महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-143
← द्रोणपर्व-142 | महाभारतम् सप्तमपर्व महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-143 वेदव्यासः |
द्रोणपर्व-144 → |
अर्जुनच्छिन्नभुजस्य भूरिश्रवसः तदुपालम्भपूर्वकं प्रायोपवेशः।। 1 ।। सात्यकिना भूरिश्रवश्शिरश्छेदः।। 2 ।।
|
सञ्जय उवाच। | 5-143-1x |
स बाहुर्न्यपतद्भूमौ सखङ्गः सशुभाङ्गदः। आदधज्जीवलोकस्य दुःखमद्भुतमुत्तमः। `यन्त्रमुक्तो महेन्द्रस्य ध्वजो वृत्तोत्सवो यथा'।। | 5-143-1a 5-143-1b 5-143-1c |
प्रहरिष्यन्हृतो बाहुरदृश्यते किरीटिना। वेगेन न्यपतद्भूमौ पञ्चास्य इव पन्नगः।। | 5-143-2a 5-143-2b |
स मोघं कृतमात्मानं दृष्ट्वा पार्थेन कौरवः। उत्सृज्य सात्यकिं क्रोधाद्ग्रर्हयामास पाण्डवम्।। | 5-143-3a 5-143-3b |
`स विबाहुर्महाराज एकपक्ष इवाण्डजः। एकचक्रो रथो यद्वद्धरणीमास्थितो नृपः। उवाच पाण्डवं चैव सर्वक्षत्रस्य पश्यतः।। | 5-143-4a 5-143-4b 5-143-4c |
भूरिश्रवा उवाच। | 5-143-5x |
नृशंसं बत कौन्तेय कर्मेदं कृतवानसि। अपश्यतो विषक्तस्य यन्मे त्वं बाहुमच्छिनः।। | 5-143-5a 5-143-5b |
येषु येषु नरः पार्थ वर्तते सुसमाहितः। आशु तच्छीलतामेति तदिदं दृश्यते त्वयि।। | 5-143-6a 5-143-6b |
किं नु वक्ष्यसि राजानं धर्मपुत्रं युधिष्ठिरम् किं कुर्वाणो मया सङ्ख्ये हतो भूरिश्रवा इति।। | 5-143-7a 5-143-7b |
इदमिन्द्रेण ते साक्षादुपदिष्टं महात्मना। अस्त्रं रुद्रेण वा पार्थ द्रोणेनाथ कृपेण वा।। | 5-143-8a 5-143-8b |
ननु नामास्त्रधर्मज्ञस्त्वं लोकेऽभ्यधिकः परैः। सोऽयुध्यमानस्य कथं रणे प्रहृतवानसि।। | 5-143-9a 5-143-9b |
न प्रमत्ताय भीताय विरथाय प्रयाचते। व्यसने वर्तमानाय प्रहरन्ति मनीषिणः।। | 5-143-10a 5-143-10b |
इदं तु नीचाचरितमसत्पुरुषसेवितम्। कथमाचरितं पार्थ पापकर्म सुदुष्करम्।। | 5-143-11a 5-143-11b |
आर्येण सुकरं त्वाहुरार्यकर्म धनञ्जय। अनार्यकर्म त्वार्येण सुदुष्करतमं भुवि।। | 5-143-12a 5-143-12b |
कथं हि राजवंश्यस्त्वं कौरवेयो विशेषतः। क्षत्रधर्मादपक्रान्तः सुवृत्तश्चारितव्रतः।। | 5-143-13a 5-143-13b |
`अल्पस्तवापराधोऽत्र न त्वां तात विगर्हये। वार्ष्णेयापशदं प्राप्य क्षुद्रं कृतमिदं त्वया'।। | 5-143-14a 5-143-14b |
इदं तु यदतिक्षुद्रं वार्ष्णेयार्थे कृतं त्वया। वासुदेवमतं नूनं नैतत्त्वय्युपपद्यते।। | 5-143-15a 5-143-15b |
को हि नाम प्रमत्ताय परेण सह युध्यते। ईदृशं व्यसनं दद्याद्यो न कृष्णसखो भवेत्।। | 5-143-16a 5-143-16b |
