महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-021
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युधिष्ठिरं जिघृक्षतो द्रोणस्य सत्यजिता निराधः।। 1 ।। द्रोणेन सत्यजिति निहते भयाद्युधिष्ठिरस्यापयानम्।। 2 ।। पुनर्युधिष्ठिरं जिघृक्षुणा द्रोणेन पाञ्चाल्यादीनां हननम्।। 3 ।।
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सञ्जय उवाच। | 5-21-1x |
ततो युधिष्ठिरो द्रोणं दृष्ट्वान्तिकमुपागतम्। महता शरवर्षेण प्रत्यगृह्णादभीतवत्।। | 5-21-1a 5-21-1b |
ततो हलहलाशब्द आसीद्यौधिष्ठिरे बले। जिघृक्षति महासिंहे गजानामिव यूथपम्।। | 5-21-2a 5-21-2b |
दृष्ट्वा द्रोणं ततः शूरः सत्यजित्सत्यविक्रमः। युधिष्ठिरमभिप्रेप्सुराचार्यं समुपाद्रवत्।। | 5-21-3a 5-21-3b |
तत आचार्यपाञ्चाल्यौ युयुधाते महाबलौ। विक्षोभयन्तौ तत्सैन्यमिन्द्रवैरोचनाविव।। | 5-21-4a 5-21-4b |
ततो द्रोणं महेष्वासः सत्यजित्सत्यविक्रमः। अविध्यन्निशिताग्रेण परमास्त्रं विदर्शयन्।। | 5-21-5a 5-21-5b |
तथास्य सारथेः पञ्च शरान्सर्पविषोपमान्। अमुञ्चदन्तकप्रख्यान्संमुमोहास्य सारथिः।। | 5-21-6a 5-21-6b |
अथास्य सहसाऽविध्यद्धयान्दशभिराशुगैः। दशभिर्दशभिः क्रुद्ध उभौ च पार्ष्णिसारथी।। | 5-21-7a 5-21-7b |
मण्डलं तु समावृत्य विचरन्पृतनामुखे। ध्वजं चिच्छेद च क्रुद्धो द्रोणस्यामित्रकर्षणः।। | 5-21-8a 5-21-8b |
द्रोणस्तु तत्समालोक्य चरितं तस्य संयुगे। मनसा चिन्तयामास प्राप्तकालमरिन्दमः।। | 5-21-9a 5-21-9b |
ततः सत्यजितं तीक्ष्णैर्दशभिर्मर्मभेदभिः। अविध्यच्छीघ्रमाचार्यश्छित्त्वाऽस्य सशरं धनुः।। | 5-21-10a 5-21-10b |
स शीघ्रतरमादाय धनुरन्यत्प्रतापवान्। द्रोणमब्यहनद्राजंस्त्रिंशता कङ्कपत्रिभिः।। | 5-21-11a 5-21-11b |
दृष्ट्वा सत्यजिता द्रोणं ग्रस्यमानमिवाहवे। वृकः शरशतैस्तीक्ष्णैः पाञ्चाल्यो द्रोणमार्दयत्।। | 5-21-12a 5-21-12b |
सञ्छाद्यमानं समरे द्रोणं दृष्ट्वा महारथम्। चुक्रुशुः पाण्डवा राजन्वस्त्राणि दुधुवुश्च ह।। | 5-21-13a 5-21-13b |
वृकस्तु परमक्रुद्धो द्रोणं षष्ट्या स्तनान्तरे। विव्याध बलवान्राजंस्तदद्भुतमिवाभवत्।। | 5-21-14a 5-21-14b |
द्रोणस्तु शरवर्षेण च्छाद्यमानो महारथः। वेगं चक्रे महावेगः क्रोधादुद्वृत्य चक्षुषी।। | 5-21-15a 5-21-15b |
ततः सत्यजितश्चापं छित्त्वा द्रोणो वृकस्य च। षड्भिः ससूतं सहयं शरैर्द्रोणोऽवधीद्वृकम्।। | 5-21-16a 5-21-16b |
