महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-202

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महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-202
वेदव्यासः
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नारायणास्त्रे विफलीकृते पुनरश्वत्थाम्नाऽऽग्नेयास्त्रप्रयोगः।। 1 ।। तस्यापि पार्थेन व्यर्थीकरणे दूयमानेन द्रौणिना शस्त्रन्यासपूर्वकं रणाङ्कणान्निर्गमनम्।। 2 ।। निर्गच्छता च तेन यदृच्छासमागतं व्यासं प्रति निजास्त्रवैफल्यकारणप्रश्नः।। 3 ।। व्यासेन कृष्णार्जुनयोर्नरनारायणात्मकत्वे कथिते प्रतिनिवृत्तेन द्रौणिना सेनावहारः।। 4 ।।

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सञ्जय उवाच। 5-202-1x
तत्प्रभग्नं बलं दृष्ट्वा कुन्तीपुत्रो धनञ्जयः।
न्यवारयदमेयात्मा द्रोणपुत्रजयेप्सया।।
5-202-1a
5-202-1b
ततस्ते सैनिका राजन्सर्वे तत्रावतस्थिरे।
संस्थाप्यमाना यत्नेन गोविन्देनार्जुनेन च।।
5-202-2a
5-202-2b
एक एव च बीभत्सुः सोमकावयवैः सह।
मात्स्यैरन्यैश्च संधाय कौरवान्सन्न्यवर्तत।।
5-202-3a
5-202-3b
ततो द्रुतमतिक्रम्य सिंहलाङ्गूलकेतनम्।
सव्यसाची महेष्वासमश्वत्थामानमब्रवीत्।।
5-202-4a
5-202-4b
य शक्तिर्यच्च विज्ञानं यद्वीर्यं यच्च पौरुषम्।
धार्तराष्ट्रेषु या प्रीतिर्देषोऽस्मासु च यच्च ते।।
5-202-5a
5-202-5b
यच्च भूयोऽस्ति तेजस्ते तत्सर्वं मयि दर्शय।
स एव द्रोणहन्ता ते दर्पं छेत्स्यति पार्षतः।।
5-202-6a
5-202-6b
कालानलसमप्रख्यं द्विषामन्तकोपमम्।
समासादय पाञ्चाल्यं मां चापि सहकेशवम्।
दर्पं नाशयितास्म्यद्य तवोद्वृत्तस्य संयुगे।।
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धृतराष्ट्र उवाच। 5-202-8x
आचार्यपुत्रो मानार्हो बलवांश्चापि सञ्जय।
प्रीतिर्धनञ्जये चास्य प्रियश्चापि महात्मनः।।
5-202-8a
5-202-8b
न भूतपूर्वं बीभत्सोर्वाक्यं परुषमीदृशम्।।
अथ कस्मात्स कौन्तेयः सखायं रूक्षमुक्तवान्।।
5-202-9a
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सञ्जय उवाच। 5-202-10x
युवराजे हते चैव वृद्वक्षत्रे च पौरवे।
इष्वस्त्रविधिसम्पन्ने मालवे च सुदर्शने।।
5-202-10a
5-202-10b
धृष्टद्युम्ने सात्यकौ च भीमे चापि पारजिते।
युधिष्ठिरस्य तैर्वाक्यैर्मर्मण्यपि च घट्टिते।
5-202-11a
5-202-11b
अन्तर्भेदे च सञ्जाते दुःखं संस्मृत्य च प्रभो।
अभूतपूर्वो बीभत्सोर्दुःखान्मन्युरजायत।।
5-202-12a
5-202-12b
तस्मादनर्हमश्लीलमप्रियं द्रोणिमुक्तवान्।
मान्यमाचार्यतनयं रूक्षं कापुरुषं यथा।।
5-202-13a
5-202-13b
एवमुक्तः श्वसन्क्रोधान्महेष्वासतमो नृप।
पार्थेन परुषं वाक्यं सर्वमर्मभिदा गिरा।।
