महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-182
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श्रीकृष्णेनार्जुनम्प्रति जरासन्धादिपराक्रमकथनपूर्वकं तेषां दुर्जयतया पूर्वमेव स्वेनोपायैर्हननकथनम्।। 1 ।।
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अर्जुन उवाच। | 5-182-1x |
कथमस्मद्धितार्थं ते कैश्च योगैर्जनार्दन। जरासन्धप्रभृतयो घातिताः पृथिवीश्वराः।। | 5-182-1a 5-182-1b |
वासुदेव उवाच। | 5-182-2x |
जरासन्धश्चेदिराजो नैषादिश्च महाबलः। यदि स्युर्न हताः पूर्वमिदानीं स्युर्भयङ्कराः।। | 5-182-2a 5-182-2b |
दुर्योधनस्तानवश्यं वृणुयाद्रथसत्तमान्। तेऽस्मासु नित्यविद्विष्टाः संश्रयेयुश्च कौरवान्।। | 5-182-3a 5-182-3b |
ते हि वीरा महेष्वासाः कृतास्त्रा दृढयोधिनः। धार्तराष्ट्रचमूं कृत्स्नां रक्षेयुरमरा इव।। | 5-182-4a 5-182-4b |
सूतपुत्रो जरासन्धश्चेदिराजो निषादजः। सुयोधनं समाश्रित्य तपेरन्पृथिवीमिमाम्।। | 5-182-5a 5-182-5b |
योगैरभिहता यैस्ते तन्मे शृणु धनञ्जय। अजय्या हि विना योगैर्मृधे ते दैवतैरपि।। | 5-182-6a 5-182-6b |
एकैको हि पृथक् तेषां समस्तां रिपुवाहिनीम्। योधयेत्समरे पार्थ लोकपालाभिरक्षिताम्।। | 5-182-7a 5-182-7b |
जरासन्धो हि रुषितो रौहिणेयप्रधर्षितः। अस्मद्वधार्थं चिक्षेप गदां वै सर्वघातिनीम्।। | 5-182-8a 5-182-8b |
सीमन्तमिव कुर्वाणा नभसः पावकप्रभा। अदृश्यतापतन्ती सा शक्रुमुक्ता यथाऽशनिः।। | 5-182-9a 5-182-9b |
तामापतन्तीं दृष्ट्वैव गदां रोहिणिनन्दनः। प्रतिघातार्थमस्त्रं वै स्थूणाकर्णमवासृजत्।। | 5-182-10a 5-182-10b |
अस्त्रवेगप्रतिहता सा गदा प्रापतद्भुवि। दारयन्ती धरां देवीं कम्पयन्तीव पर्वतान्।। | 5-182-11a 5-182-11b |
तत्र सा राक्षसी घोरा जरानाम्नी सुविक्रमा। सन्दधे सा हि सञ्जातं जरासन्धमरिन्दमम्।। | 5-182-12a 5-182-12b |
द्वाभ्यां जातो हि मातृभ्यामर्धदेहः पृथक्पृथक्। जरया सन्धितो यस्माज्जरासन्धस्ततोऽभवत्।। | 5-182-13a 5-182-13b |
सा तु भूमिं गता पार्थ हता ससुतबान्दवा। गदया तेन चास्त्रेण स्थूणाकर्णेन राक्षसी।। | 5-182-14a 5-182-14b |
विनाभूतः स गदया जरासन्धो महामृधे। निहतो भीमसेनेन पश्यतस्ते धनञ्जय।। | 5-182-15a 5-182-15b |
यदि हि स्याद्गदापाणिर्जरासन्धः प्रतापवान्। सेन्द्रा देवा न तं हन्तुं रणे शक्ता नरोत्तम।। | 5-182-16a 5-182-16b |
त्वद्धितार्थं च नैषादिरङ्गुष्ठेन वियोजितः। द्रोणेनाचार्यकं कृत्वा छद्मना सत्यविक्रमः।। | 5-182-17a 5-182-17b |
