महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-124
← द्रोणपर्व-123 | महाभारतम् सप्तमपर्व महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-124 वेदव्यासः |
द्रोणपर्व-125 → |
सङ्कुलयुद्धवर्णनम्।। 1 ।।
|
धृतराष्ट्र उवाच। | 5-124-1x |
किं तस्यां मम सेनायां नासन्केचिन्महारथाः। ये तथा सात्यकिं यान्तं नैवाघ्नन्नाप्यवारयन्।। | 5-124-1a 5-124-1b |
एको हि समरे कर्म कृतवान्सत्यविक्रमः। शक्रतुल्यबलो युद्धे महेन्द्रो दानवेष्विव।। | 5-124-2a 5-124-2b |
अथवा शून्यमासीत्तद्येन यातः स सात्यकिः। हतभूयिष्ठमथवा येन यातः स सात्यकिः।। | 5-124-3a 5-124-3b |
यत्कृतं वृष्णिवीरेण कर्म शंससि मे रणे। नैतदुत्सहते कर्तुं कर्म शक्रोऽपि सञ्जय।। | 5-124-4a 5-124-4b |
अश्रद्धेयमचिन्त्यं च कर्म तस्य महात्मनः। वृष्ण्यन्धकप्रवीरस्य श्रुत्वा मे व्यथितं मनः।। | 5-124-5a 5-124-5b |
न सन्ति तस्मात्पुत्रा मे यथा सञ्जय भाषसे। एको वै बहुलाः सेनाः प्रामृद्गात्सत्यविक्रमः।। | 5-124-6a 5-124-6b |
कथं च युध्यमानानामपक्रान्ती महात्मनाम्। एको बहूनां शैनेयस्तन्ममाचक्ष्व सञ्जय।। | 5-124-7a 5-124-7b |
सञ्जय उवाच। | 5-124-8x |
राजन्सेनासमुद्योगो रथनागाश्वपत्तिमान्। अतुल्यस्तव सेनायां युगान्तसदृशोऽभवत्।। | 5-124-8a 5-124-8b |
आहूतेषु समूहेषु तव सैन्यस्य मानद। नास्ति लोके समः कश्चित्समूह इति मे मतिः।। | 5-124-9a 5-124-9b |
तत्रव देवास्त्वभाषन्त चारणाश्च समागताः। एतदन्ताः समूहा वै भविष्यन्ति महीतले।। | 5-124-10a 5-124-10b |
न च वै तादृशो व्यूह आसीत्कश्चिद्विशाम्पते। यादृग्जयद्रथवधे द्रोणेन विहितोऽभवत्।। | 5-124-11a 5-124-11b |
`उद्धृता पृथिवी नूनं युद्धहेतोः समागतैः। इति तत्र जनाश्चाहुर्दृष्टा तां जनसंसदम्'।। | 5-124-12a 5-124-12b |
चण्डवातविभिन्नानां समुद्राणामिव स्वनः। रणेऽभवद्बलौघानामन्योन्यमभिधावताम्।। | 5-124-13a 5-124-13b |
पार्थिवानां समेतानां बहून्यासन्नरोत्तम। त्वद्बले प्राण्डवानां च सहस्राणि शतानि च।। | 5-124-14a 5-124-14b |
संरब्धानां प्रवीराणां समरे दृढकर्मणाम्। तत्रासीत्सुमहाशब्दस्तुमुलो रोमहर्षणः।। | 5-124-15a 5-124-15b |
`पाण्डवानां कुरूणां च गर्जतामितरेतरम्। क्ष्वेलाः किलकिलाशब्दास्तत्रासन्वै सहस्रशः।। | 5-124-16a 5-124-16b |
भेरीशब्दाश्च तुमुला बाणशब्दाश्च भारत। अन्योन्यं निघ्नतां चैव नराणां शुश्रुवे स्वनः'।। | 5-124-17a 5-124-17b |
अथाक्रन्दन्भीसमेनो धृष्टद्युम्नश्च मारिष। नकुलः सहदेवश्च धर्मराजश्च पाण्डवः।। | 5-124-18a 5-124-18b |
आगच्छत प्रहरत द्रुतं विपरिधावत। प्रविष्टावरिसेनां हि वीरौ माधवपाण्डवौ।। | 5-124-19a 5-124-19b |