5-202-14a
5-202-14b
द्रौणिश्चुकोप पार्थाय कृष्णाय च विशेषतः।
स तु यत्तो रथे स्थित्वा वार्युपस्पृश्य वीर्यवान्।।
5-202-15a
5-202-15b
देवैरपि सुदुर्धर्षमस्त्रमाग्नेयमाददे।
दृश्यादृश्यानरिगणानुद्दिश्याचार्यनन्दनः।।
5-202-16a
5-202-16b
सोऽभिमन्त्र्य शरं दीप्तं विधूममिव पावकम्।
सर्वतः क्रोधमाविश्य चिक्षेप परवीरहा।।
5-202-17a
5-202-17b
ततस्तुमुलमाकाशे शरवर्षमजायत।
पावकार्चिपरीतं तत्पार्थमेवाभिपुप्लुवे।।
5-202-18a
5-202-18b
उल्काश्च गगनात्पेतुर्दिशश्च न चकाशिरे।
तमश्च सहसा रौद्रं चमूमवततार ताम्।।
5-202-19a
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रक्षांसि च पिशाचाश्च विनेदुरतिसङ्गताः।
ववुश्चाशिशिरा वाताः सूर्यो नैव तताप च।।
5-202-20a
5-202-20b
वायसाश्चापि चाक्रन्दन्दिक्षु सर्वासु भैरवम्।
रुधिरं चापि वर्षन्तो निनेदुस्तोयदा दिवि।।
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5-202-21b
पक्षिणः पशवो गावो विनेदुश्चापि सुव्रताः।
परमं प्रयतात्मानो न शान्तिमुपलेभिरे।।
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भ्रान्तसर्वमहाभूतमावर्तितदिवाकरम्।
त्रैलोक्यमभिसन्तप्तं ज्वराविष्टमिवाभवत्।।
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5-202-23b
अस्त्रतेजोभिसन्तप्ता नागा भूमिशयास्तथा।
निःश्वसन्तः समुत्पेतुस्तेजो घोरं मुमुक्षवः।।
5-202-24a
5-202-24b
जलजानि च सत्वानि दह्यमानानि भारत।
न शान्तिमुपजग्मुर्हि तप्यमानैर्जलाशयैः।।
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5-202-25b
दिग्भ्यः प्रदिग्भ्यः खाद्भूमेः सर्वतः शरवृष्टयः।
उच्चावचा निपेतुर्वै गरुडानिलरंहसः।।
5-202-26a
5-202-26b
तैः शरैर्द्रोणपुत्रस्य वज्रवेगैः समाहताः।
प्रदग्धा रिपवः पेतुरग्निदग्धा इव द्रुमाः।।
5-202-27a
5-202-27b
दह्यमाना महानागाः पेतुरुर्व्यां समन्ततः।
नदन्तो भैरवान्नादाञ्चलदोपमनिस्वनान्।।
5-202-28a
5-202-28b
अपरे प्रद्रुता नागा भयत्रस्ता विशाम्पते।
त्रेसुर्दिशो यथा पूर्वं वने दावाग्निसंवृताः।।
5-202-29a
5-202-29b
द्रुमाणां शिखराणीव दावदग्धानि मारिष।
अश्वबृन्दान्यदृश्यन्त रथबृन्दानि भारत।
अपतन्त रथौघाश्च तत्रतत्र सहस्रशः।।
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5-202-30c
तत्सैन्यं भयसंविग्नं ददाह युधि भारत।
युगान्ते सर्वभूतानि संवर्तक इवानलः।।
5-202-31a
5-202-31b
दृष्ट्वा तु पाण्डवीं सेनां दह्यमानां महाहवे।
प्रहृष्टास्तावका राजन्सिंहनादान्विनेदिरे।।
5-202-32a
5-202-32b
ततस्तूर्यसहस्राणि नानालिङ्गानि भारत।
तूर्णमाजघ्निरे हृष्टास्तावका जितकाशिनः।।
5-202-33a
5-202-33b
