महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-170
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नकुलकृपाभ्यां शकुनिशिखण्डिपराजयः।। 1 ।।
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सञ्चय उवाच। | 5-170-1x |
नकुलं रभसं युद्धे निघ्नन्तं वाहिनीं तव। अभ्ययात्सौबलः क्रुद्धस्तिष्ठतिष्ठेति चाब्रवीत्।। | 5-170-1a 5-170-1b |
कृतवैरौ तु तौ वीरावन्योन्यवधकाङ्क्षिणौ। शरैः पूर्णायतोत्सृष्टैरन्योन्यमभिजघ्नतुः।। | 5-170-2a 5-170-2b |
यथैव नकुलो राजञ्शरवर्षाण्यमुञ्चत। तथैव सौबलश्चापि शिक्षां सन्दर्शयन्युधि।। | 5-170-3a 5-170-3b |
तावुभौ समरे शूरौ शरकण्टकिनौ तदा। व्यराजेतां महाराज श्वाविधौ शललैरिव।। | 5-170-4a 5-170-4b |
रुक्मपुङ्खैरजिह्माग्रैः शरैश्छिन्नतनुच्छदौ। रुधिरौघपरिक्लिन्नौ व्यभ्राजेतां महामृधे।। | 5-170-5a 5-170-5b |
तपनीयनिभौ चित्रो कल्पवृक्षाविव द्रुमौ। किंशुकाविव चोत्फुल्लौ प्रकाशेते रणाजिरे।। | 5-170-6a 5-170-6b |
तावुभौ समरे शूरौ शरकण्टकिनौ तदा। व्यराजेतां महारान्कण्टकैरिव शाल्मली।। | 5-170-7a 5-170-7b |
सुजिह्मं प्रेक्षमाणौ च राजन्विवृतलोचनौ। क्रोधसंरक्तनयनौ निर्दहन्तौ परस्परम्।। | 5-170-8a 5-170-8b |
श्यालस्तु तव सङ्क्रुद्धो माद्रीपुत्रं हसन्निव। कर्णिनैकेन विव्याध हृदये निशितेन ह।। | 5-170-9a 5-170-9b |
नकुलस्तु भृशं विद्वः श्यालेन तव धन्विना। निषसाद रथोपस्थे कश्मलं चाविशन्महत्।। | 5-170-10a 5-170-10b |
अत्यन्तवैरिणां दृप्तं दृष्ट्वा शत्रुं तथाऽऽगतम्। ननाद शकुनी राजंस्तपान्ते जलदो यथा।। | 5-170-11a 5-170-11b |
प्रतिलभ्य ततः संज्ञां नकुलः पाण्डुनन्दनः। अभ्ययात्सौबलं भूयो व्यात्तानन इवान्तकः।। | 5-170-12a 5-170-12b |
सङ्क्रुद्धः शकुनिं षष्ट्या विव्याध भरतर्षभ। पुनश्चैनं शतेनैव नाराचानां स्तनान्तरे।। | 5-170-13a 5-170-13b |
अथास्य सशरं चापं मृष्टिदेशेऽच्छिनत्तदा। ध्वजं च त्वरितं छित्त्वा रथाद्भूमावपातयत्।। | 5-170-14a 5-170-14b |
विशिखेन च तीक्ष्णेन पीतेन निशितेन च। ऊरू निर्भिद्य चैकेन नकुलः पाण्डुनन्दनः। श्येनं सपक्षं व्याधेन पातयामास तं तदा।। | 5-170-15a 5-170-15b 5-170-15c |
सोऽतिविद्धो महाराज रथोपस्थ उपाविशत्। ध्वजयष्टिं परिक्लिश्य कामुकः कामिनीं यथा।। | 5-170-16a 5-170-16b |
तं विसंज्ञं निपतितं दृष्ट्वा श्यालं तवानघ। अपोवाह रथेनाशु सारथिर्ध्वजिनीमुखात्।। | 5-170-17a 5-170-17b |
ततः सञ्चुक्रुशुः पार्था ये च तेषां पदानुगाः।। | 5-170-18a |
निर्जित्य च रणे शत्रुं नकुलः शत्रुतापनः। अब्रवीत्सारथिं क्रुद्धो द्रोणानीकायं मां वह।। | 5-170-19a 5-170-19b |
तस्य तद्वचनं श्रुत्वा माद्रीपुत्रस्य सारथिः। प्रायात्तेन तदा राजन्यत्र द्रोणो व्यवस्थितः।। | 5-170-20a 5-170-20b |
शिखण्डिनं तु समरे द्रोणप्रेप्सुं विशाम्पते। कृपः शारद्वतो यत्तः प्रत्यगच्छत्स वेगितः।। | 5-170-21a 5-170-21b |
गौतमं द्रुतमायान्तं द्रोणानीकमरिन्दमम्। विव्याध नवभिर्भल्लैः शिखण्डी प्रहसन्निव।। | 5-170-22a 5-170-22b |
तमाचार्यो महाराज विद्धा पञ्चभिराशुगैः।। पुनर्विव्याध विंशत्या पुत्राणां प्रियकृत्तव।। | 5-170-23a 5-170-23b |
महद्युद्धं तयोरासीद्धोररूपं भयानकम्।। यथा देवासुरे युद्धे शम्बरामरराजयोः।। | 5-170-24a 5-170-24b |
शरजालावृतं व्योम चक्रतुस्तौ महारथौ। मेघाविव तपापाये वीरौ समरदुर्मदौ। प्रकृत्या घोररूपं तदासीद्धोरतरं पुनः।। | 5-170-25a 5-170-25b 5-170-25c |
रात्रिश्च भरतश्रेष्ठ योधानां युद्धशालिनाम्। कालरात्रिनिभा ह्यासीद्धोररूपा भयानका।। | 5-170-26a 5-170-26b |
