महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-067
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नारदेन सृञ्जयम्प्रति रन्तिदेवचरित्रकीर्तनम्।। 1 ।।
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नारद उवाच। | 5-67-1x |
साङ्कृतिं रन्तिदेवं च मृतं सृञ्जय शुश्रुम। यस्य द्विशतसाहस्रा आसन्सूदा महात्मनः।। | 5-67-1a 5-67-1b |
गृहानभ्यागतान्विप्रानतिथीन्परिवेषकाः। पक्वंपक्वं दिवारात्रं वरान्नममृतोपमम्।। | 5-67-2a 5-67-2b |
न्यायेनाधिगतं वित्तं ब्राह्मणेभ्यो ह्यमन्यत। वेदानधीत्य धर्मेण यश्चक्रे द्विषतो वशे।। | 5-67-3a 5-67-3b |
उपस्थिताश्च पशवः स्वयं यं शंसितव्रतम्। बहवः स्वर्गमिच्छन्तो विधिवत्सत्रयाजिनम्।। | 5-67-4a 5-67-4b |
नदी महानसाद्यस्य प्रवृतक्ता चर्मराशितः। तस्माच्चर्मण्वती नाम ख्याता पुण्या सरिद्वरा।। | 5-67-5a 5-67-5b |
ब्राह्मणेभ्यो ददन्निष्कान्सौवर्णान्स प्रभावतः। तुभ्यं निष्कं तुभ्यं निष्कमिति ह स्म प्रभाषते।। | 5-67-6a 5-67-6b |
तुभ्यन्तुभ्यमिति प्रादान्निष्कान्निष्कान्सहस्रशः। तत पुनः समाश्वास्य निष्कानेव प्रयच्छति।। | 5-67-7a 5-67-7b |
अल्पं दत्तं मयाऽद्येति निष्ककोटिं सहस्रशः। एकाह्ना ताम्यति ततः क्वाद्य विप्रा इति ब्रुवन्।। | 5-67-8a 5-67-8b |
द्विजपाणिवियोगेन दुःखं मे शाश्वतं महत्। भविष्यति न सन्देह एवं राजाऽददद्वसु।। | 5-67-9a 5-67-9b |
सहस्रशश्च सौवर्णान्वृषभान्गोशतानुगान्। साष्टं शतं सुवर्णानां निष्कमाहुर्धनं तथा।। | 5-67-10a 5-67-10b |
अध्यर्धमासमददद्ब्राह्मणेभ्यः शतं समाः। अग्निहोत्रोपकरणं यज्ञोपकरणं च यत्।। | 5-67-11a 5-67-11b |
ऋषिभ्यः करकान्कुम्भान्स्थालीः पिठरमेव च। शयनासनायानानि प्रासादांश्च गृहाणि च।। | 5-67-12a 5-67-12b |
वृक्षांश्च विविधान्दद्यादन्नानि च धनानि च। सर्वं सौवर्णमेवासीद्रन्तिदेवस्य धीमतः।। | 5-67-13a 5-67-13b |
तत्रास्य गाथा गायन्ति ये पुराणविदो जनाः। रन्तिदेवस्य तां दृष्ट्वा समृद्धिमतिमानुषीम्।। | 5-67-14a 5-67-14b |
नैतादृशं दृष्टपूर्वं कुबेरसदनेष्वपि। धनं च पूर्यमाणं नः किं पुनर्मनुजेष्विति।। | 5-67-15a 5-67-15b |
व्यक्तं वस्वोकसारेयमित्युचुस्तत्र विस्मिताः। साङ्कृते रन्तिदेवस्य यां रात्रिमतिथिर्वसेत्।। | 5-67-16a 5-67-16b |
आलभ्यन्त तदा गावः सहस्राण्येकविंशतिः। तत्र स्म सूदाः क्रोशन्ति सुमृष्टमणिकुण्डलाः।। | 5-67-17a 5-67-17b |
सूपं भूयिष्ठमश्नीध्वं नाद्य मांसं यथा पुरा। रन्तिदेवस्य यत्किञ्चित्सौवर्णमभवत्तदा।। | 5-67-18a 5-67-18b |
तत्सर्वं वितते यज्ञे ब्राह्मणेभ्यो ह्यमन्यत। प्रत्यक्षं तस्य हव्यानि प्रतिगृह्णन्ति देवताः।। | 5-67-19a 5-67-19b |
कव्यानि पितरः काले सर्वकामान्द्विजोत्तमाः। स चेन्ममार सृञ्जय चतुर्भद्रतरस्त्वया।। | 5-67-20a 5-67-20b |
पुत्रात्पुण्डतरस्तुभ्यं मा पुत्रमनुतप्यथाः। अयज्वानमदक्षिण्यमभि श्वैत्येत्युदाहरत्।। | 5-67-21a 5-67-21b |
।। इति श्रीमन्महाभारते द्रोणपर्वणि अभिमन्युवधपर्वणि षोडशराजकीये सप्तषष्टितमोऽध्यायः।। 67 ।। |
5-67-3 न्यायेनाधिगतं वित्तं येनाक्षय्यं इति क.ङ. पाठः।। 5-67-8 एकान्हा दास्यति पुनः कोऽन्यस्तत्सम्प्रदास्यति इति घ.झ.पाठः।। 5-67-10 पारिभाषिकं निष्कमाह सहस्रश इति।। 5-67-11 अध्यर्धमासं पक्षे पक्षे इत्यर्थः। शतं समा इति वाक्यशेषात्।। 5-67-15 धनं च पूर्णमासाद्य इति घ.ङ.पाठः।। 5-67-16 वस्वोकसारा सलोप आर्षः। कनकमयानि ओकांसि सारो यस्याः सा तथा।। 5-67-18 नाद्याश्नीत यथा पुरा इति क. पाठः।। 5-67-67 सप्तषष्टितमोऽध्यायः।।
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