कृत्स्ना ह्यक्षौहिणी राजन्सव्यसाची च पाण्डवः।
तमसा संवृते लोके नादृश्यन्त महाहवे।।
5-202-34a
5-202-34b
नैव नस्तादृशं राजन्दृष्टपूर्वं न च श्रुतम्।
यादृशं द्रोणपुत्रेण सृष्टमस्त्रममर्षिणा।।
5-202-35a
5-202-35b
अर्जुनस्तु महाराज ब्राह्ममस्त्रमुदैरयत्।
सर्वास्त्रप्रतिघातार्थं विहितं पद्मयोनिना।।
5-202-36a
5-202-36b
ततो मुहूर्तादिव तत्तमो व्युपशशाम ह।
प्रववौ चानिलः शीतो दिशश्च विमला बभुः।।
5-202-37a
5-202-37b
तत्राद्भुतमपश्याम कृत्स्नामक्षौहिणीं हताम्।
अनभिज्ञेयरूपां च प्रदग्धामस्त्रतेजसा।।
5-202-38a
5-202-38b
ततो वीरौ महेष्वासौ विमुक्तौ केशवार्जुनौ।
सहितौ प्रत्यदृश्येतां नभसीव तमोनुदौ।
ततो गण्डीवधनन्वा च केशवश्चाक्षतावुभौ।।
5-202-39a
5-202-39b
5-202-39c
सपताकध्वजहयः सानुकर्षवरायुधः।
प्रबभौ सरथो युक्तस्तावकानां भयङ्करः।।
5-202-40a
5-202-40b
ततः किलकिलाशब्दः शङ्खभेरीस्वनैः सह।
पाण्डवानां प्रहृष्टानां क्षणेन समजायत।।
5-202-41a
5-202-41b
हताविति तयोरासीत्सेनयोरुभयोर्मतिः।
तरसाऽभ्यागतौ दृष्ट्वा सहितौ कैशवार्जुनौ।।
5-202-42a
5-202-42b
तावक्षतौ प्रमुदितौ दध्मतुर्वारिजोत्तमौ।
दृष्ट्वा प्रमुदितान्पार्थांस्त्वदीया व्यथिताऽभवन्।।
5-202-43a
5-202-43b
विमुक्तौ च महात्मानौ दृष्ट्वा द्रौणिः सुदुःखितः।
मुहूर्तं चिन्तयामास किन्त्वेतदिति मारिष।।
5-202-44a
5-202-44b
चिन्तयित्वा तु राजेन्द्र ध्यानशोकपरायणः।
निःश्वसन्दीर्घमुष्णं च विमनाश्चाभवत्ततः।।
5-202-45a
5-202-45b
सञ्जय उवाच। 5-202-46x
ततो द्रौणिर्धनुस्त्यक्त्वा रथात्प्रस्कन्द्य वेगितः।
धिग्धिक्सर्वमिदं मिथ्येत्युक्त्वा सम्प्राद्रवद्रणात्।।
5-202-46a
5-202-46b
ततः स्निग्धाम्बुदाभासं वेदावासमकल्मषम्।
वेदव्यासं सरस्वत्यावासं व्यासं ददर्श ह।।
5-202-47a
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तं द्रौणिरग्रतो दृष्ट्वा स्थितं कुरुकुलोद्वहम्।
सन्नकण्ठोऽब्रवीद्वाक्यमभिवाद्य सुदीनवत्।।
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5-202-48b
भोभो माया यदृच्छा वा दैवं वा किमिदं भवेत्।
अस्त्रं त्विदं कथं मिथ्या मम कश्च व्यतिक्रमः।।
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5-202-49b
अधरोत्तरमेतद्वा लोकानां वा पराभवः।
यदिमौ जीवतः कृष्णौ कालो हि दुरतिक्रमः।।
5-202-50a
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नासुरा न च गन्धर्वा न पिशाचा न राक्षसाः।
न सर्पा यक्षपतगा न मनुष्याः कथञ्चन।।
5-202-51a
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उत्सहन्तेऽन्यथा कर्तुमेतदस्त्रं मयेरितम्।
तदिदं केवलं हत्वा शान्तमक्षौहिणीं ज्वलत्।।