स तु बद्धाङ्गुलित्राणो नैषादिर्दृढविक्रमः। अतिमानी वचनरो बभौ राम इवापरः।। | 5-182-18a 5-182-18b |
एकलव्यं हि साङ्गुष्ठमशक्ता देवदानवाः। सराक्षसोरगाः पार्थ विजेतुं युधि कर्हिचित्।। | 5-182-19a 5-182-19b |
किमु मानुषमात्रेण शक्यः स्यात्प्रतिवीक्षितुम्। दृढमुष्टिः कृती नित्यमस्यमानो दिवानिशम्।। | 5-182-20a 5-182-20b |
त्वद्धितार्थं तु स मया हतः सङ्ग्राममूर्धनि।। | 5-182-21a |
चेदिराजश्च विक्रान्तः प्रत्यक्षं निहतस्तव। स चाप्यशक्यः सङ्ग्रामे जेतुं सर्वसुरासुरैः।। | 5-182-22a 5-182-22b |
वधार्थं तस्य जातोऽहमन्येषां च सुरद्विषाम्। त्वत्सहायो नरव्याघ्र लोकानां हितकाम्यया।। | 5-182-23a 5-182-23b |
हिडिम्बबककिर्मीरा भीमसेनेन पातिताः। रावणेन समप्राणा ब्रह्मयज्ञविनाशनाः।। | 5-182-24a 5-182-24b |
हतस्तथैव मायावी हैडिम्बेनाप्यलायुधः। हैडिम्बश्चाप्युपायेन शक्त्या कर्णेन घातितः।। | 5-182-25a 5-182-25b |
यदि ह्येनं नाहनिष्यत्कर्णः शक्त्या महामृधे। मयां वध्योऽभविष्यत्स भैमसेनिर्घटोत्कचः। मया न निहतः पूर्वमेष युष्मत्प्रियेप्सया।। | 5-182-26a 5-182-26b 5-182-27c |
एष हि ब्राह्मणद्वेषी यज्ञद्वेषी च राक्षसः। धर्मस्य लोप्ता पापात्मा तस्मादेव निपातितः। व्यंसिता चाप्यूपायेन शक्रदत्ता मयाऽनघ।। | 5-182-27a 5-182-27b 5-182-27c |
येहि धर्मस्य लोप्तारो वध्यास्ते मम पाण्डव। धर्मसंस्थापनार्थं हि प्रतिज्ञैषा ममाव्यया।। | 5-182-28a 5-182-28b |
ब्रह्म सत्यं दमः शौचं धर्मो हीः श्रीर्धृतिः क्षमा। यत्र तत्र रमे नित्यमहं सत्येन ते शपे।। | 5-182-29a 5-182-29b |
न विषादस्त्वया कार्यः कर्णं वैकर्तनं प्रति। उपदेक्ष्याम्युपायं ते येन तं प्रसहिष्यसि।। | 5-182-30a 5-182-30b |
सुयोधनं चापि रणे हनिष्यति वृकोदरः। तस्यापि च वधोपायं वक्ष्यामि तव पाण्डव।। | 5-182-31a 5-182-31b |
वर्धते तुमुलस्त्वेष शब्दः पचरमूं प्रति। विद्रवन्ति च सैन्यानि त्वदीयानि दिशो दश।। | 5-182-32a 5-182-32b |
लब्धलक्ष्या हि कौरव्या विधमन्ति चमूं तव। दहत्येष च वः सैन्यं द्रोणः प्रहरतां वरः।। | 5-182-33a 5-182-33b |
।। इति श्रीमन्महाभारते द्रोणपर्वणि घटोत्कचवधपर्वणि चतुर्दशरात्रियुद्धे द्व्यशीत्यधिकथततमोऽध्यायः।। 182 ।। |
5-182-1 योगैरुपायैः।। 5-182- रौक्मिणेयप्रधर्षितः इति क.ङ.पाठः।। 5-182- व्यंसिता व्यर्थीकृता शक्तिरिति शेषः।। 5-182-द्व्यशीत्यधिकशततमोऽध्यायः।। 182 ।।
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