महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-114
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धृतराष्ट्रस्य स्वसैन्यपराजयश्रवणेन शोचनम्।। 1 ।। सञ्जयेन तदुपालम्भपूर्वकं कृतवर्मपराक्रमकथनम्।। 2 ।।
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धृतराष्ट्र उवाच। | 5-114-1x |
एवं बहुगुणं सैन्यमेवं प्रविचितं बलम्। व्यूढमेवं यथान्यायमेवं बहु च सञ्जय।। | 5-114-1a 5-114-1b |
नित्यं पूजितमस्माभिरभिकामं च नः सदा। प्रौढमत्यद्भुताकारं पुरस्ताद्दृष्टविक्रमम्।। | 5-114-2a 5-114-2b |
नातिवृद्वमबालं च नाकृशं नातिपीवरम्। लघुवृत्तायतप्रायं सारगात्रमनामयम्।। | 5-114-3a 5-114-3b |
आत्तसन्नाहसञ्छन्नं बहुशस्त्रपरिच्छदम्। शस्त्रग्रहणविद्यासु बह्वीषु परिनिष्ठितम्।। | 5-114-4a 5-114-4b |
आरोहे पर्यवस्कन्दे सरणे सान्तरप्लुते। सम्यक्प्रहरणे याने व्यपयाने च कोविदम्।। | 5-114-5a 5-114-5b |
नागेष्वश्वेषु बहुशो रथेषु च परीक्षितम्। `चर्मनिस्त्रिंशयुद्धे च नियुद्धे च विशारदम्'। परीक्ष्य च यथान्यायं वेतनेनोपपादितम्।। | 5-114-6a 5-114-6b 5-114-6c |
न गोष्ठ्या नोपकारेण न सम्बन्धनिमित्ततः। नानाहूतं नाप्यभृतं मम सैन्यं बभूव ह।। | 5-114-7a 5-114-7b |
कुलीनार्यजनोपेतं तुष्टपुष्टमनुद्धतम्। कृतमानोपचारं च यशस्वि च मनस्वि च।। | 5-114-8a 5-114-8b |
सचिवैश्चापरैर्मुख्यैर्बहुभिः पुण्यकर्मभिः। लोकपालोपमैस्तात पालितं नरसत्तमैः।। | 5-114-9a 5-114-9b |
बहुभिः पार्थिवैर्गुप्तमस्मत्प्रियचिकीर्षुभिः। अस्मानभिसृतैः कामात्सबलैः सपदानुगैः।। | 5-114-10a 5-114-10b |
महोदधिमिवापूर्णमापगाभिः समन्ततः। अपक्षैः पक्षिसङ्काशै रथैरश्वैश्च संवृतम्।। | 5-114-11a 5-114-11b |
प्रभिन्नकरटैश्चैव द्विरदैरावृतं महत्। यदहन्यत मे सैन्यं किमन्यद्भागधेयतः।। | 5-114-12a 5-114-12b |
योधाक्षय्यजलं भीमं वाहनोर्मितरङ्गिणम्। क्षेपण्यसिगदाशक्तिशरप्रासझषाकुलम्।। | 5-114-13a 5-114-13b |
ध्वजभूषणसम्बाधरत्नोपलसुसञ्चितम्। वाहनैरभिधावद्भिर्वायुवेगविकम्पितम्।। | 5-114-14a 5-114-14b |
द्रोणगम्भीरपातालं कृतवर्ममहाहदम्। जलसन्धमहाग्राहं कर्मचन्द्रोदयोद्धतम्।। | 5-114-15a 5-114-15b |
गते सैन्यार्णवं भित्त्वा तरसा पाण्डवर्षभे। सञ्जयैकरथेनैव युयुधाने च मामकम्।। | 5-114-16a 5-114-16b |
तत्र शेषं न पश्यामि प्रविष्टे सव्यसाचिनि। सात्वते च रथोदारे मम सैन्यस्य सञ्जय।। | 5-114-17a 5-114-17b |