अथान्यद्धनुरादाय सत्यजिद्वेगवत्तरम्। साश्वं ससूतं विशिखैर्द्रोणं विव्याध सध्वजम्।। | 5-21-17a 5-21-17b |
स तन्न ममृषे द्रोणः पाञ्चाल्येनार्दितो मृधे। ततस्तस्य विनाशाय सत्वरं व्यसृजच्छरान्।। | 5-21-18a 5-21-18b |
हयान्ध्वजं धनुर्मुष्टिमुभौ च पार्ष्णिसारथी। अवाकिरत्ततो द्रोणः शरवर्षैः सहस्रशः।। | 5-21-19a 5-21-19b |
तथा सञ्छिद्यमानेषु कार्मुकेषु पुनःपुनः। पाञ्चाल्यः परमास्त्रज्ञः शोणाश्वं समयोधयत्।। | 5-21-20a 5-21-20b |
स सत्यजितमालोक्य तथोदीर्णं महाहवे। अर्धचन्द्रेण चिच्छेद शिरस्तस्य महात्मनः।। | 5-21-21a 5-21-21b |
तस्मिन्हते महामात्रे पाञ्चालानां महारथे। अपायाज्जवनैरश्वैर्द्रोणात्त्रस्तो युधिष्ठिरः।। | 5-21-22a 5-21-22b |
पाञ्चालाः केकया मात्स्याश्चेदिकारूशकोसलाः। युधिष्ठिरमभीप्सन्तो दृष्ट्वा द्रोणमुपाद्रवन्।। | 5-21-23a 5-21-23b |
ततो युधिष्ठिरं प्रेप्सुराचार्यः शत्रुपूगहा। व्यधमत्तान्यनीकानि तूलराशिमिवानलः।। | 5-21-24a 5-21-24b |
निर्दहन्तमनीकानि तानि तानि पुनःपुनः। द्रोणं मत्स्यादवरजः शतानीकोऽभ्यवर्तत।। | 5-21-25a 5-21-25b |
सूर्यरश्मिप्रतीकाशैः कर्मारपरिमार्जितैः। षड्भिः ससूतं सहयं द्रोणं विद्ध्वाऽनदद्भृशम्।। | 5-21-26a 5-21-26b |
क्रूराय कर्मणे युक्तश्चिकीर्षुः कर्म दुष्करम्। अवाकिरच्छरशतैर्भारद्वाजं महारथम्।। | 5-21-27a 5-21-27b |
तस्य नानदतो द्रोणः शिरः कायात्सकुण्डलम्। क्षुरेणापाहरत्तुर्णं ततो मत्स्याः प्रदुद्रुवुः।। | 5-21-28a 5-21-28b |
मत्स्याञ्जित्वाऽजयच्चेदीन्करूशान्केकयानपि। पाञ्चालान्सृञ्जयान्पाण्डून्भारद्वाजः पुनःपुनः।। | 5-21-29a 5-21-29b |
तं दहन्तमनीकानि क्रुद्धमग्निं यथा वनम्। दृष्ट्वा रुक्मरथं वीरं समकम्पन्त सृञ्जयाः।। | 5-21-30a 5-21-30b |
उभाभ्यां सन्दधानस्य धनुरस्याशुकारिणः। ज्याघोषो निघ्नतोऽमित्रान्दिक्षुसर्वासु शुश्रुवे।। | 5-21-31a 5-21-31b |
नागानश्वान्पदातींश्च रथिनो गजसादिनः। रौद्रा हस्तवता मुक्ताः प्रमथ्नन्ति स्म सायकाः।। | 5-21-32a 5-21-32b |
नानद्यमानः पर्जन्यो मिश्रवातो हिमात्यये। अश्मवर्षमिवावर्षन्परेषां भयमादधत्।। | 5-21-33a 5-21-33b |
सर्वा दिशः समचरत्सैन्यं विक्षोभयन्निव। बली शूरो महेष्वासो मित्राणामभयङ्करः।। | 5-21-34a 5-21-34b |