5-202-52a
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सर्वघानि मया मुक्तमस्त्रं परमदारुणम्।
केनेमौ मर्त्यधर्माणौ नाधाक्षीत्केशवार्जुनौ।।
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एतत्प्रब्रूहि भगवन्मया पृष्टो यथातथम्।
श्रोतुमिच्छामि तत्त्वेन सर्वमेतन्महामुने।।
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व्यास उवाच। 5-202-55x
महान्तमेवमर्थं मां यं त्वं पृच्छसि विस्मयात्।
तं प्रवक्ष्यामि ते सर्वं समाधाय मनः शृणु।।
5-202-55a
5-202-55b
योऽसौ नारायणो नाम पूर्वेषामपि पूर्वजः।
`आदिदेवो जगन्नाथो लोककर्ता स्वयं प्रभुः।।
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आद्यः सर्वस्य लोकस्य अनादिनिधनोऽच्युतः।
व्याकुर्वते यस्य तत्त्वं श्रुतयो मुनयश्च ह।।
5-202-57a
5-202-57b
अतोऽजय्यः सर्वभूतैर्मनसाऽपि जगत्पतिः।
तस्मादिमं जेतुकाम अज्ञानतमसा वृतः।।
5-202-58a
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मा शुचः पुरुषव्याघ्र विद्वि तद्वदिहार्जुनम्।
तस्य शक्तिरसौ पार्थास्तस्माच्छोकमिमं त्यज।।
5-202-59a
5-202-59b
विश्वेश्वरोऽयं लोकादिः परमात्मा ह्यधोक्षजः।
सहस्रसंहितादंशादेकांशोऽयमजायत।।
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देवानां हितकामार्थं लोकानां चैव सत्तमः'।
अजायत च कार्यार्थं पुत्रो धर्मस्य विश्वकृत्।।
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स तपस्तीव्रमातस्थे शिशिरं गिरिमास्थितः।
ऊर्ध्वबाहुर्महातेजा ज्वलनादित्यसन्निभः।।
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षष्टिं वर्षसहस्राणि तावन्त्येव शतानि च।
अशोषयत्तदाऽऽत्मानं वायुभक्षोऽम्बुजेक्षणः।।
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अथापरं तपस्तप्त्वा द्विस्ततोऽन्यत्पुनर्महत्।
द्यावापृथिव्योर्विवरं तेजसा समपूरयत्।।
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स तेन तपसा तात ब्रह्मभूतो यदाऽभवत्।
ततो विश्वेश्वरं योनिं विश्वस्य जगतः पतिम्।
ददर्श भृशदुर्धर्षं सर्वदेवैरभिष्टुतम्।।
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अणीयांसमणुभ्यश्च बृहद्भ्यश्च बृहत्तमम्।
रुद्रमीशानवृषभं हरं शंभुं कपर्दिनम्।।
5-202-66a
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चेकितानं परां योनिं तिष्ठतो गच्छतश्च ह।
दुर्वारणं सुदुर्धर्षं दुर्निरीक्ष्यं दुरासदम्।
अतिमन्युं महात्मानं सर्वभूतप्रचेतसम्।।
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दिव्यं चापमिषुधी चाददानं
हिरण्यवर्माणमनन्तवीर्यम्।
पिनाकिनं वज्रिणं दीप्तशूलं
परश्वथिं गदिनं चायतासिम्।।