व्रात्याः सङ्क्लिष्टकर्माणः प्रकृत्यैव च गर्हिताः। वृष्ण्यन्धकाः कथं पार्थ प्रमाणं भवता कृताः।। | 5-143-17a 5-143-17b |
सञ्जय उवाच। | 5-143-18x |
एवमुक्तो रणे पार्थो भूरिश्रवसमब्रवीत्। व्यक्तं हि जीर्यमाणोऽपि बुद्धिं जरयते नरः। अनर्थकमिदं सर्वं यत्त्वया व्याहृतं प्रभो।। | 5-143-18a 5-143-18b 5-143-18c |
जानन्नेव हृषीकेशं गर्हसे मां च पाण्डवम्। सङ्गामाणां हि धर्मज्ञः सर्वशास्त्रार्थपारगः।। | 5-143-19a 5-143-19b |
न चाधर्ममहं कुर्यां जानंश्चैव हि मुह्यसे।। | 5-143-20a |
युध्यन्ते क्षत्रियाः शत्रून्स्वैःस्वैः परिवृता नराः। भ्रातृभिः पितृभिः पुत्रैस्तथा सम्बन्धिबान्धवैः। वयस्यैरथ मित्रैश्च स्वबाहुबलमाश्रिताः।। | 5-143-21a 5-143-21b 5-143-21c |
स कथं सात्यकिं शिष्यं सुखसम्बन्धिमेव च। अस्मदर्थे च युध्यन्तं त्यक्त्वा प्राणान्सुदुस्त्यजान्।। | 5-143-22a 5-143-22b |
मम बाहुं रणे राजन्दक्षिणं युद्धदुर्मदम्। *त्वया निकृष्यमाणं च दृष्टवानस्मि निष्क्रियम्।। | 5-143-23a 5-143-23b |
न च त्वं रक्षितव्यो हि एको रणगतेन हि। यो यस्य युध्यतेऽर्थाय संरक्ष्यो नराधिप। तै रक्ष्यमाणैः स नृपो रक्षितव्यो महामृधे।। | 5-143-24a 5-143-24b 5-143-24c |
यद्यहं सात्यकिं दृष्ट्वा तूष्णीमासिष्य आहवे। ततस्तेन वियोगश्च प्राप्यं नरकमेव च।। | 5-143-25a 5-143-25b |
रक्षितव्यो मया यस्मात्तस्माल्लब्धो मया स च। यशश्चैव स्वपक्षेभ्यः फलं मित्रस्य रक्षणात्।। | 5-143-26a 5-143-26b |
यच्च मां गर्हसे राजन्कृष्णेन सह सङ्गतम्। कस्तेन सङ्गमं नेच्छेत्तत्र ते बुद्धिविभ्रमः।। | 5-143-27a 5-143-27b |
आबद्धकवचस्येह रथमारुह्य तिष्ठतः। सर्वायुधैरुपेतस्य प्रतियोद्धृप्रतीक्षिणः।। | 5-143-28a 5-143-28b |
अस्मिन्रथगजानीके हयपत्तिसमाकुले। सिंहनादोद्धतरवे गम्भीरे सैन्यसागरे।। | 5-143-29a 5-143-29b |
स्वैश्चापि समुपेतस्य विक्रान्तस्य तथा रणे। सात्यकेन कथं योग्यः सङ्ग्रामस्ते भविष्यति।। | 5-143-30a 5-143-30b |
बहुभिः सह सङ्गम्य निर्जित्य च महारथान्। श्रान्तश्च श्रान्तवाहश्च क्षीणसर्वायुधस्त्वया। समेतः सात्यकिः सङ्ख्ये निर्जितश्च महारथः।। | 5-143-31a 5-143-31b 5-143-31c |
ईदृशं सात्यकिं सङ्ख्ये निर्जित्य च महारथम्। अधिकत्वं विजानीपे स्ववीर्यवशमागतम्।। | 5-143-32a 5-143-32b |
इच्छसि त्वं शिरस्तस्य असिना हर्तुमाहवे। तथा कृच्छ्रगतं दृष्ट्वा सात्यकिं कः क्षमिष्यति। एकस्यैकेन हि कथं सङ्ग्रामः सम्भविष्यति।। | 5-143-33a 5-143-33b 5-143-33c |
