महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-115
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सात्यकिना जलसन्धस्य वधः।। 1 ।।
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सञ्जय उवाच। | 5-115-1x |
शृणुष्वैकमना राजन्यन्मां त्वं परिपृच्छसि। द्राव्यमाणे बले तस्मिन्हार्दिक्येन महात्मना।। | 5-115-1a 5-115-1b |
लज्जयावनते चापि परिहृष्टे च तावके। द्वीपो य आसीत्पाण्डूनामगाधे गाधमिच्छताम्।। | 5-115-2a 5-115-2b |
श्रुत्वा स निनदं भीमं तावकानां महाहवे। शैनेयस्त्वरितो राजन्कृतवर्माणमभ्ययात्।। | 5-115-3a 5-115-3b |
उवाच सारथिं तत्र क्रोधामर्षसमन्वितः। हार्दिक्याभिमुखं सूत कुरु मे रथमुत्तमम्।। | 5-115-4a 5-115-4b |
कुरुते कदनं पश्य पाण्डुसैन्ये ह्यमर्षितः। एनं जित्वा पुनः सूत यास्यामि विजयं प्रति।। | 5-115-5a 5-115-5b |
एवमुक्ते तु वचने सूतस्तस्य महामते। निमेषान्तरमात्रेण कृतवर्माणमभ्ययात्।। | 5-115-6a 5-115-6b |
कृतवर्मा तु हार्दिक्यः शैनेयं निशितैः शरैः। अवाकिरत्सुसंक्रुद्धस्ततोऽक्रुद्ध्यत्स सात्यकिः।। | 5-115-7a 5-115-7b |
अथाशु निशितं भल्लुं शैनेयः कृतवर्मणः। प्रेषयामास समरे शरांश्च चतुरोऽपरान्।। | 5-115-8a 5-115-8b |
ते तस्य जघ्निरे वाहान्भल्लेनास्याच्छिनद्धनुः। पृष्ठरक्षं तथा सूतमविध्यन्निशितैः शरैः।। | 5-115-9a 5-115-9b |
ततस्तं विरथं कृत्वा सात्यकिः सत्यविक्रमः। सेनामस्यार्दयामास शरैः सन्नतपर्वभिः।। | 5-115-10a 5-115-10b |
अभज्यताथ पृतना शैनेयशरपीडिता। `पलायनकृतोत्साहा भ्रमन्ती तत्रतत्र ह'। ततः प्रायात्स त्वरितः सात्यकिः सत्यविक्रमः।। | 5-115-11a 5-115-11b 5-115-11c |
शृणु राजन्यदकरोत्तव सैन्येषु वीर्यवान्। अतीत्य स महाराज द्रोणानीकमहार्णवम्।। | 5-115-12a 5-115-12b |
पराजित्य तु संहृष्टः कृतवर्माणमाहवे। यन्तारमब्रवीच्छूरः शनैर्याहीत्यसम्भ्रमम्।। | 5-115-13a 5-115-13b |
दृष्ट्वा तु तव तत्सैन्यं रथाश्वद्वि पसङ्कुलम्। पदातिजनसम्पूर्णमब्रवीत्सारथिं पुनः।। | 5-115-14a 5-115-14b |
यदेतन्मेघसङ्काशं द्रोणानीकस्य सव्यतः। सुमहत्कुञ्जरानीकं यस्य रुक्मरथो मुखम्।। | 5-115-15a 5-115-15b |
एते हि बहवः सूत दुर्निवार्याश्च संयुगे। दुर्योधनसमादिष्टा मदर्थे त्यक्तजीविताः।। | 5-115-16a 5-115-16b |
राजपुत्रा महेष्वासाः सर्वे विक्रान्तयोधिनः। `न चाजित्वा रणे ह्येताञ्शक्यः प्राप्तुं जयद्रथः।। | 5-115-17a 5-115-17b |
नापि सूत मया पार्थः शक्यः प्राप्तुं कथञ्चन। एते तिष्ठन्ति सहिताः सर्वविद्यासु निष्ठिताः'।। | 5-115-18a 5-115-18b |
त्रिगर्तानां रथोदाराः सुवर्णविकृतध्वजाः। मामेवाभिमुखा वीरा योत्स्यमाना व्यवस्थिताः।। | 5-115-19a 5-115-19b |
अत्र मां प्रापय क्षिप्रमश्वांश्चोदय सारथे। त्रिगर्तैः सह योत्स्यामि भारद्वाजस्य पश्यतः।। | 5-115-20a 5-115-20b |
सञ्जय उवाच। | 5-115-21x |