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वचोधिकैः सुष्टुतमिष्टवाग्भिः।। 5-202-69f
जलं दिशं खं क्षितिं चन्द्रसूर्यौ
हुताशवायुप्रतिमं सुरेशम्।
नालं द्रष्टुं यं जना भिन्नवृत्ता
ब्रह्मद्विषघ्नममृतस्य योनिम्।।
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यं पश्यन्ति ब्राह्मणाः साधुवृत्ताः
क्षीणे पापे मनसा वीतशोकाः।
तन्निष्ठात्मा तपसा धर्ममीड्यं
तद्भक्त्या वै विश्वरूपं ददर्श।।
5-202-71a
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5-202-71d
दृष्ट्वा चैनं वाड्मनोबुद्धिदेहैः
संहृष्टात्मा मुमुदे वासुदेवः।।
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अक्षमालापरिक्षिप्तं ज्योतिषां परमं निधिम्।
रुद्रं नारायणो दृष्ट्वा ववन्दे विश्वसम्भवम्।।
5-202-73a
5-202-73b
वरदं पृथुचार्वङ्ग्या पार्वत्या सहितं प्रभुम्।
क्रीडमानं महात्मानं भूतसङ्घगणैर्वृतम्।।
5-202-74a
5-202-74b
अजमीशानमव्यक्तं कारणात्मानमच्युतम्।
अभिवाद्याथ रुद्राय सद्योऽन्धकनिपातिने।
पद्माक्षस्तं विरुपाक्षमभितुष्टाव भक्तिमान्।।
5-202-75a
5-202-75b
5-202-75c
श्रीनारायण उवाच। 5-202-76x
न्नरान्सुपर्णानथ गन्धर्वयक्षान्। 5-202-76d
पृथग्विधान्भूतसङ्घांश्च विश्वां--
स्त्वत्सम्भूतान्विद्म सर्वांस्तथैव।।
5-202-77a
5-202-77b
ऐन्द्रं याम्यं वारुणं वैत्तपाल्यं
पैत्रं त्वाष्ट्रं कर्म सौम्यं च तुभ्यम्।।
5-202-78a
5-202-78b
रूपं ज्योतिः शब्द आकाशवायुः
स्पर्शः स्वाद्यं सलिलं गन्ध उर्वी।
कालो ब्रह्मा ब्रह्म च ब्राह्मणाश्च
त्वत्सम्भूताः स्थास्नु चरिष्णु चेदम्।।
5-202-79a
5-202-79b
5-202-79c
5-202-79d
अद्भ्यः स्तोका यान्ति यथा पृथक्त्वं
ताथिश्चैक्यं संक्षये यान्ति भूयः।
एवं विद्वान्प्रभवं चाप्ययं च
त्वसम्भूतं तव सायुज्यमेति।।
5-202-80a
5-202-80b
5-202-80c
5-202-80d
त्वत्सम्भूतास्ते च तेभ्यः परस्त्वम्।। 5-202-81f
भूतं भव्यं भविता चाप्रधृष्यं
त्वत्सम्भूता भुवनानीह विश्वा।
भक्तं च मां भजमानं भजस्व
प्रीत्या मां वै लोकपितामहेश।।
5-202-82a
5-202-82b
5-202-82c
5-202-82d
नभिष्टुतः प्रविकार्षीश्च मायाम्।। 5-202-83f
व्यास उवाच। 5-202-84x
तस्मै वरानचिन्त्यात्मा देवदेवः पिनाकधृत्।
विष्णवे देवमुख्याय प्रायच्छदृषिसंस्तुतः।।
5-202-84a
5-202-84b
श्रीभगवानुवाच। 5-202-85x
मत्प्रसादान्मनुष्येषु देवगन्धर्वयोनिषु।
अप्रमेयबलात्मा त्वं नारायण भविष्यसि।।
5-202-85a
5-202-85b
न च त्वां प्रसहिष्यन्ति देवासुरमहोरगाः।
न पिशाचा न गन्धर्वा न यक्षा न च राक्षसाः।।
5-202-86a
5-202-86b
न सुपर्णास्तथा नागा न च विश्वे वियोनिजाः।
