महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-127
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कतिचन धार्तराष्ट्रान्निहत्य निर्गच्छता भीमेन स्वपथं निरुन्धानस्य द्रोणस्य रथभञ्जनम्।। 1 ।।
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भीमसेन उवाच। | 5-127-1x |
ब्रह्मेशानेन्द्रवरुणानवहद्यः पुरा रथः। तमास्थाय गतौ कृष्णौ न तयोर्विद्यते भयम्।। | 5-127-1a 5-127-1b |
तवाज्ञां शिरसा बिभ्रदेष गच्छामि मा शुचः। समेत्य तान्नरव्याघ्रास्तव दास्यामि संविदम्।। | 5-127-2a 5-127-2b |
सञ्जय उवाच। | 5-127-3x |
एतावदुक्त्वा प्रययौ परिदाय युधिष्ठिरम्। धृष्टद्युम्नाय बलवान्सुहृद्भ्यश्च पुनःपुनः। धृष्टद्युम्नं चेदमाह भीमसेनो महाबलः।। | 5-127-3a 5-127-3b 5-127-3c |
विदितं ते महाबाहो यथा द्रोणो महारथः। ग्रहणे धर्मराजस्य सर्वोपायेन वर्तते।। | 5-127-4a 5-127-4b |
न च मे गमने कृत्यं तादृक्पार्षत विद्यते। यादृशं रक्षणे राज्ञः कार्यमात्ययिकं हि नः।। | 5-127-5a 5-127-5b |
एवमुक्तोऽस्मि पार्थेन प्रतिवक्तुं न चोत्सहे। प्रयास्ये तत्र यत्रासौ मुमूर्षुः सैन्धवः स्थितः।। | 5-127-6a 5-127-6b |
धर्मराजस्य वचने स्थातव्यमविशङ्कया। यास्यामि पदवीं भ्रातुः सात्वतस्य च धीमतः।। | 5-127-7a 5-127-7b |
सोऽद्य यत्तो रणे रार्थं परिरक्ष युधिष्ठिरम्। एतद्धि सर्वकार्याणां परमं कृत्समाहवे।। | 5-127-8a 5-127-8b |
तमब्रवीन्महाराज धृष्टद्युम्नो वृकोदरम्। ईप्सितं ते करिष्यामि गच्छ पार्थाविचारयन्।। | 5-127-9a 5-127-9b |
नाहत्वा समरे द्रोणो धृष्टद्युम्नं कथञ्चन। निग्रहं धर्मराजस्य प्रकरिष्यति संयुगे।। | 5-127-10a 5-127-10b |
सञ्जय उवाच। | 5-127-11x |
ततो निक्षिप्य राजानं धृष्टद्युम्ने च पाण्डवम्। अभिवाद्य गुरुं ज्येष्ठं प्रययौ येन फल्गुनः।। | 5-127-11a 5-127-11b |
परिष्वक्तश्च कौन्तेयो धर्मराजेन मारुतिः। आघ्रातश्च तथा मूर्ध्नि श्रावितश्चाशिषः शुभाः।। | 5-127-12a 5-127-12b |
[कृत्वा प्रदक्षिणान्विप्रानर्चितांस्तुष्टमानसान्। आलभ्य मङ्गलान्यष्टौ पीत्वा कैरातकं मधु।। | 5-127-13a 5-127-13b |
द्विगुणद्रविणो वीरो मदरक्तान्तलोचनः। विप्रैः कृतस्वस्त्ययनो विजयोत्पादसूचितः।। | 5-127-14a 5-127-14b |
पश्यन्नेवात्मनो बुद्धिं विजयानन्दकारिणीम्। अनुलोमानिलैश्चाशु प्रदर्शितजयोदयः।। | 5-127-15a 5-127-15b |
भीमसेनो महाबाहुः कवची शुभकुण्डली। सगदः सतलत्राणः सशरी रथिनां वरः। रथमारुह्य निर्युक्तं सर्वोपकरणान्वितम्'।। | 5-127-16a 5-127-16b 5-127-16c |
तस्य कार्ष्णायसं वर्म हेमचित्रं महर्द्धिमत्। विबभौ सर्वतः श्लिष्टं सविद्युदिव तोयदः।। | 5-127-17a 5-127-17b |