तौ तत्र समतिक्रान्तौ दृष्ट्वाऽतीव तरस्विनौ। सिन्धुराजं तु सम्प्रेक्ष्य गाण्डीवस्य च गोचरम्।। | 5-114-18a 5-114-18b |
किं नु वा कुरवः कृत्यं विदधुः कालचोदिताः। दारुणैकायनेऽकाले कथं वा प्रतिपेदिरे।। | 5-114-19a 5-114-19b |
ग्रस्तान्हि कौरवान्मन्ये मृत्युना तात सङ्गतान्। विक्रमोऽपि रणे तेषां न तथा दृश्यते हि वै।। | 5-114-20a 5-114-20b |
अक्षतौ संयुगे तत्र प्रविष्टौ कृष्णपाण्डवौ। न च वारयिता कश्चित्तयोरस्तीह सञ्जय।। | 5-114-21a 5-114-21b |
भृताश्च बहवो योधाः परीक्ष्यैव महारथाः। वेतनेन यथायोगं प्रियवादेन चापरे।। | 5-114-22a 5-114-22b |
असत्कारभृतस्तात मम सैन्ये न विद्यते। कर्मणा ह्यनुरूपेण लभ्यते भक्तवेतनम्।। | 5-114-23a 5-114-23b |
न च योधोऽभवत्कश्चिन्मम सैन्ये तु सञ्जय। अल्पदानभृतस्तात तथा चाभृतको नरः।। | 5-114-24a 5-114-24b |
पूजितो हि यथाशक्त्या दानमानासनैर्मया। तथा पुत्रैश्च मे तात ज्ञातिभिश्च सबान्धवैः।। | 5-114-25a 5-114-25b |
ते च प्राप्यैव सङ्ग्रामे निर्जिताः सव्यसाचिना। शैनेयेन परामृष्टाः किमन्यद्भागधेयतः।। | 5-114-26a 5-114-26b |
रक्ष्यते यश्च सङ्ग्रामे ये च सञ्जय रक्षिणः। एकः साधारणः पन्थार रक्ष्यस्य सह रक्षिभिः।। | 5-114-27a 5-114-27b |
अर्जुनं समरे दृष्ट्वा सैन्धवस्याग्रतः स्थितम्। पुत्रो मम भृशं मूढः किं कार्यं प्रत्यपद्यत।। | 5-114-28a 5-114-28b |
सात्यकिं च रणे दृष्ट्वा प्रविशन्तमभीतवत्। किं नु दुर्योधनः कृत्यं प्राप्तकालममन्यत।। | 5-114-29a 5-114-29b |
सर्वशस्त्रातिगौ सेनां प्रविष्टौ रथिसत्तमौ। दृष्ट्वा कां वै धृतिं युद्धे प्रत्यपद्यन्त मामकाः।। | 5-114-30a 5-114-30b |
दृष्ट्वा कृष्णं तु दाशार्हमर्जुनार्थे व्यवस्थितम्। शिनीनामृषभं चैव मन्ये शोचन्ति पुत्रकाः।। | 5-114-31a 5-114-31b |
दृष्टा सेनां व्यतिक्रान्तां सात्वतेनार्जुनेन च। पलायमानांश्च कुरून्मन्ये शोचन्ति पुत्रकाः।। | 5-114-32a 5-114-32b |
विद्रुतान्रथिनो दृष्ट्वा निरुत्साहान्द्विषज्जये। पलायनकृतोत्साहान्मन्ये शोचन्ति पुत्रकाः।। | 5-114-33a 5-114-33b |
शून्यान्कृतान्रथोपस्थान्सात्वतेनार्जुनेन च। हतांश्च योधान्संदृश्य मन्ये शोचन्ति पुत्रकाः।। | 5-114-34a 5-114-34b |
व्यश्वनागरथान्दृष्ट्वा तत्र वीरान्सहृस्रशः। धावमानान्रणे व्यग्रामन्यन्ये शोचन्ति पुत्रकाः।। | 5-114-35a 5-114-35b |
महानागान्विद्रवतो दृष्ट्वाऽर्जुनशराहतान्। पतितान्पततश्चान्यान्मन्ये शोचन्ति पुत्रकाः।। | 5-114-36a 5-114-36b |