त्वं तु गर्हय चात्मानं स्वधर्मं यो न रक्षसि। कथं रक्षिष्यसे वीर ये वै त्वां संश्रिता जनाः।। | 5-143-34a 5-143-34b |
आत्तशस्त्रस्य हि रणे वृष्णिपुत्रं जिघांसतः। छिन्नवान्यदहं बाहुं नैतल्लोकविगर्हितम्।। | 5-143-35a 5-143-35b |
न्यस्तशस्त्रस्य हि पुनर्विकलस्य विवर्मणः। अभिमन्योर्वधं तात धार्मिकः को नु पूजयेत्।। | 5-143-36a 5-143-36b |
सञ्जय उवाच। | 5-143-37x |
एवमुक्तो महार्बाहुर्यूपकेतुर्महायशाः। युयुधानं समुत्सृज्य रणे प्रायमुपाविशत्।। | 5-143-37a 5-143-37b |
शरानास्तीर्य सव्येन पाणिना पुण्यलक्षणः। यियासुर्ब्रह्मलोकाय प्राणान्प्राणेष्वथाजुहोत्।। | 5-143-38a 5-143-38b |
सूर्ये चक्षुः समाधाय प्रसन्नं सलिले मनः। ध्यायन्महोपनिषदं योगयुक्तोऽभवन्मुनिः।। | 5-143-39a 5-143-39b |
ततस्ते सर्वसेनासु जनाः कृष्णधनञ्जयौ। गर्हयामासुरप्येतौ शशंसुर्भूरिदक्षिणम्।। | 5-143-40a 5-143-40b |
निन्द्यमानौ तथा कृष्णौ नोचतुः किञ्चिदप्रियम्। ततः प्रशस्यमानश्च नाहृष्यद्यूपकेतनः।। | 5-143-41a 5-143-41b |
तांस्तथावादिनो राजन्पुत्रांस्तव धनञ्जयः। अमूष्यमाणो मनसा तेषां तस्य च भाषितम्।। | 5-143-42a 5-143-42b |
असङ्क्रुद्धमना वाचः स्मारयन्निव भारत। उवाच पाण्डुतनयः साक्षेपमिव फल्गुनः।। | 5-143-43a 5-143-43b |
मम सर्वेऽपि राजानो जानन्त्येतन्महाव्रतम्। न शक्यो मामको हन्तुं यो मे स्याद्बाणगोचरे।। | 5-143-44a 5-143-44b |
यूपकेतुं समीक्ष्यैतन्न मां गर्हितुमर्हथ। न हि धर्ममविज्ञाय युक्तं गर्हयितुं परम्।। | 5-143-45a 5-143-45b |
न्यस्तशस्त्रस्य बालस्य विरथस्य विवर्मणः। `नाभिमन्योर्वधं यूयं गर्हयध्वं कुतस्तदा।। | 5-143-46a 5-143-46b |
दुर्योधनस्य क्षुद्रस्य अप्रमाणे च तिष्ठतः। सौमदत्तेरथं साधुः सर्वसाहाय्यकारिणः।। | 5-143-47a 5-143-47b |
अस्मदीया मया रक्ष्याः प्राणबाध उपस्थिते। ये मे प्रत्यक्षतो वीरा हन्येरन्निति मे मतिः।। | 5-143-48a 5-143-48b |
सात्यकश्च वशं नीतः कौरवेण महात्मना। ततो मयैतच्चरितं प्रतिज्ञारक्षणं प्रति।। | 5-143-49a 5-143-49b |
सञ्जय उवाच। | 5-143-50x |
पुनश्च कृपयाऽऽविष्टो बहु तत्तद्विचिन्तयन्। उवाच चैनं कौरव्यमर्जुनः शोकपीडितः।। | 5-143-50a 5-143-50b |
धिगस्तु क्षत्रधर्मं तु यत्र त्वं पुरुषेश्वरः। अवस्थामीदृशीं प्राप्तः शरण्यः शरणप्रदः।। | 5-143-51a 5-143-51b |
नातिभारः कृतान्तस्य विद्यते कुरुनन्दन। यत्र त्वं पुरुषव्याघ्रः प्राप्तः पापामिमां दशाम्।। | 5-143-52a 5-143-52b |