यथा सुखेन गच्छेतां जयद्रथवधं प्रति। तथा प्रकुरुत क्षिप्रमिति सैन्यान्यचोदयन्।। | 5-124-20a 5-124-20b |
तयोरभावे कुरवः कृतार्थाः स्युर्वयं जिताः।। | 5-124-21a |
`यत्र यातौ महात्मानौ तूर्णं परपुरञ्जयौ'। ते यूयं सहिता भूत्वा तूर्णमेव बलार्णवम्। क्षोभयध्वं महावेगाः पवनः सागरं यथा।। | 5-124-22a 5-124-22b 5-124-22c |
भीमसेनेन ते राजन्पाञ्चाल्येन च नोदिताः। आजघ्नुः कौरवान्सङ्ख्ये त्यक्त्वाऽसूनात्मनः प्रियान्।। | 5-124-23a 5-124-23b |
इच्छन्तो निधनं युद्धे शस्त्रैरुत्तमतेजसः। स्वर्गेप्सवो मित्रकार्ये नाभ्यनन्दन्त जीवितम्।। | 5-124-24a 5-124-24b |
तथैव तावका राजन्प्रार्थयन्तो महद्यशः। आर्यां युद्धे मतिं कृत्वा युद्धायैवावतस्थिरे।। | 5-124-25a 5-124-25b |
तस्मिन्सुतुमुले युद्धे वर्तमाने भयावहे। जित्वा सर्वाणि सैन्यानि प्रायात्सात्यकिरर्जुनं ।। | 5-124-26a 5-124-26b |
कवचानां प्रभास्तत्र सूर्यरश्मिविराजिताः। दृष्टीः सङ्ख्ये सैनिकानां प्रतिजघ्नुः समन्ततः। `ध्वजशस्त्रप्रतिहता लोकान्समवदीपयन्।। | 5-124-27a 5-124-27b 5-124-27c |
चण्डवातोद्धतान्मेघान्विकिरन्रश्मिमानिव। तथा तव महत्सैन्यं तद्व्यरोचत तापयन्।। | 5-124-28a 5-124-28b |
सम्प्रहृष्टः स सहसा तव सैन्यार्णवं प्रति। लोलयन्सर्वतो गत्वा समुद्रं मकरो यथा।। | 5-124-29a 5-124-29b |
तत्र राजन्महानासीत्सङ्ग्रामो भीतिवर्धनः। पाण्डवस्य महाबाहो तावकानां च दारुणः।। | 5-124-30a 5-124-30b |
रुद्रस्याक्रीडसङ्काशः संहारः सर्वदेहिनाम्। ततः शब्दो महानासीत्प्रायाद्यत्र धनञ्चयः।। | 5-124-31a 5-124-31b |
तत्र स्म कदनं घोरं वर्तते पाण्डुपूर्वज। अर्जुनस्य महाबाहोस्तावकानां च धन्विनाम्।। | 5-124-32a 5-124-32b |
मध्ये भारतसैन्यस्य माधवस्य महारणे। द्रोणस्यापि परैः सार्धं व्यूहद्वारे सुदारुणम्।। | 5-124-33a 5-124-33b |
एवमेष क्षयो वृत्तः पृथिव्यां पृथिवीपते। क्रुद्धेऽर्जुने तथा द्रोणे सात्वते च महारथे'।। | 5-124-34a 5-124-34b |
तथा प्रयतमानानां पाण्डवानां महात्मनाम्। दुर्योधनो महाराजन्व्यगाहत महद्बलम्।। | 5-124-35a 5-124-35b |
स सन्निपातस्तुमुलस्तेषां तस्य च भारत। अभवत्सर्वभूतानामभावकरणो महान्।। | 5-124-36a 5-124-36b |
धृतराष्ट्र उवाच। | 5-124-37x |
तथा यातेषु सैन्येषु तथा कृच्छ्रगतः स्वयम्। कच्चिद्दुर्योधनः सूत नाकार्षीत्पृष्ठतो रणम्।। | 5-124-37a 5-124-37b |
एकस्य च बहूनां च सन्निपातो महाहवे। विशेषतो नरपतेर्विषमः प्रतिभाति मे।। | 5-124-38a 5-124-38b |
सोऽत्यन्तसुखसंवृद्धो लक्ष्म्या लोकस्य चेश्वरः। एको बहून्समासाद्य कच्चिन्नासीत्पराङ्मुखः।। | 5-124-39a 5-124-39b |
सञ्जय उवाच। | 5-124-40x |
राजन्सङ्ग्राममाश्चर्यं तव पुत्रस्य भारत। एकस्य बहुभिः सार्धं शृणुष्व गदतो मम।। | 5-124-40a 5-124-40b |