तस्य विद्युदिवाभ्रेषु चापं हेमपरिष्कृतम्। दिक्षु सर्वासु पश्यामो द्रोणस्यामिततेजसः।। | 5-21-35a 5-21-35b |
शोभमानां ध्वजे चास्य वेदीमद्राक्ष्य भारत। हिमवच्छिखराकारं चरतः संयुगे भृशम्।। | 5-21-36a 5-21-36b |
द्रोणस्तु पाण्डवानीके चकार कदनं महत्। यथा दैत्यगणे विष्णुः सुरासुरनमस्कृतः।। | 5-21-37a 5-21-37b |
स शूरः सत्यवाक्प्राज्ञो बलवान्सत्यविक्रमः। महानुभावः कल्पान्ते रौद्रां भीरुविभीषणाम्।। | 5-21-38a 5-21-38b |
कवचोर्मिध्वजावर्तां मर्त्यकूलापहारिणीम्।। गजवाजिमहाग्राहामसिमीनां दुरासदाम्।। | 5-21-39a 5-21-39b |
वीरास्यिशर्करां रौद्रां भेरीमुरजकच्छपाम्। चर्मवर्मप्लवां घोरां केशशैवलशाद्वलाम्।। | 5-21-40a 5-21-40b |
शरौघिणीं धनुःस्रोतां बाहुपन्नगसङ्कुलाम्। रणभूमिवहां तीव्रां कुरुसृञ्जयवाहिनीम्।। | 5-21-41a 5-21-41b |
मनुष्यशीर्षपाषाणां शक्तिमीनां गदोडुपाम्। उष्णीषफेनवसनां विकीर्णान्त्रसरीसृपाम्।। | 5-21-42a 5-21-42b |
वीरापहारिणीमुग्रां मांसशोमितकर्दमाम्। हस्तिग्राहां केतुवृक्षां क्षत्रियाणां निमज्जनीम्।। | 5-21-43a 5-21-43b |
क्रूरां शरीरसङ्घाटां सादिनक्रां दुरत्ययाम्। द्रोणः प्रावर्तयत्तत्र नदीमन्तकगामिनीम्।। | 5-21-44a 5-21-44b |
क्रव्यादगणसञ्जुष्टां श्वशृगालगणायुताम्। निषेवितां महारौद्रैः पिशिताशैः समन्ततः।। | 5-21-45a 5-21-45b |
तं दहन्तमनीकानि रथोदारं कृतान्तवत्। सर्वतोऽभ्यद्रवन्द्रोणं कुन्तीपुत्रपुरोगमाः।। | 5-21-46a 5-21-46b |
ते द्रोणं सहिताः शूराः सर्वतः प्रत्यवारयन्। गभस्तिभिरिवादित्यं तपन्तं भुवनं यथा।। | 5-21-47a 5-21-47b |
तं तु शूरं महेष्वासं तावकाऽभ्युद्यतायुधाः। राजानो राजपुत्राश्च समन्तात्पर्यवारयन्।। | 5-21-48a 5-21-48b |
शिखण्डी तु ततो द्रोणं पञ्चभिर्नतपर्वभिः। क्षत्रवर्मा च विंशत्या वसुदानश्च पञ्चभिः।। | 5-21-49a 5-21-49b |
उत्तमौजास्त्रिभिर्बाणैः क्षत्रदेवश्च सप्तभिः। सात्यकिश्च शतेनाजौ युधामन्युस्तथाऽष्टभिः।। | 5-21-50a 5-21-50b |
युधिष्ठिरो द्वादशभिर्द्रोणं विव्याध सायकैः। धृष्टद्युम्नश्च दशभिश्चेकितानस्त्रिभिः शरैः।। | 5-21-51a 5-21-51b |
ततो द्रोणः सत्यसन्धः प्रभिन्न इव कुञ्जरः। अभ्यतीत्य स्थानीकं दृढसेनमपातयत्।। | 5-21-52a 5-21-52b |
ततो राजानमासाद्य प्रहरन्तमभीतवत्। अविध्यन्नवभिः क्षेमं स हतःप्रापतद्रथात्।। | 5-21-53a 5-21-53b |