नात्मनः सुकृतस्यास्य फलं वै नृपसत्तम। यत्र त्वं कुरुशार्दूल प्राप्तः पापामिमां दशाम्।। | 5-143-53a 5-143-53b |
रौरवं नरकं भीमं गमिष्यति सुयोधनः। यत्कृते नरशार्दूलः प्राप्तः पापामिमां दशाम्।। | 5-143-54a 5-143-54b |
को हि नाम पुमाँल्लोके मादृशः पुरुषोत्तम। प्रहरेत्त्वद्विधे त्वद्य प्रतिज्ञा यदि नो भवेत्'।। | 5-143-55a 5-143-55b |
एवमुक्तः स पार्थेन शिरसा भूमिमस्पृशत्। पाणिना चैव सव्येन प्राहिणोदस्य दक्षिणम्।। | 5-143-56a 5-143-56b |
एतत्पार्थस्य तु वचस्ततः श्रुत्वा महाद्युतिः। युपकेतुर्महाराज तूष्णीमासीदवाङ्मुखः।। | 5-143-57a 5-143-57b |
अर्जुन उवाच। | 5-143-58x |
या प्रीतिर्धर्मराजे मे भीमे च बलिनां वरे। नकुले सहदेवे च सा मे त्वयि शलाग्रज।। | 5-143-58a 5-143-58b |
मया त्वं समनुज्ञातः कृष्णेन च महात्मना। गच्छ पुण्यकृतां लोकाञ्छिबिरौशीनरो यथा।। | 5-143-59a 5-143-59b |
वासुदेव उवाच। | 5-143-60x |
ये लोका मम विमलाः सकृद्विभाता ब्रह्माद्यैः सुरवृषभैरपीष्यमाणाः। तान्क्षिप्रं व्रज सतताग्निहोत्रयाजि-- न्मत्तुल्यो भव गरुडोत्तमाङ्गयानः।। | 5-143-60a 5-143-60b 5-143-60c 5-143-60d |
सञ्जय उवाच। | 5-143-61x |
`धनञ्जये ब्रुवत्येवं घृणया च परिप्लुते। अवाङ्मुखा बभूवुश्च सैनिकाः सर्व एव ते।। | 5-143-61a 5-143-61b |
मुहूर्तादिव विश्रम्य सात्यकिः क्रोधमूर्च्छितः। अमर्षवशमापन्नः सौमदत्तिनिराकृतः'।। | 5-143-62a 5-143-62b |
उत्थितः स तु शैनेयो विमुक्तः सौमदत्तिना। सङ्गमादाय चिच्छित्सुः शिरस्तस्य महात्मनः।। | 5-143-63a 5-143-63b |
निहतं पाण्डुपुत्रेण प्रसक्तं भूरिदक्षिणम्। इयेष सात्यकिर्हन्तुं शलाग्रजमकल्मषम्।। | 5-143-64a 5-143-64b |
निकृत्तभुजमासीनं छिन्नहस्तमिव द्विपम्। क्रोशतां सर्वसैन्यानां निन्द्यमानः सुदुर्मनाः।। | 5-143-65a 5-143-65b |
वार्यमाणः स कृष्णेन पार्थेन च महात्मना। भीमेन चक्रक्षाभ्यामश्वत्थाम्ना कृपेण च।। | 5-143-66a 5-143-66b |
कर्णेन वृषसेनेन सैन्धवेन तथैव च। विक्रोशतां च सैन्यानामवधीत्तं धृतव्रतम्।। | 5-143-67a 5-143-67b |
प्रायोपविष्टस्य रणे पार्थेन च्छिन्नबाहुनः। सात्यकिः कौरवेयस्य खङ्गेनापाहरच्छिरः।। | 5-143-68a 5-143-68b |
नाभ्यनन्दन्त तं सैन्याः सात्यकिं तेन कर्मणा। अर्जुनेन हतं पूर्वं यज्जघान कुरूद्वहम्।। | 5-143-69a 5-143-69b |
सहस्राक्षसमं चैव सिद्धचारणमानवाः। भूरिश्रवसमालोक्य युद्धे प्रायगतं हतम्।। | 5-143-70a 5-143-70b |
