सरः शुभम्।। | 5-99-60a 5-99-60b |
[हंसकारण्डवाकीर्णं चक्रवाकोपशोभितम्। सुविस्तीर्णं प्रसन्नाम्भः प्रफुल्लवरपङ्कजम्।। | 5-99-61a 5-99-61b |
कूर्ममत्स्यगणाकीर्णमगाधमृषिसेवितम्। आगच्छन्नारदमुनिर्दर्शनार्थं कृतं क्षणात्।।] | 5-99-62a 5-99-62b |
शरवंशं शरस्थूणं शराच्छादनमद्भुतम्। शरवेश्माकरोत्पार्थस्त्वष्टेवाद्भुतकर्मकृत्।। | 5-99-63a 5-99-63b |
ततः प्रहस्य गोविन्दः साधुसाध्वित्यथाब्रवीत्। शरवेश्मनि पार्थेन कृते तस्मिन्महात्मना।। | 5-99-64a 5-99-64b |
।। इति श्रीमन्महाभारते द्रोणपर्वणि जयद्रथवधपर्वणि चतुर्दशदिवसयुद्धे एकोनशततमोऽध्यायः।। 99 ।। |
5-99-17 स्नायुनद्धाः सूक्ष्मचर्माग्रग्रथिताः।। 5-99-9 क्रोशं कोशमुद्दिश्य।। 5-99-25 सूतौ सारथी। पाष्णीं पृष्ठरक्षौ।। 5-99-30 अद्रिचयो निरिशृङ्गम्।। 5-99-49 प्रगाढानां व्यवगाढानाम्।। 5-99-54 वेलाभूतो मर्यादारूपः।। 5-99-55 कुण्डलितास्त्रयः श्लोकाः झ. पाठे एव वर्तन्ते।। 5-99-59 अलं पर्याप्तम्।। 5-99-60 अभिहत्य खात्वा। दाजिपानं अश्वपानीयम्।। 5-99-61 हंसकारण्डवाकीर्णमित्यादियोग्यतया वर्णनम्।। कुण्डलितौ द्वौ श्लोकौ घ.झ.पाठयोरेव।। 5-99-63 वंशः शालाधारकाष्ठम्। स्थूणा मध्यस्तम्भः।। 5-99-99 एकोनशततमोऽध्यायः।।
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