विहीनांश्च कृतानश्वान्विरथांश्च कृतान्नरान्। तत्र सात्यकिपार्थाभ्यां मन्ये शोचन्ति पुत्रकाः।। | 5-114-37a 5-114-37b |
हयौघान्निहतान्दृष्ट्वा द्रवमाणांस्ततस्ततः। रणे माधवपार्थाभ्यां मन्ये शोचन्ति पुत्रकाः।। | 5-114-38a 5-114-38b |
पत्तिसङ्घान्रणे दृष्ट्वा धावमानांश्च सर्वशः। निराशा विजये सर्वे मन्ये शोचन्ति पुत्रकाः।। | 5-114-39a 5-114-39b |
द्रोणस्य समतिक्रान्तावनीकमपराजितौ। क्षणेन दृष्ट्वा तौ वीरौ मन्ये शोचन्ति पुत्रकाः।। | 5-114-40a 5-114-40b |
सम्मूढोऽस्मि भृशं तात श्रुत्वा कृष्णधनञ्जयौ। प्रविष्टौ मामकं सैन्यं सात्वतेन सहाच्युतौ।। | 5-114-41a 5-114-41b |
तस्मिन्प्रविष्टे पृतनां शिनीनां प्रवरे रथे। भोजानीकं व्यतिक्रान्ते किमकुर्वत कौरवाः।। | 5-114-42a 5-114-42b |
तथा द्रोणेन समरे निगृहीतेषु पाण्डुषु। कथं युद्धमभूत्तत्र तन्ममाचक्ष्व सञ्जय।। | 5-114-43a 5-114-43b |
द्रोणो हि बलवान्श्रेष्ठः कृतास्त्रो युद्धदुर्मदः। पाञ्चालास्तं महेष्वासं प्रत्ययुध्यन्कथं रणे।। | 5-114-44a 5-114-44b |
बद्धवैरास्ततो द्रोणे धनञ्जयजयैषिणः। भारद्वाजसुतस्तेषु दृढवैरो महारथः।। | 5-114-45a 5-114-45b |
अर्जुनश्चापि यच्चक्रे सिन्धुराजवधं प्रति। तन्मे सर्वं समाचक्ष्व कुशलो ह्यसि सञ्जय।। | 5-114-46a 5-114-46b |
सञ्जय उवाच। | 5-114-47x |
आत्मापराधात्सम्भूतं व्यसनं भरतर्षभ। प्राप्य प्राकृतवद्वीर न त्वं शोचितुमर्हसि।। | 5-114-47a 5-114-47b |
पुरा यदुच्यसे प्राज्ञैः सुहृद्भिर्विदुरादिभिः। मा हार्षीः पाण्डवान्राजन्निति तन्न त्वया श्रुतम्।। | 5-114-48a 5-114-48b |
सुहृदां हितकामानां वाक्यं यो न शृणोति ह। स महद्व्यसनं प्राप्य शोचते वै यथा भवान्।। | 5-114-49a 5-114-49b |
याचितोऽसि पुरा राजन्दाशार्हेण शमं प्रति। न च तं लब्धवान्कामं त्वत्तः कृष्णो महायशाः।। | 5-114-50a 5-114-50b |
तव निर्गुणतां ज्ञात्वा पक्षपातं सुतेषु च। द्वैधीभावं तथा धर्मे पाण्डवेषु च मत्सरम्।। तव जिह्ममभिप्रायं विदित्वा पाण्डवान्प्रति। आर्तप्रलापांश्च बहून्मनुजाधिप सत्तम।। | 5-114-51a 5-114-51b 5-114-52 5-114-52b |
सर्वलोकस्य तत्त्वज्ञः सर्वलोकेश्वरः प्रभुः। वासुदेवस्ततो युद्धं कुरूणामकरोन्महत्।। | 5-114-53a 5-114-53b |
आत्मापराधात्सुमहान्प्राप्तस्ते विपुलः क्षयः। नैनं दुर्योधने दोषं कर्तुमर्हसि मानद।। | 5-114-54a 5-114-54b |
न हि तै सुकृतं किञ्चिदादौ मध्ये च भारत। दृश्यते पृष्ठतश्चैव त्वन्मूलो हि पराजयः।। | 5-114-55a 5-114-55b |