पीतरक्तासितसितैर्वासौभिश्च सुवेष्टितः। कण्ठसूत्रेण विबभौ सेन्द्रायुध इवाम्बुदः।। | 5-127-18a 5-127-18b |
प्रयाते भीमसेने तु तव सैन्यं युयुत्सया। पाञ्चजन्यरवो घोरः पुनरासीद्विशाम्पते।। | 5-127-19a 5-127-19b |
तं श्रुत्वा निनदं घोरं त्रैलोक्यत्रासनं महत्। पुनर्भीमं महाबाहुं धर्मपुत्रोऽभ्यभाषत।। | 5-127-20a 5-127-20b |
एष वृष्णिप्रवीरेण ध्मातः सलिलजो भृशम्। पृथिवीं चान्तरिक्षं च विनादयति शङ्खराट्।। | 5-127-21a 5-127-21b |
नूनं व्यसनमापन्ने सुमहत्सव्यसाचिनि। कुरुभिर्युध्यते सार्धं सर्वैश्चक्रगदाधरः।। | 5-127-22a 5-127-22b |
नूनमार्या महत्कुन्ती पापं व्यसनमीदृशम्। द्रौपदी च सुभद्रा च पश्यन्ति सह बन्धुभिः। तद्भीम त्वरया युक्तो याहि यत्र धनञ्जयः।। | 5-127-23a 5-127-23b 5-127-23c |
मुह्यतीव हि मे चित्तं धनञ्जयदिदृक्षया। दिशश्च प्रदिशः पार्थ सात्वतस्य च कारणात्।। | 5-127-24a 5-127-24b |
गच्छगच्छेति गुरुणा सोऽनुज्ञातो वृकोदरः। ततः पाण्डुसुतो राजन्भीमसेनः प्रतापवान्।। | 5-127-25a 5-127-25b |
बद्धगोधाङ्गुलित्राणः प्रगृहीतशरासनः। ज्येष्ठेन प्रहितो भ्रात्रा भ्राता भ्रातुः प्रियङ्करः।। | 5-127-26a 5-127-26b |
आहत्य दुन्दुभिं भीमः शङ्खं प्रध्माप्य चासकृत्। विनद्य सिंहनादेन ज्यां विकर्षन्पुनःपुनः।। | 5-127-27a 5-127-27b |
तेन शब्देन वीराणां पातयित्वा मनांस्युत। दर्शयन्घोरमात्मानममित्रान्सहसाऽभ्ययात्।। | 5-127-28a 5-127-28b |
तमूहुर्जवना दान्ता विरुवन्तो हयोत्तमाः। विशोकेन सुसंयत्ता मनोमारुतरंहसः।। | 5-127-29a 5-127-29b |
आरुजन्विरुजन्पार्थो ज्यां विकर्षंश्च पाणिना। सम्प्रकर्षन्विकर्षंश्च सेनाग्रं समलोडयत्।। | 5-127-30a 5-127-30b |
तं प्रयान्तं महाबाहुं पाञ्चालाः सहसोमकाः। पृष्ठतोऽनुययुः शूरा मघवन्तमिवामराः।। | 5-127-31a 5-127-31b |
तं समेत्य महाराज तावकाः पर्यवारयन्। दुःशासनश्चित्रसेनः कुण्डभेदी विविंशतिः।। | 5-127-32a 5-127-32b |
दुर्मुखो दुःसहश्चैव विकर्णश्च शलस्तथा। विन्दानुविन्दौ सुमुखो दीर्घबाहुः सुदर्शनः।। | 5-127-33a 5-127-33b |
वृन्दारकः सुहस्तश्च सुषेणो दीर्घलोचनः। अभयो रौद्रकर्णा च सुवर्मा दुर्विमोचनः।। | 5-127-34a 5-127-34b |
शोभन्तो रथिनां श्रेष्ठाः सहसैन्यपदानुगाः। संयत्ताः समरे वीरा भीमसेनमुपाद्रवन्।। | 5-127-35a 5-127-35b |
तैः समन्ताद्वृतः शूरैः समरेषु महारथः। तान्समीक्ष्य तु कौन्तेयो भीमसेनः पराक्रमी। अभ्यवर्तत वेगेन सिंहः क्षुद्रमृगानिव।। | 5-127-36a 5-127-36b 5-127-36c |
ते महास्त्राणि दिव्यानि तत्र वीरा अदर्शयन्। छादयन्तः शरैर्भीमं मेघाः सूर्यमिवोदितम्।। | 5-127-37a 5-127-37b |