दुर्योधनेन समरे पृतना पाण्डवी रणे। नलिनी द्वरिदेनेव समन्तात्प्रतिलोडिता।। | 5-124-41a 5-124-41b |
ततस्तां प्रहतां सेनां दृष्ट्वा पुत्रेण ते नृप। भीमसेनपुरोगास्तं पाञ्चालाः समुपाद्रुवन्।। | 5-124-42a 5-124-42b |
स भीमसेनं दशभिः शरैर्विव्याध पाण्डवम्। त्रिभिस्त्रिभिर्यमौ वीरौ धर्मराजं च सप्तभिः।। | 5-124-43a 5-124-43b |
विराटद्रुपदौ षद्भिः शतेन च शिखण्डिनम्। धृष्टद्युम्नं च विंशत्या द्रौपदेयांस्त्रिभिस्त्रिभिः।। | 5-124-44a 5-124-44b |
शतशश्चापरान्योधान्सद्विपांश्च रथान्रणे। शरैरवचकर्तोग्रैः क्रुद्धोऽन्तक इव प्रजाः।। | 5-124-45a 5-124-45b |
न सन्दधद्विमुञ्चन्वा मण्डलीकृतकार्मुकः। अदृश्यत रिपून्निघ्नञ्छिक्षयाऽस्तबलेन च।। | 5-124-46a 5-124-46b |
तस्य तान्निघ्नतः शत्रून्हेमपृष्ठं महद्धनुः। अजस्रं मण्डलीभूतं ददृशुः समरे जनाः।। | 5-124-47a 5-124-47b |
ततो युधिष्ठिरो राजा भल्लाभ्यामच्छिनद्धनुः। तव पुत्रस्य कौरव्य यतमानस्य संयुगे।। | 5-124-48a 5-124-48b |
विव्याध चैनं दशभिः सम्यगस्तैः शरोत्तमैः। वर्म चाशु समासाद्य ते भित्त्वा क्षितिमाविशन्।। | 5-124-49a 5-124-49b |
ततः प्रमुदिताः पार्थाः परिवव्रुर्युधिष्ठिरम्। यथा वृत्रवधे देवाः पुरा शक्रं महर्षयः।। | 5-124-50a 5-124-50b |
ततोऽन्यद्धनुरादाय तव पुत्रः प्रतापवान्। तिष्ठेतिष्ठेति राजानं ब्रुवन्पाण्डवमभ्ययात्।। | 5-124-51a 5-124-51b |
तमायान्तमभिप्रेक्ष्य तव पुत्रं महामृधे। प्रत्युद्ययुः समुदिताः पाञ्चाला जयगृद्धिनः।। | 5-124-52a 5-124-52b |
तान्द्रोणः प्रतिजग्राह परीप्सन्युधि पाण्डवम्। चण्डवातोद्धुतान्मेघान्गिरिरम्बुमुचो यथा।। | 5-124-53a 5-124-53b |
तत्र राजन्महानासीत्सङ्ग्रामो रोमहर्षणः। पाण्डवानां महाबाहो तावकानां च संयुगे।। | 5-124-54a 5-124-54b |
रुद्रस्याक्रीडसदृशः संहारः सर्वदेहिनाम्।। | 5-124-55a |
ततः शब्दो महानासीद्यातो येन धनञ्जयः। अतीव सर्वशब्देभ्यो रोमहर्षकरः प्रभो।। | 5-124-56a 5-124-56b |
अर्जुनस्य महाबाहो तावकानां च धन्विनाम्। मध्ये भारतसैन्यस्य माधवस्य महारणे। द्रोणस्यापि परैः सार्धं व्यूहद्वारे महारणे।। | 5-124-57a 5-124-57b 5-124-57c |
एवमेष क्षयो वृत्तः पृथिव्यां पृथिवीपते। क्रुद्धेऽर्जुने तथा द्रोणे सात्वते च महारथे।। | 5-124-58a 5-124-58b |
।। इति श्रीमन्महाभारते द्रोणपर्वणि जयद्रथवधपर्वणि चतुर्दशदिवसयुद्धे चतुर्विंशत्यधिकशततमोऽध्यायः।। 124 ।। |
5-124-9 अनीकेषु समूहेषु इति क.ख.पाठः।। 5-124-39 लक्ष्म्येति विशेषणे तृतीया।। 5-124-125 चतुर्विंशत्यधिकशततमोऽध्यायः।।
द्रोणपर्व-123 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | द्रोणपर्व-125 |