शिखण्डी तु महाराज गौतमस्य महद्धनुः। अर्धचन्द्रेण चिच्छेद सज्यं सविशिखं तदा।। | 5-170-27a 5-170-27b |
तस्य क्रुद्धः कृपो राजञ्शक्तिं चिक्षेप दारुणाम्। स्वर्णदण्डामकुण्ठाग्रां कर्मारपरिमार्जिताम्।। | 5-170-28a 5-170-28b |
तामापतन्तीं चिच्छेद शिखण्डी बहुभिः शरैः। सापतन्मेदिनीं कृत्ता भासयन्ती महाप्रभा।। | 5-170-29a 5-170-29b |
अथान्यद्धनुरादाय गौतमो रथिनां वारः। प्राच्छादयच्छितैर्बाणैर्महाराज शिखण्डिनम्।। | 5-170-30a 5-170-30b |
स च्छाद्यमानः समरे गौतमेन यशस्विना। न्यषीदत रथोपस्थे शिखण्डी रथिनां वरः।। | 5-170-31a 5-170-31b |
सीदन्तं चैनमालोक्य कृपः शारद्वतो युधि। आजघ्ने बहुभिर्बाणैर्जिघांसन्निव भारत।। | 5-170-32a 5-170-32b |
विमुखं तु रणे दृष्ट्वा याज्ञसेनिं महारथम्। पाञ्चालाः सोमकाश्चैव परिवव्रुः समन्ततः।। | 5-170-33a 5-170-33b |
तथैव तव पुत्राश्च परिवव्रुर्द्विजोत्तमम्। महत्या सेनया सार्धं ततो युद्धमवर्तत।। | 5-170-34a 5-170-34b |
रथानां च रणे राजन्नन्योन्यमभिधावताम्। बभूव तुमुलः शब्दो मेघानां गर्जतामिव।। | 5-170-35a 5-170-35b |
द्रवतां सादिनां चैव गजानां च विशाम्पते। अन्योन्यमभितो राजन्क्रूरमायोधनं बभौ।। | 5-170-36a 5-170-36b |
पत्तीनां द्रवतां चैव पादशब्देन मेदिनी। अकम्पत महाराज भयत्रस्तेव चाङ्गना।। | 5-170-37a 5-170-37b |
रथिनो रथमारुह्य प्रद्रुता वेगवत्तरम्। अगृह्णन्बहवो राजञ्शलभान्वायसा इव।। | 5-170-38a 5-170-38b |
तथा गजान्प्रभिन्नांश्च सम्प्रभिन्ना महागजाः। तस्मिन्नेव पदे यत्ता निगृह्णन्ति स्म भारत।। | 5-170-39a 5-170-39b |
सादी सादिनमासाद्य पत्तयश्च पदातिनम्। समासाद्य रणेऽन्योन्यं संरब्धा नातिचक्रमुः।। | 5-170-40a 5-170-40b |
धावतां द्रवतां चैव पुनरावर्ततामपि। बभूव तत्र सैन्यानां शब्दः सुविपुलो निशि।। | 5-170-41a 5-170-41b |
दीप्यमानाः प्रदीपाश्च रथवारणवाजिषु। अदृश्यन्त महाराज महोल्का इव खाच्च्युताः।। | 5-170-42a 5-170-42b |
सा निशा भरतश्रेष्ठ प्रदीपैरवभासिता। दिवसप्रतिमा राजन्बभूव रणमूर्धनि।। | 5-170-43a 5-170-43b |
आदित्येन यथा व्याप्तं तमो लोके प्रणश्यति। तथा नष्टं तमो घोरं दीपैर्दीप्तैरितस्ततः।। | 5-170-44a 5-170-44b |
दिवं च पृथिवीं चैव दिशश्च प्रदिशस्तथा। रजसा तमसा व्याप्ता द्योतिताः प्रभया पुनः।। | 5-170-45a 5-170-45b |
अस्त्राणां कवचनानां च मणीनां च महात्मनाम्। अन्तर्दधुः प्रभाः सर्वा दीपैस्तैरवभासिताः।। | 5-170-46a 5-170-46b |
तस्मिन्कोलाहले युद्धे वर्तमाने निशामुखे। न किञ्चिद्विदुरात्मानमयमस्मीति भारत।। | 5-170-47a 5-170-47b |
अवधीत्समरे पुत्रं पिता भरतसत्तम। पुत्रश्च पितरं मोहात्सखायं च सखा तथा। स्वस्रीयं मातुलश्चापि स्वस्रीयश्चापि मातुलम्।। | 5-170-48a 5-170-48b 5-170-48c |
स्वे स्वान्परे परांश्चापि निजघ्नुरितरेतरम्। निर्मर्यादमभूद्युद्धं रात्रौ भीरुभयानकम्।। | 5-170-49a 5-170-49b |
।। इति श्रीमन्महाभारते द्रोणपर्वणि घटोत्कचवधपर्वणि चतुर्दशरात्रियुद्धे सप्तत्यधिकशततमोऽध्यायः।। 170 ।। |
5-169-15 ऊरू इति। मण्डलं चरतः शकुनेर्द्वावूरू एकेनैव बाणेन बिभेद यथा खे श्येनां पक्षाभ्यां सहितं वामदक्षिणगामिनं पातयेदेवमिति लुप्तोपमा। व्याधेन बाणेन। विध्यत्यनेनेति व्याधो बाणः।। 5-170-16 परिक्लिश्य क्लेशेन ध्वजयष्टिं श्रित इति शेषः।। 5-170-38 प्रदुता रथिनो वेगवत्तरं रथमारुह्य तत्पतिमगृह्णन्।। 5-170-170 सप्तत्यधिकशततमोऽध्यायः।।
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