ततः क्रुद्धो महाराज भीमसेनः पराक्रमी। अग्रतः स्यन्दनानीकं शरवर्षैरवाकिरत्।। | 5-127-38a 5-127-38b |
ते वध्यमानाः समरे तव पुत्रा महारथाः। भीमं भीमबला युद्धे योधयन्ति जयैषिणः।। | 5-127-39a 5-127-39b |
ततो दुःशासनः क्रुद्धो रथशक्तिं समाक्षिपत्। सर्वपारसवीं तीक्ष्णां जिघांसुः पाण्डुनन्दनम्।। | 5-127-40a 5-127-40b |
आपतन्तीं महाशक्तिं तव पुत्रप्रणोदिताम्। द्विधा चिच्छेद तां भीमस्तदद्भुतमिवाभवत्।। | 5-127-41a 5-127-41b |
अथान्यैर्विशिखैस्तीक्ष्णैः सङ्क्रुद्धः कुण्डभेदिनम्। सुषेणं दीर्घनेत्रं च त्रिभिस्त्रीनवधीद्बली।। | 5-127-42a 5-127-42b |
ततो वृन्दारकं वीरं कुरूणां कीर्तिवर्धनम्। पुत्राणां तव वीराणां युध्यतामवधीत्पुनः।। | 5-127-43a 5-127-43b |
अभयं रौद्रकर्माणं दुर्विमोचनमेव च। त्रिभिस्त्रीनवधीद्भीमः पुनरेव सुतांस्तव।। | 5-127-44a 5-127-44b |
वध्यमाना महाराज पुत्रास्तव बलीयसा। भीमं प्रहरतां श्रेष्ठं समन्तात्पर्यवारयन्।। | 5-127-45a 5-127-45b |
ते शरैर्भीमकर्माणं ववर्षुः पाण्डवं युधि। मेघा इवातपापाये धाराभिर्धरणीधरम्।। | 5-127-46a 5-127-46b |
स तद्बाणमयं वर्षमश्मवर्षमिवाचलः। प्रतीच्छन्पाण्डुदायादो न प्राव्यथत शत्रुहा।। | 5-127-47a 5-127-47b |
विन्दानुविन्दौ सहितौ सुवर्माणं च ते सुतम्। प्रहसन्नेव कौन्तेयः शरैर्निन्यं यमक्षयम्।। | 5-127-48a 5-127-48b |
ततः सुदर्शनं वीरं पुत्रं ते भरतर्षभ। विव्याध समरे तूर्णं स पपात ममार च।। | 5-127-49a 5-127-49b |
सोऽचिरेणैव कालेन तद्रथानीकमाशुगैः। दिशः सर्वाः समालोक्य व्यधमत्पाण्डुनन्दनः।। | 5-127-50a 5-127-50b |
ततो वै रथघोषेण गर्जितेन मृगा इव। भज्यमानाश्च समरे तव पुत्रा विशाम्पते। प्राद्रवन्सहसा सर्वे भीमसेनभयर्दिताः।। | 5-127-51a 5-127-51b 5-127-51c |
अनुयायाच्च कौन्तेयः पुत्राणां ते महद्बलम्। विव्याध समरे राजन्कौरवेयान्समन्ततः।। | 5-127-52a 5-127-52b |
वध्यमाना महाराज भीमसेनेन तावकाः। त्यक्त्वा भीमं रणाज्जग्मुश्चोदयन्तो हयोत्तमान्। | 5-127-53a 5-127-53b |
तांस्तु निर्जित्य समरे भीमसेनो महाबलः। सिंहनादरवं चक्रे बाहुशब्दं च पाण्डवः।। | 5-127-54a 5-127-54b |
*महान्तं तलशब्दं च कृत्वा द्रोणान्तिकं ययौ। तमावारयदाचार्यो वेलेवोद्वृत्तमर्णवम्।। | 5-127-55a 5-127-55b |
तस्य द्रोणो रथं राजञ्छादयामास संयुगे। साश्वसूतध्वजं तूर्णं तदद्भुतमिवाभवत्।। | 5-127-56a 5-127-56b |
ललाटेऽताडयच्चैनं नाराचेन स्मयन्निव। ऊर्ध्वरश्मिरिवादित्यो विबभौ तत्र पाण्डवः।। | 5-127-57a 5-127-57b |