ततः प्रायाच्छनैः सूतः सात्वतस्य मते स्थितः। रथेनादित्यवर्णेन भास्वरेण पताकिना।। | 5-115-21a 5-115-21b |
तमूहुः सारथेर्वश्या वल्गमाना हयोत्तमाः। वायुवेगसमाः सङ्ख्ये कुन्देन्दुरजतप्रभाः।। | 5-115-22a 5-115-22b |
आपतन्तं रणे तं तु शङ्खवर्णैर्हयोत्तमैः। परिववुस्ततः शूरा गजानीकेन सर्वतः। किरन्तो विविधांस्तीक्ष्णान्सायकाँल्लघुवेधिनः।। | 5-115-23a 5-115-23b 5-115-23c |
सात्वतोऽपि शितैर्बाणैर्गजानीकमयोधयत्। पर्वतानिव वर्षेण तपान्ते जलदो महान्।। | 5-115-24a 5-115-24b |
वज्राशनिसमस्पर्शैर्वध्यमानाः शरैर्गजाः। प्राद्रवन्रणमुत्सृज्य शिनिवीरसमीरितैः।। | 5-115-25a 5-115-25b |
शीर्णदन्ता विरुधिरा भिन्नमस्तकपिण्डिकाः। विशीर्णकर्णास्यकरा विनियन्तृपताकिनः।। | 5-115-26a 5-115-26b |
सम्भिन्नवर्मघण्टाश्च विनिकृत्तमहाध्वजाः। हतारोहा दिशो राजन्भेजिरे भ्रष्टकम्बलाः।। | 5-115-27a 5-115-27b |
रुवन्तो विविधान्नादाञ्जलदोपमनिःस्वनाः। नारचैर्वत्सदन्तैश्च भल्लैरञ्जलिकैस्तथा।। | 5-115-28a 5-115-28b |
क्षुरप्रैरर्धचन्द्रैश्च सात्वतेन विदारिताः। क्षरन्तोऽसृक्तथा मूत्रं पुरीषं च प्रदुद्रुवुः। बभ्रुमुश्चस्खलुश्चान्ये पेतुर्मम्लुस्तथाऽपरे।। | 5-115-29a 5-115-29b 5-115-29c |
एवं तत्कुञ्जरानीकं युयुधानेन पीडितम्। शरैरग्न्यर्कसङ्काशैः प्रदुद्राव समन्ततः।। | 5-115-30a 5-115-30b |
तस्मिन्हते गजानीके जलसन्धो महाबलः। यत्तः सम्प्रापयन्नागं रजताश्वरथं प्रति।। | 5-115-31a 5-115-31b |
रुक्मवर्मधरः शूरस्तपनीयाङ्गदः शुचिः। कुण्डली मकुटी खङ्गी रक्तचन्दनरूषितः।। | 5-115-32a 5-115-32b |
शिरसा धारयन्दीप्तां तपनीयमयीं स्रजम्। उरसा धारयन्निष्कं कण्ठसूत्रं च भास्वरम्।। | 5-115-33a 5-115-33b |
चापं च रुक्मविकृतं विधुन्वन्गजमूर्धनि। अशोभत महाराज सविद्युदिव तोयदः।। | 5-115-34a 5-115-34b |
तमापतन्तं सहसा मागधस्य गजोत्तमम्। सात्यकिर्वारयामास वेलेव मकरालयम्।। | 5-115-35a 5-115-35b |
नागं निवारितं दृष्ट्वा शैनेयस्य शरोत्तमैः। अक्रुध्यत रणे राजञ्जलसन्धो महाबलः।। | 5-115-36a 5-115-36b |
ततः क्रुद्धो महाराज मार्गणैर्भारसाधनैः। अविध्यत शिनेः पौत्रं जलसन्धो महोरसि।। | 5-115-37a 5-115-37b |
ततोऽपरेण भल्लेन पीतेन निशितेन च। अस्यतो वृष्णिवीरस्य निचकर्त शरासनम्।। | 5-115-38a 5-115-38b |
सात्यकिं छिन्नधन्वानां प्रहसन्निव भारत। अविध्यन्मागधो वीरः पञ्चभिर्निशितैः शरैः।। | 5-115-39a 5-115-39b |
स विद्धो बहुभिर्बाणैर्जलसन्धेन वीर्यवान्। नाकम्पत महाबाहुस्तदद्भुतमिवाभवत्।। | 5-115-40a 5-115-40b |
अचिन्तयन्वै स शरान्नात्यर्थं सम्भ्रमाद्बली। धनुरन्यत्समादाय तिष्ठतिष्ठेत्युवाच ह।। | 5-115-41a 5-115-41b |
एतावदुक्त्वा शैनेयो जलसन्धं महोरसि। विव्याध षष्ट्या सुभृशं शराणां प्रहसन्निव।। | 5-115-42a 5-115-42b |
क्षुरप्रेण सुतीक्ष्णेन मुष्टिदेशे महद्धनुः। जलसन्धस्य चिच्छेद विव्याध च त्रिभिः शरैः।। | 5-115-43a 5-115-43b |