तस्मादद्य स्थिरो भूत्वा ज्ञात्वा लोकस्य निर्णयम्। शृणु युद्धं यथावृत्तं घोरं देवासुरोपमम्।। | 5-114-56a 5-114-56b |
प्रविष्टे तव सैन्यं तु शैनेये सत्यविक्रमे। भीमसेनमुखाः पार्थाः प्रतीयुर्वाहिनीं तव।। | 5-114-57a 5-114-57b |
आगच्छतस्तान्सहसा क्रुद्धरूपान्सहानुगान्। दधारैको रणे पाण्डून्कृतवर्मा महारथः।। | 5-114-58a 5-114-58b |
यथोद्वृत्तं वारयते वेला वै सलिलार्णवम्। पाण्डुसैन्यं तथा सङ्ख्ये हार्दिक्यः समवारयत्।। | 5-114-59a 5-114-59b |
तत्राद्भुतमपश्याम हार्दिक्यस्य पराक्रमम्। यदेनं सहिताः पार्था नातिचक्रमुराहवे।। | 5-114-60a 5-114-60b |
ततो भीमस्त्रिभिर्विद्ध्वा कृतवर्माणमाशुगैः। शङ्खं दध्मौ महाबाहुर्हर्षुयन्सर्वपाण्डवान्।। | 5-114-61a 5-114-61b |
सहदेवस्तु विंशत्या धर्मराजश्च पञ्चभिः। शतेन नकुलश्चापि हार्दिक्यं समविध्यत।। | 5-114-62a 5-114-62b |
द्रौपदेयास्त्रिसप्तत्या सप्तभिश्च घटोत्कचः। धृष्टद्युम्नस्त्रिभिश्चापि कृतवर्माणमार्दयत्।। | 5-114-63a 5-114-63b |
विराटो द्रुपदश्चैव याज्ञसेनिश्च पञ्चभिः। शिखण्डी चैव हार्दिक्यं विद्ध्वा पञ्चभिराशुगैः।। | 5-114-64a 5-114-64b |
पुनर्विव्याध विंशत्या सायकानां हसन्निव। कृतवर्मा ततो राजन्सर्वतस्तान्महारथान्।। | 5-114-65a 5-114-65b |
एकैकं पञ्चभिर्विद्ध्वा भीमं विव्याध सप्तभिः। धनुर्ध्वजं चास्य तदा रथाद्भूमावपातयत्।। | 5-114-66a 5-114-66b |
अथैनं छिन्नधन्वानं त्वरमाणो महारथः। आजघानोरसि क्रुद्धः सप्तत्या निशितैः शरैः।। | 5-114-67a 5-114-67b |
स गाढविद्धो बलवान्हार्दिक्यस्य शरोत्तमैः। चचाल रथमध्यस्थः क्षितिकम्पे यथाऽचलः।। | 5-114-68a 5-114-68b |
भीमसेनं तथा दृष्ट्वा धर्मराजपुरोगमाः। विसृजन्तः शरान्राजन्कृतवर्माणमार्दयन्।। | 5-114-69a 5-114-69b |
तं तथा कोष्ठकीकृत्य रथवंशेन मारिष। विव्यधुः सायकैर्हृष्टा रक्षार्थं मारुतेर्मृधे।। | 5-114-70a 5-114-70b |
प्रतिलभ्य ततः संज्ञां भीमसेनो महाबलः। शक्तिं जग्राह समरे हेमदण्डामयस्मायीम्।। | 5-114-71a 5-114-71b |
चिक्षेप च रथात्तूर्णं कृतवर्मरथं प्रति। सा भीमभुजनिर्मुक्ता निर्मुक्तोरगसन्निभा।। | 5-114-72a 5-114-72b |
कृतवर्माणमभितः प्रजज्वाल सुदारुणा। तामापतन्तीं सहसा युगान्ताग्निसमप्रभाम्।। | 5-114-73a 5-114-73b |
द्वाभ्यां शराभ्यां हार्दिक्यो निजघान द्विधा तदा। सा छिन्ना पतिता भूमौ शक्तिः कनकभूषणा।। | 5-114-74a 5-114-74b |
द्योतयन्ती दिशो राजन्महोल्केव नभश्च्युता। शक्तिं विनिहतां दृष्ट्वा भीमश्चुक्रोध वै भृशम्।। | 5-114-75a 5-114-75b |