स मन्यमानस्त्वाचार्यो ममायं फल्गुनो यथा। भीमः करिष्यते पूजामित्युवाच वृकोदरम्।। | 5-127-58a 5-127-58b |
भीमसेन न ते शक्यं प्रवेष्टुमरिवाहिनीम्। मामनिर्जित्य समरे शत्रुमद्य महाबल।। | 5-127-59a 5-127-59b |
यदि ते सानुजः कृष्णः प्रविष्टोऽनुमते मम। अनीकं न तु शक्यं मे प्रवेष्टुमिह वै त्वया।। | 5-127-60a 5-127-60b |
सञ्जय उवाच। | 5-127-61x |
अथ भीमस्तु तच्छ्रुत्वा गुरोर्वाक्यमशेषतः। क्रुद्धः प्रोवाच वै द्रोणं रक्तताम्रेक्षणः श्वसन्।। | 5-127-61a 5-127-61b |
तवार्जुनो नानुमते ब्रह्बन्धो रमाजिरम्। प्रविष्टः स हि दुर्धर्षः शक्रस्यापि विशेद्बलम्।। | 5-127-62a 5-127-62b |
येन त्वं परमां पूजां कुर्वता मानितो ह्यसि। नार्जुनोऽहं घृणी विप्र भीमसेनोऽस्मि ते रिपुः।। | 5-127-63a 5-127-63b |
पिता नस्त्वं गुरुर्बन्धुस्तदा पुत्रा हि र्ते वयम्। इति मन्यामहे सर्वे भवन्तं प्रणताः स्थिताः।। | 5-127-64a 5-127-64b |
तदद्य विपरीतं ते वदतोऽस्मासु दृश्यते। यदि शत्रुं त्वमात्मानं मन्यसे तत्तथाऽस्त्विह। एष ते सदृशं कर्म शत्रोर्भीमः करिष्यति।। | 5-127-65a 5-127-65b 5-127-65c |
सञ्जय उवाच। | 5-127-66x |
अथोद्धाम्य गदां वीरः कालदण्डमिवान्तकः। द्रोणायावासृजद्राजन्स रथादवपुप्लुवे।। | 5-127-66a 5-127-66b |
साश्वसूतध्वजं यानं द्रोणस्यापोथयत्तदा। तदद्भुतमपश्याम पाण्डवेयस्य विक्रमम्।। | 5-127-67a 5-127-67b |
द्रोणं तु विरथं कृत्वा भीमसेनो महाबलः। अभ्यवर्तत सैन्यानि तावकानि समन्ततः।। | 5-127-68a 5-127-68b |
स मृद्रंस्तरसा योधान्वायुर्वृक्षानिवौजसा। विचचार रणे राजन्वायुतुल्यपराक्रमः।। | 5-127-69a 5-127-69b |
निर्जितस्तु तदा तेन पाण्डवेन महात्मना। अन्यं तु रथमातिष्ठद्द्रोणः प्रहरतां वरः।। | 5-127-70a 5-127-70b |
।। इति श्रीमन्महाभारते द्रोणपर्वणि जयद्रथवधपर्वणि चतुर्दशदिवसयुद्धे सप्तविंशत्यधिकशततमोऽध्यायः।। 127 ।। |
5-127-1 संविदं ज्ञापनम्।। 5-127- आत्ययिकं अतिशयितम्।। 5-127- इदं श्लोकत्रयं झ. पुस्तक एव वर्तते। अनलो गोहिरण्यं च दूर्वागोरोचनामृतम्। अक्षतं दधि चेत्यष्टौ मङ्गलानि प्रचक्षते।। 5-127- विजयोत्पादसूचितः सूचितविजयोत्पादः।। 5-127- रथमारुह्य प्रययाविति पूर्वेणान्वयः।। 5-127- आह कुन्ती नूनमार्या पापमद्य निदर्शनम्। द्रोपद्री च सुभद्रा च पश्यन्त्यौ सह बन्धुभिः। इति झ. पाठः।। 5-127- आरुजन् कृन्तन्। विरुजन्विष्यन्। विकर्षन् अत्यर्थं कर्षन्। सम्प्रकर्षन् सम्यक्प्रकर्षेण विलिखन्। विकर्षन् विक्षिपन्।। 5-127-* इयं कथा झ. पाठे पूर्वाध्याये 37 तमश्लोकादनन्तरं कथितास्ति।
द्रोणपर्व-126 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | द्रोणपर्व-128 |