जलसन्धस्तु तत्त्यक्त्वा सशरं वै शरासनम्। तोमरं व्यसृजत्तूर्णं सात्यकिं प्रति मारिष।। | 5-115-44a 5-115-44b |
स निर्भिद्य भुजं सव्यं माधवस्य महारणे। अभ्यगाद्धरणीं घोरः श्वसन्निव महोरगः।। | 5-115-45a 5-115-45b |
निर्भिन्ने तु भुजे सव्ये सात्यकिः सत्यविक्रमः। त्रिंशद्भिर्विशिखैस्तीक्ष्णैर्जलसन्धमताडयत्।। | 5-115-46a 5-115-46b |
प्रगृह्य तु ततः खङ्गं जलसन्धो महाबलः। आर्षभं चर्म च महच्छतचन्द्रकसङ्कुलम्। आविध्य च ततः खङ्गं सात्वतायोत्ससर्ज ह।। | 5-115-47a 5-115-47b 5-115-47c |
शैनेयस्य धनुश्छित्त्वा स खङ्गो न्यपतन्महीम्। अलातचक्रवच्चैव व्यरोचत महीं गतः।। | 5-115-48a 5-115-48b |
अथान्यद्धनुरादाय सर्वकायावदारणम्। `जलसन्धमभिप्रेक्ष्य उत्स्मयित्वा च माधवः'।। | 5-115-49a 5-115-49b |
शालस्कन्धप्रतीकाशमिन्द्राशनिसमस्वनम्। विष्फार्य विव्यधे क्रुद्धो जलसन्धं शरेण ह।। | 5-115-50a 5-115-50b |
ततः साभरणौ बाहू क्षुराभ्यां माधवोत्तमः। साङ्गदौ जलसन्धस्य चिच्छेद प्रहसन्निव।। | 5-115-51a 5-115-51b |
तौ बाहू परिघप्रख्यौ पेततुर्गजसत्तमात्। वसुन्धराधराद्धष्टौ पञ्चशीर्षाविवोरगौ।। | 5-115-52a 5-115-52b |
ततः सुदंष्ट्रं सुहनु चारुकुण्डलमण्डितम्। क्षुरेणास्य तृतीयेन शिरश्चिच्छेद सात्यकिः।। | 5-115-53a 5-115-53b |
तत्पातितशिरोबाहुकबन्धं भीमदर्शनम्। द्विरदं जलसन्धस्य रुधिरेणाभ्यषिञ्चत।। | 5-115-54a 5-115-54b |
जलसन्धं निहत्याजौ त्वरमाणस्तु सात्वतः। विमानं पातयामास गजस्कन्धाद्विशांपते।। | 5-115-55a 5-115-55b |
रुधिरेणावसिक्ताङ्गौ जलसन्धस्य कुञ्जरः। विलम्बमानमवहत्संश्लिष्टं परमासनम्।। | 5-115-56a 5-115-56b |
शरार्दितः सात्वतेन मर्दमानः स्ववाहिनीम्। घोरमार्तस्वरं कृत्वा विदुद्राव महागजः।। | 5-115-57a 5-115-57b |
हाहाकारो महानासीत्तव सैन्यस्य मारिष। जलसन्धं हतं दृष्ट्वा वृष्णीनामृपभेण तु।। | 5-115-58a 5-115-58b |
विमुखाश्चाभ्यधावन्त तव योधाः समन्ततः। पलायनकृतोत्साहा निरुत्साहा द्विषञ्जये।। | 5-115-59a 5-115-59b |
एतस्मिन्नन्तरे राजन्द्रोणः शस्त्रभृतां वरः। `सन्न्यस्य भारं सुमहत्कृतवर्मणि भारत।। | 5-115-60a 5-115-60b |
अभ्ययाज्जवनैरश्वैर्युयुधानं महारथम्। स हि पार्थान्रणे यत्तान्दधारैको महाबलः'।। | 5-115-61a 5-115-61b |
तमुदीर्णं तथा दृष्ट्वा शैनेयं कुरुपुङ्गवाः। द्रोणेनैव सह क्रुद्धा सात्यकिं समुपाद्रवन्।। | 5-115-62a 5-115-62b |
ततः प्रववृते युद्धं कुरूणां सात्वतस्य च। द्रोणस्य च रणे राजन्घोरं देवासुरोपमम्।। | 5-115-63a 5-115-63b |
।। इति श्रीमन्महाभारते द्रोणपर्वणि जयद्रथवधपर्वणि चतुर्दशदिवसयुद्धे पञ्चदशाधिकशततमोऽध्यायः।। 115 ।। |
5-115-23 द्रोणo 5-115-26 पिण्डिक्रा गण्डः।। 5-115-33 कण्ठसूत्रं हारम्।। 5-115-47 ततो ग्रहणानन्तरम्। आविध्य भ्रामयित्वा।। 5-115-52 वसुन्धराधरात् पर्वताम्।। 5-115-115 पञ्चदशाधिकशततमोऽध्याय।।
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