महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-030
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अर्जुनयुद्धवर्णनम्।। 1 ।।
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सञ्जय उवाच। | 5-30-1x |
प्रियमिन्द्रस्य सततं सखायममितौजसम्। हत्वा प्राग्ज्योतिषं पार्थः प्रदक्षिणमवर्तत।। | 5-30-1a 5-30-1b |
ततो गान्धारराजस्य सुतौ परपुरञ्जयौ। अर्देतामर्जुनं सङ्ख्ये भ्रातरौ वृषकाचलौ।। | 5-30-2a 5-30-2b |
तौ समेत्यार्जुनं वीरौ पुरः पश्चाच्च धन्वितौ। अविध्येतां महावेगैर्निशितैराशुगैर्भृशम्।। | 5-30-3a 5-30-3b |
वृषकस्य हयान्सूतं धनुश्छत्रं रथं ध्वजम्। तिलशो व्यधमत्पार्थः सौबलस्य शितैः शरैः।। | 5-30-4a 5-30-4b |
ततोऽर्जुनः शरव्रातैर्जानाप्रहरणैरपि। गान्धारानाकुलांश्चक्रे सौबलप्रमुखान्पुनः।। | 5-30-5a 5-30-5b |
ततः पञ्चशतान्वीरान्गान्धारानुद्यतायुधान्। प्राहिणोन्मृत्युलोकाय क्रुद्धो बाणैर्धनञ्जयः।। | 5-30-6a 5-30-6b |
हताश्वात्तु रथात्तूर्णमवतीर्य महाभुजः। आरुरोह रथं भ्रातुरन्यश्च धनुराददे।। | 5-30-7a 5-30-7b |
तावेकरथमारूढौ भ्रातरौ वृषकाचलौ। शरवर्षेण बीभत्सुमविध्येतां मुहुर्मुहुः।। | 5-30-8a 5-30-8b |
स्यालौ तव महात्मानौ राजानौ वृषकाचलौ। भृशं विजघ्नतुः पार्थमिन्द्रं वृत्रबलाविव।। | 5-30-9a 5-30-9b |
लब्धलक्षौ तु गान्धारावहतां पाण्डवं पुनः। नैदाघवार्षिकौ मासौ लोकं घर्मांशुभिर्यथा।। | 5-30-10a 5-30-10b |
तौ रथस्थौ नरव्याघ्रौ राजानौ वृषकाचलौ। संश्चिष्टाङ्गौ स्थितौ राजञ्जघानैकेषुणाऽर्जुनः।। | 5-30-11a 5-30-11b |
तौ रथात्सिंहसंकाशौ लोहिताक्षौ महाभुजौ। राजन्सम्पेततुर्वीरौ सोदर्यावेकलक्षणौ।। | 5-30-12a 5-30-12b |
तयोर्भूमिं गतौ देहौ रथाद्बन्धुजनप्रियौ। यशो दशः दिशः पुण्यं गमयित्वा व्यवस्थितौ।। | 5-30-13a 5-30-13b |
दृष्ट्वा विनिहतौ सङ्ख्ये मातुलावपलायिनौ। भृशं मुमुचुरश्रूणि पुत्रास्तव विशांपते।। | 5-30-14a 5-30-14b |
निहतौ भ्रातरौ दृष्ट्वा मायाशतविशारदः। कृष्णौ सम्मोहन्मायां विदधे शकुनिस्ततः।। | 5-30-15a 5-30-15b |
लगुडायोगुडाश्मानः शतघ्न्यश्च सशक्तयः। गदापरिघनिस्त्रिंशशूलमुद्गरपट्टसाः।। | 5-30-16a 5-30-16b |
सकम्पनर्ष्टिनखरा मुसलानि परश्वथाः। क्षुराः क्षुरप्रनालीका वत्सदन्तास्थिसन्धयः।। | 5-30-17a 5-30-17b |
चक्राणि विशिखाः प्रासा विविधान्यायुधानि च। प्रपेतुः शतशो दिग्भ्यः प्रदिग्भ्यश्चार्जुनं प्रति।। | 5-30-18a 5-30-18b |
खरोष्ट्रमहिषाः सिंहा व्याघ्राः सृमरचित्रकाः। ऋक्षाः सालावृका गृध्राः कपयश्च सरीसृपाः।। | 5-30-19a 5-30-19b |
विविधानि च रक्षांसि क्षुधितान्यर्जुनं प्रति। सङ्क्रुद्धान्यभ्यधावन्त विविधानि वयांसि च।। | 5-30-20a 5-30-20b |
ततो दिव्यास्त्रविच्छूरः कुन्तीपुत्रो धनञ्जयः। विसृजन्निषुजालानि सहसा तान्यताडयत्।। | 5-30-21a 5-30-21b |
ते हन्यमानाः शूरेण प्रवरैः सायकैर्दृढैः। विरुवन्तो महारावान्विनेशुः सर्वतो हताः।। | 5-30-22a 5-30-22b |
ततस्तमः प्रादुरभूदर्जुनस्य रथं प्रति। तस्माच्च तमसो वचाः क्रूराः पार्थमभर्त्सयन्।। | 5-30-23a 5-30-23b |
तत्तमो भैरवं घोरं भयकर्तृ महाहवे। उत्तमास्त्रेण महता ज्यौतिषेणार्जुनोऽवधीत्।। | 5-30-24a 5-30-24b |