स मध्यं प्राप्य सैन्यानां सर्वाः प्रविचरन्दिशः। त्राता ह्यभवदन्येषां न त्रातव्यः कथंचन।। | 5-21-54a 5-21-54b |
शिखण्डिनं द्वादशभिर्विंशत्या चोत्तमौजसम्। वसुदानं च भल्लेन प्रैषयद्यमसादनम्।। | 5-21-55a 5-21-55b |
अशीत्या क्षत्रवर्माणं षड्विंशत्या सुदक्षिणम्। क्षत्रदेवं तु भल्लेन रथनीडाडपातयत्।। | 5-21-56a 5-21-56b |
युधामन्युं चतुःषष्ट्या त्रिंशता चैव सात्यकिम्। विद्ध्वा रुक्मरथस्तूर्णं युधिष्ठिरमुपाद्रवत्।। | 5-21-57a 5-21-57b |
ततो युधिष्ठिरः क्षिप्रं गुरुतो राजसत्तमः। अपायाञ्जवनैरश्वैः पाञ्चाल्यो द्रोणमभ्ययात्।। | 5-21-58a 5-21-58b |
तं द्रोणः सधनुष्कं तु साश्वयन्तारमाक्षिणोत्। स हतः प्रापतद्भूमौ रथाज्ज्योतिरिवाम्बरात्। `हत्वा तं विबभौ द्रोणः कुरुभिः परिवारितः।। | 5-21-59a 5-21-59b 5-21-59c |
वार्धक्षेमिस्तु वार्ष्णेयो द्रोणं विद्ध्वा शरोत्तमैः। नवभिश्च महीपालः पुनर्विव्याध पञ्चभिः।। | 5-21-60a 5-21-60b |
स सात्यकिश्चतुष्षष्ट्या राजन्विव्याध सायकैः। सुचित्रो दशभिर्बाणैर्द्रोणं विद्व्वाऽनदद्बली।। | 5-21-61a 5-21-61b |
तं द्रोणः समरे राजञ्शरवर्षैरवाकिरत्। अपातयत्तयो द्रोणः सुचित्रं सहसारथिम्।। | 5-21-62a 5-21-62b |
साश्वं च समरे राजन्हतो वै प्रापतत्क्षितौ। पात्यमानो महाराज बभौ ज्योतिरिवाम्बरात्।। | 5-21-63a 5-21-63b |
तस्मिन्हते राजपुत्रे पाञ्चालानां यशस्करे। हत द्रोणं हत द्रोणमित्यासीन्निःस्वनो महान्।। | 5-21-64a 5-21-64b |
तांस्तथा भृशसंरब्धान्पाञ्चालान्मत्स्यकेकयान्। सृञ्जयान्पाण्डवांश्चैव द्रोणो व्यक्षोभयद्बली।। | 5-21-65a 5-21-65b |
सात्यकिं चेकितानं च धृष्टद्युम्नशिखण्डिनौ। वार्धक्षेमिं चैत्रसेनिं सेनाबिन्दुं सुवर्चसम्।। | 5-21-66a 5-21-66b |
एतांश्चान्यांश्च सुबहून्नानाजनपदेश्वरान्। सर्वान्द्रोणोऽजयद्युद्धे कुरुभिः परिवारितः।। | 5-21-67a 5-21-67b |
तावकाश्च महाराज जयं लब्ध्वा महाहवे। पाण्डवेयान्रणे जघ्नुर्द्रवमाणान्समन्ततः।। | 5-21-68a 5-21-68b |
ते दानवा इवेन्द्रेण वध्यमाना महात्मना। पाञ्चालाः केकया मात्स्याः समकम्पन्त भारत।। | 5-21-69a 5-21-69b |
।। इति श्रीमन्महाभारते द्रोणपर्वणि संशप्तकवधपर्वणि द्वादशदिवसयुद्धे एकविंशोऽध्यायः।। 21 ।। |
5-21-55 उभयत्र विद्व्वेति शेषः।। 5-21-58 पाञ्चाल्यो नाम्ना।। 5-21-21 एकविंशोऽध्यायः।।
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