न कश्चित्त्वां च देवोऽपि समरेषु विजेष्यति।।
5-202-87a
5-202-87b
न शस्त्रेण न वज्रेण नाग्निना न च वारिणा।
न चार्द्रेण न शुष्केण त्रसेन स्थावरेण च।।
5-202-88a
5-202-88b
न हस्तेन न पादेन न काष्ठेन न लोष्टुना।
कश्चित्तव रुजां कर्ता मत्प्रसादात्कथञ्चन।
अपि वै समरं गत्वा भविष्यसि ममाधिकः।।
5-202-89a
5-202-89b
5-202-89c
एवमादीन्वराँल्लब्ध्वा प्रसादादथ शूलिनः।
स एष देवश्चरति मायया मोहयञ्जगत्।।
5-202-90a
5-202-90b
तस्यैव तपसा जातो नरो नाम महामुनिः।
तुल्यमेतेन देवेन तं जानीह्यर्जुनं सदा।।
5-202-91a
5-202-91b
तावेतौ पूर्वदेवानां परमोपचितादृषी।
लोकयात्राविधानार्थं दानवानां वधाय च।
धर्मसंस्थापनार्थाय सञ्जायेते युगेयुगे।।
5-202-92a
5-202-92b
5-202-92c
तथैव कर्मणा कृत्स्नं महतस्तपरसोऽपि च।
तेजो वाग्भिश्च विद्वंस्त्वं जातो रुद्रान्महामते।।
5-202-93a
5-202-93b
स भवान्देववत्प्राज्ञो ज्ञात्वा भवमयं जगत्।
अवाकर्षस्त्वमात्मानं नियमैस्तत्प्रियेप्सया।।
5-202-94a
5-202-94b
शुभ्रमत्र हविः कृत्वा महापुरुषविग्रहम्।
ईजिवांस्त्वं जपैर्होमैरुपहारैश्च मानद।।
5-202-95a
5-202-95b
स तथा पूज्यमानस्ते पूर्वदेवोऽप्यतूतुषत्।
पुष्कलांश्च वरान्प्रादात्तव विद्वन्हृदि स्थितान्।।
5-202-96a
5-202-96b
जन्मकर्मतपोयोगास्तयोस्तव च पुष्कलाः।
ताभ्यां लिङ्गेऽर्चितो देवस्त्वयाऽर्चायां युगेयुगे।
देवदेवस्त्वचिन्त्यात्मा अजेयो विष्णुसम्भवः।।
5-202-97a
5-202-97b
5-202-97c
सर्वरूपं भवं ज्ञात्वा लिङ्गे योऽर्चयति प्रभुम्।
आत्मयोगाश्च तस्मिन्वै शास्त्रयोगाश्च शाश्वताः।।
5-202-98a
5-202-98b
एवं देवा यजन्तो हि सिद्धाश्च परमर्षयः।
प्रार्थयन्ते परं लोके स्थाणुमेव च शाश्वतम्।।
5-202-99a
5-202-99b
[स एष* रुद्रभक्तश्च केशवो रुद्रसम्भवः।]
कृष्ण एव हि यष्टव्यो यज्ञैश्चैव सनातनः।।
5-202-100a
5-202-100b
सर्वभूतभवं ज्ञात्वा लिङ्गमर्चति यः प्रभोः।
तस्मिन्नभ्यधिकां प्रीतिं करोति वृषभध्वजः।।
5-202-101a
5-202-101b
सञ्जय उवाच। 5-202-102x
तस्य तद्वचनं श्रुत्वा द्रोणपुत्रो महारथः।
नमश्चकार रुद्राय बहुमेने च केशवम्।।
5-202-102a
5-202-102b
हष्टरोमा च वश्यात्मा सोऽभिवाद्य महर्षये।
वरूथिनीमभिप्रेक्ष्य ह्यवहारमकारयत्।।
5-202-103a
5-202-103b
ततः प्रत्यवहारोऽभूत्पाण्डवानां विशाम्पते।
कौरवाणां च दीनानां द्रोणे युधि निपातिते।।
5-202-104a
5-202-104b
युद्धं कृत्वा दिनान्पञ्च द्रोणो हत्वा वरूथिनीम्।
ब्रह्मलोकं गतो राजन्ब्राह्मणो वेदपारगः।।
5-202-105a
5-202-105b
।। इति श्रीमन्महाभारते द्रोणपर्वणि नारायणास्त्रमोक्षपर्वणि
पञ्चदशदिवसयुद्धे द्व्यधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 202 ।।