ततोऽन्यद्धनुरादाय वेगवत्सुमहास्वनम्। भीमसेनो रणे क्रुद्धो हार्दिक्यं समवारयत्।। | 5-114-76a 5-114-76b |
अथैनं पञ्चभिर्बाणैराजघान स्तनान्तरे। भीमो भीमबलो राजंस्तव दुर्मन्त्रितेन च।। | 5-114-77a 5-114-77b |
भोजस्तु क्षतसर्वाङ्गो भीमसेनेन मारिष। रक्ताशोक इवोत्फुल्लो व्यभ्राजत रणाजिरे।। | 5-114-78a 5-114-78b |
ततः क्रुद्धस्त्रिभिर्बाणैर्भीमसेनं हसन्निव। अभिहत्य दृढं युद्धे तान्सर्वान्प्रत्यविध्यत।। | 5-114-79a 5-114-79b |
त्रिभिस्त्रिभिर्महेष्वासो यतमानान्महारथान्। तेऽपि तं प्रत्यविध्यन्त सप्तभिः सप्तभिः शरैः।। | 5-114-80a 5-114-80b |
शिखण्डिनस्ततः क्रुद्धः क्षुरप्रेण महारथः। धनुश्चिच्छेद सामरे प्रहसन्निव सात्वतः।। | 5-114-81a 5-114-81b |
शिखण्डी तु ततः क्रुद्धश्छिन्ने धनुषि सत्वरः। असिं जग्राह समरे शतचन्द्रं च भास्वरम्।। | 5-114-82a 5-114-82b |
भ्रामयित्वा महच्चर्म चामीकरविभूषितम्। तमसिं प्रेषयामात कृतवर्मरथं प्रति।। | 5-114-83a 5-114-83b |
स तस्य सशरं चापं छित्त्वा राजन्महानसिः। अभ्यगाद्धरणीं राजंश्च्युतं ज्योतिरिवाम्बरात्।। | 5-114-84a 5-114-84b |
एतस्मिन्नेव काले तु त्वरमाणं महारथाः। विव्यधुः सायकैर्गाढं कृतवर्माणमाहवे।। | 5-114-85a 5-114-85b |
अथान्यद्धनुरादाय त्यक्त्वा तच्च महद्धनुः। विशीर्णं भरतश्रेष्ठ हार्दिक्यः परवीरहा।। | 5-114-86a 5-114-86b |
विव्याध पाण्डवान्युद्धे त्रिभिस्त्रिभिरजिह्मगैः। शिखण्डिनं च विव्याध त्रिभिः पञ्चभिरेव च।। | 5-114-87a 5-114-87b |
धनुरन्यत्समादाय शिखण्डी तु महायशाः। अवारयत्कूर्मनखैराशुगैर्हृदिकात्मजम्।। | 5-114-88a 5-114-88b |
ततः क्रुद्धो रणे राजन्हृदिकस्यात्मसम्भवः। अभिदुद्राव वेगेन याज्ञसेनिं महारथम्।। | 5-114-89a 5-114-89b |
भीष्मस्य समरे राजन्मृत्योर्हेतुं महात्मनः। विदर्शयन्बलं शूरः शार्दूल इव कुञ्जरम्।। | 5-114-90a 5-114-90b |
तौ दिशागजसङ्काशौ ज्वलिताविव पावकौ। समापेततुरन्योन्यं शरसङ्घैररिन्दमौ।। | 5-114-91a 5-114-91b |
विधुन्वानौ धनुःश्रेष्ठे सन्दधानौ च सायकान्। विसृजन्तौ च शतशो गभस्तीनिव भास्करौ।। | 5-114-92a 5-114-92b |
तापयन्तौ शरैस्तीक्ष्णैरन्योन्यं तौ महारथौ। युगान्तप्रतिमौ वीरौ रेजतुर्भास्कराविव।। | 5-114-93a 5-114-93b |
कृतवर्मा च समरे याज्ञसेनिं महारथम्। विद्ध्वेषुभिस्त्रिसप्तत्या पुनर्विव्याध सप्तभिः।। | 5-114-94a 5-114-94b |
स गाढविद्धो व्यथितो रथोपस्थ उपाविशत्। विसृज्य सशरं चापं मूर्च्छयाऽभिपरिप्लुतः।। | 5-114-95a 5-114-95b |