हते तस्मिञ्जलौघास्तु प्रादुरासन्भयानकाः। अम्भसस्तस्य नाशार्थमादित्यास्त्रमथार्जुनः। प्रायुङ्क्ताम्भस्ततस्तेन प्रायशोऽस्त्रेण शोषितम्।। | 5-30-25a 5-30-25b 5-30-25c |
एवं बहुविधा मायाः सौबलस्य कृताः कृताः। जघानास्त्रबलेनाशु प्रहसन्नर्जुनोऽब्रवीत्।। | 5-30-26a 5-30-26b |
`दुर्द्यूतदेविन्गान्धारे नाक्षान्क्षिपति गाण्डिवम्। ज्वलितान्निशितांस्तीक्ष्णाञ्शरान्क्षिपतिगाण्डिवं'।। | 5-30-27a 5-30-27b |
तदा हतासु मायासु त्रस्तोऽर्जुनशराहतः। अपायाञ्जवनैरश्वैः शकुनिः प्राकृतो यथा।। | 5-30-28a 5-30-28b |
ततोऽर्जुनोऽस्त्रविच्छैघ्र्यं दर्शयन्नात्मनोऽरिषु। अभ्यवर्षच्छरौधेण कौरवाणामनीकिनीम्।। | 5-30-29a 5-30-29b |
सा हन्यमाना पार्थेन तव पुत्रस्य वाहिनी। द्वैधीभूता महाराज गङ्गेवासाद्य पर्वतम्।। | 5-30-30a 5-30-30b |
द्रोणमेवान्वपद्यन्त केचित्तत्र नरर्षभाः। केचिद्दुर्योधनं राजन्नर्द्यमानाः किरीटिना।। | 5-30-31a 5-30-31b |
नापश्याम ततस्त्वेनं सैन्ये वै रजसावृते। गाण्डीवस्य च निर्घोषः श्रुतो दक्षिणतो मया।। | 5-30-32a 5-30-32b |
शङ्खदुन्दुभिनिर्घोषं वादित्राणां च निःस्वनम्। गाण्डीवस्य तु निर्घोषो व्यतिक्रम्यास्पृशद्दिवम्।। | 5-30-33a 5-30-33b |
ततः पुनर्दक्षिणतः सङ्ग्रामश्चित्रयोधिनाम्। सुयुद्धं चार्जुनस्यासीदहं द्रोणमन्वियाम्।। | 5-30-34a 5-30-34b |
यौधिष्ठिराभ्यनीकानि प्रहरन्ति ततस्ततः। नानाविधान्यनीकानि पुत्राणां तव भारत। अर्जुनो व्यधमत्काले दिवीवाभ्राणि मारुतः।। | 5-30-35a 5-30-35b 5-30-35c |
तं वासवमिवायान्तं भूरिवर्षं शरौघिणम्। महेष्वासा नरव्याघ्रा नोग्रं केचिदवारयन्।। | 5-30-36a 5-30-36b |
ते हन्यमानाः पार्थेन त्वदीया व्यथिता भृशम्। स्वानेव बहवो जघ्नुर्विद्रवन्तस्ततस्ततः।। | 5-30-37a 5-30-37b |
तेऽर्जुनेन शरा मुक्ताः कङ्कपत्रास्तनुच्छिदः। शलभा इव सम्पेतुः संवृण्वाना दिशो दश।। | 5-30-38a 5-30-38b |
तुरगं रथिनं नागं पदातिमपि मारिष। विनिर्भिद्य क्षितिं जग्मुर्वल्मीकमिव पन्नगाः।। | 5-30-39a 5-30-39b |
न च द्वितीयं व्यसृजत्कुञ्जराश्वनरेषु सः। पृथगेकशरारुग्णा निपेतुस्ते गतासवः।। | 5-30-40a 5-30-40b |
हतैर्मनुष्यौर्द्विरदैश्च सर्वतः शराभिसृष्टैश्च हयैर्निपातितैः। तदाऽश्वगोमायुबलाभिनादितं विचित्रमायोधशिरो बभूव तत्।। | 5-30-41a 5-30-41b 5-30-41c 5-30-41d |
पिता सुतं त्यजति सुहृद्वरं सुहृत् तथैव पुत्रः पितरं शरातुरः। स्वरक्षणे कृतमतयस्तदा जना सत्यजन्ति वाहानपि पार्थपीडिताः।। | 5-30-42a 5-30-42b 5-30-42c 5-30-42d |
।। इति श्रीमन्महाभारते द्रोणपर्वणि द्रोणाभिषेकपर्वणि |
5-30-10 वर्षशब्दोऽयमृतुवचनः। निदाघर्तुसम्बन्धिनावित्यर्थः। घर्मांशुभिस्तीक्ष्णकिरणैः। लोकं घर्मोम्बुभिर्यथा इति क.ङ.पाठः।। 5-30-17 कम्पनयष्ट्यः। क्षुरा क्षुराकृतिफलकाः। क्षुरप्रास्तूग्रमध्यफलकाः। नालीका नलिकया क्षेप्याः। वत्सदन्ता गोपोतकदन्ताकारफलकाः। अस्थिसन्धयोऽस्थिमयफलकाः।। 5-30-18 विशिखाः फणित्राकारफलकाः।। 5-30-19 सूमरा गवयाः। चित्रको व्याघ्रभेदः। सालावृकाः श्वानः।। 5-30-32 एनमर्जुनम्।। 5-30-41 शराभिसृष्टैर्बाणाभिहतैः। आयोधशिरो रणाङ्गणम्।। 5-30-30 त्रिंशोऽध्यायः।।
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