5-202-2 राजन्नैव तत्रावतस्थिरे इति ट. पाठः।। 5-202-3 सोमकावयवैः सोमकानामवयवरूपैर्माण्डलिकैः।। 5-202-7 उद्वृत्तस्य उच्छास्त्रवर्तिनः।। 5-202-10 युवराजे चेदिपतौ।। 5-202-12 अन्तर्भेदे हृदयवैक्लव्ये। दुःखं पुत्रवधादिजम्।। 5-202-13 अश्लीलं जुगुप्सितम्। अप्रियं परुषम्।। 5-202-21 क्रव्यादाश्चापि चाक्रन्दन् इति ट.पाठः।। 5-202-22 प्रयतात्मानो योगिनोऽपि समाधिच्युता बभूवुरित्यर्थः।। 5-202-23 आवर्तितदिवाकरं विश्वं सर्वं भ्रमतीवेत्यमन्यतेत्यर्थः।। 5-202-24 त्रेसुः शब्दं चक्रुः। यथा वने इति सम्बन्धः।। 5-202-29 युगान्ते प्रलये। संवर्तकः संहारकः।। 5-202-31 तमोनुदौ चन्द्रसूर्यौ।। 5-202-39 तयोर्विषये।। 5-202-42 वेदानां व्यासं शाखाप्रशाखाभेदेन विभाजकम्। सरस्वत्या अग्नोपवेदस्मृत्यादिरूपायां आवासम्। व्यासमिति पाठे विस्तारम्। आवासं च सरस्वत्याः स वै व्यास ददर्शह इति क.ग.ट.पाठः।। 5-202-47 कुरवो धृतराष्ट्राद्यास्तेषां कुलोद्वहम्।। 5-202-48 माया नष्टयोरप्यनष्टत्वेन दर्शनम्। यदृच्छा अस्त्रशक्तोरनियमः।। 5-202-49 अधरोत्तरं विपरीतम्।। 5-202-50 शिशिरं गिरिं हिमाचलम्।। 5-202-62 योगी विश्वस्येति क.ख.ग.पाठः। पतिं पालयितारम्।। 5-202-65 ईशानानां ब्रह्मादीनामपि वृषभं श्रेष्ठम्। कपर्दिनं जटाजूटवन्तम्।। 5-202-66 चेकितानं चेतयतम्। तिष्ठतः 5-202-67 स्थावरस्या। गच्छतो जङ्गमस्य। दुर्वारणं दुर्निषेधम्। अतिमन्युं तीव्रकोपं दुष्टेषु।। 5-202-68 परश्वथिं परश्वथवन्तम्।। 5-202-76 भूतकृतः प्रजापतयः।। 5-202-78 एन्द्रं इन्द्रदैवत्यं कर्म तुभ्यं त्वदर्थमेव। सर्वेषां देवानां नाम्ना त्वमेव तर्पणीय इत्यर्थः।। 5-202-79 आकाश इति लुप्तविभक्तिकम्। स्वाद्यं रसः। ब्रह्म वेदाः यज्ञाश्च। स्थास्नु स्थावरम्। चरिष्णु जङ्गमम्।। 5-202-80 अद्भ्याः समुद्रेभ्यः स्तोकाः वर्षबिन्दवः। संक्षये प्लये एकार्णवे।। 5-202-83 अभिष्टुतो यानकार्षीरिह त्वम् इति क.ख.पाठः।। 5-202-84 ऋषिणा नारायणेन संस्तुतः।। 5-202-87 वियोनिजाः सिंहव्याघ्रादयः। नागान विश्वे विश्वयोनयः इति क.ख.पाठः।। 5-202-88 त्रसेन जङ्गमेन।। 5-202-89 गत्वा प्राप्य।। 5-202-92 पूर्वदेवानां ब्रह्मविष्णुरुद्राणां मध्ये एतौ विष्णुरूपिणावृषी नरनारायणौ परमोपचितावत्यन्ततपः सम्पन्नौ।। 5-202-94 देववत् नारायणवत्। अवाकर्षः अवमतं कृशं कृतवानस्यात्मानं शीरम्।। 5-202-95 शुभ्रं दीप्तितम्। शुभभौर्वं नवं कृत्वेति क.ख.ग.पाठः।। 5-202-98 आत्मयोगात्तमीशानं शास्त्रयोगाच्च शाश्वतमिति क.ख.ग.पाठः।। 5-202-103 महर्षये व्यासाय।। 5-202-202 द्व्यधिकद्विशततमोऽध्यायः।।

द्रोणपर्व-201 पुटाग्रे अल्लिखितम्। द्रोणपर्व-203