तं विषण्णं रणे दृष्ट्वा तावकाः पुरुषर्षभ। हार्दिक्यं पूजयामासुर्वासांस्यादुधुवुश्च ह।। | 5-114-96a 5-114-96b |
शिखण्डिनं तथा ज्ञात्वा हार्दिक्यशरपीडितम्। अपोवाह रणाद्यन्ता त्वरमाणो महारथम्।। | 5-114-97a 5-114-97b |
सादितं तु रथोपस्थे दृष्ट्वा पार्थाः शिखण्डिनम्। परिवव्रू रथैस्तूर्णं कृतवर्माणमाहवे।। | 5-114-98a 5-114-98b |
तत्राद्भुतं परं चक्रे कृतवर्मा महारथः। यदेकः समरे पार्थान्वारयामास सानुगान्।। | 5-114-99a 5-114-99b |
पार्थाञ्जित्वाऽजयच्चेदीन्पाञ्चालान्सृञ्जयानपि। केकयांश्च महावीर्यान्कृतवर्मा महारथः।। | 5-114-100a 5-114-100b |
ते वध्यमानाः समरे हार्दिक्येन स्म पाण्डवाः। इतश्चेतश्च धावन्तो नैव चक्रुर्धृतिं रणे।। | 5-114-101a 5-114-101b |
जित्वा पाण्डुसुतान्युद्धे भीमसेनपुरोगमान्। हार्दिक्यः समरेऽतिष्ठद्विधूम इव पावकः।। | 5-114-102a 5-114-102b |
ते द्राव्यमाणाः समरे हार्दिक्येन महारथाः। विमुखाः समपद्यन्त शरवृष्टिभिरार्दिताः।। | 5-114-103a 5-114-103b |
।। इति श्रीमन्महाभारते द्रोणपर्वणि जयद्रथवधपर्वणि चतुर्दशदिवसयुद्धे चतुर्दशाधिकशततमोऽध्यायः।। 114 ।। |
5-114-1 बहुगुणं बहवो गुणाः शौर्यादयः संध्यादयो वा यस्मिन्। बलं प्रबलम्।। 5-114-2 नः अभिकाममनुरक्तम्।। 5-114-3 लघुनो मनोज्ञस्य वृत्तस्यायतनमायासः प्रायः प्रचुरं यत्र। सारगात्रं निबिडावयवम्।। 5-114-5 पर्यवस्कन्दे अवरोहणे। सरणे प्रसरणे। सान्तरप्लुते प्लुवनान्तरीतायां गतौ। व्यपयानेऽपसरणे।। 5-114-6 वेतनेन दिनमासवर्षदेयेन धनेन।। 5-114-7 गोष्ठ्या संलापमात्रेण।। 5-114-13 वाहनान्येवोर्मितरङ्गपरम्परा विद्यते यत्र। क्षेपण्यो यन्त्राणि।। 5-114-14 रत्नैरुपलैश्च सुसञ्चितं सुष्ठुसञ्छादितम्। वाहनाभिधावनान्येव वायुवेगतया रूपितानि।। 5-114-17 मम सैन्यस्य सेषमित्यन्वयः।। 5-114-19 दारुणैकायने अतिभीषणेऽनन्यगतिके। अकाले अतीते समये।। 5-114-23 लभ्यते सैन्येनार्थात्।। 5-114-30 धृतिं धारणाम्।। 5-114-35 व्यग्राननेकाग्रान्। अव्यग्रान् पलायनैकमनस इति वा।। 5-114-51 निर्गुणतां गुणवैषम्यम्। द्वैधीभावमनिश्चयम्।। 5-114-54 सुमहान् विपुल इति पर्यायाभ्यां महत्त्वोद्रेकः।। 5-114-56 निर्णयं नियतस्वभावम्।। 5-114-65 सर्वतः सर्वान्।। 5-114-74 द्विधा स्थानद्वये।। 5-114-88 कूर्मनखैः कूर्मनखाकृतिफलकैः।। 5-114-114 चतुर्दशाधिकशततमोऽध्यायः।।
द्रोणपर्व-113 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | द्रोणपर्व-115 |