अपूजयन्त तं देवा विस्मितास्तेऽस्य कर्मभिः। पक्षवादांश्च सुबहून्प्रावदंस्तव सैनिकाः।। | 5-143-71a 5-143-71b |
न वार्ष्णेयस्यापराधो भवितव्यं हि तत्तथा। तस्मान्मन्युर्न वः कार्यः क्रोधो दुःखतरो नृणाम्।। | 5-143-72a 5-143-72b |
हन्तव्यश्चैष वीरेण नात्र कार्या विचारणा। विहितो ह्यस्य धात्रैव मृत्युः सात्यकिराहवे।। | 5-143-73a 5-143-73b |
`मर्तव्यमेव सर्वेण चरमं पूर्वमेव वा। मन्यध्वं मृत इत्येष माभूद्वो बुद्धिलाघवम्।। | 5-143-74a 5-143-74b |
तस्मिन्हते महाबाहौ यूपकेतौ महात्मनि। धिगेनमिति चाक्रन्दन्क्षत्रियाः क्रोधमूर्च्छिताः।। | 5-143-75a 5-143-75b |
अन्ये न युक्तमित्येव भवितव्यं तथेति च। केचिदासन्विमनसः केचिद्दुःखसमन्विताः'।। | 5-143-76a 5-143-76b |
सात्यकिरुवाच। | 5-143-77x |
न हन्तव्यो न हन्तव्य इति मन्दाः प्रभाषत। धर्मवादैरधर्मिष्ठा धर्मकञ्चुकमास्थिताः।। | 5-143-77a 5-143-77b |
यदा बालः सुभद्रायाः सुतः शस्त्रनिनाकृतः। युष्माभिर्निहतो युद्धे तदा धर्मः क्व वो गतः।। | 5-143-78a 5-143-78b |
मया त्वेतत्प्रतिज्ञातं क्षेपे कस्मिंश्चिदेव हि। `श्रुत्वा तत्सर्वभावेन गर्हयध्वं न चार्जुनम्। शृणुध्वं सर्वमेवेह श्रुत्वा गर्हथ मानवाः'।। | 5-143-79a 5-143-79b 5-143-79c |
यो मां निष्पिष्य सङ्ग्रमे जीवन्हन्यात्पदा रुषा। स मे वध्यो भवेच्छत्रुर्यद्यपि स्यान्मुनिव्रतः।। | 5-143-80a 5-143-80b |
चेष्टमानं प्रतीघाते सभुजं मां सचक्षुषः। मन्यध्वं मृत इत्येवमेतद्वो बुद्धिलाघवम्।। | 5-143-81a 5-143-81b |
युक्तो ह्यस्य प्रतीघातः कृतो मे कुरुपुङ्गवाः।। | 5-143-82a |
यत्तु पार्थेन मां दृष्ट्वा प्रतिज्ञामभिरक्षता। सखङ्गोऽस्य हृतो बाहुरेतेनैवास्मि वञ्चितः।। | 5-143-83a 5-143-83b |
भवितव्यं हि यद्भावि दैवं चेष्टयते हि तत्। सोयं हतो विमर्देऽस्मिन्किमत्राधर्मचेष्टितम्।। | 5-143-84a 5-143-84b |
अपि चापं पुरा गीतः श्लोको वाल्मीकिना भुवि। न हन्तव्याः स्त्रिय इति यद्ब्रवीषि प्लवङ्गम।। | 5-143-85a 5-143-85b |
सर्वकालं मनुष्येण व्यवसायवता सदा। पीडाकरममित्राणां यत्स्यात्कर्तव्यमेव तत्। अनुष्ठितं मया तच्च कस्माद्गर्हथ मूढवत्।। | 5-143-86a 5-143-86b 5-143-86c |
सञ्चय उवाच। | 5-143-87x |
एवमुक्ते महाराज सर्वे कौरवपुङ्गवाः। न स्म किंचिदभाषन्त मनसा समपूजयन्।। | 5-143-87a 5-143-87b |
मन्त्रभिपूतस्य महाध्वरेषु यशस्विनो भूरिसहस्रदस्य। मुनेरिवारण्यगतस्य तस्य न तत्र कश्चिद्वधमभ्यनन्दत्।। | 5-143-88a 5-143-88b 5-143-88c 5-143-88d |
सुनीलकेशं वरदस्य तस्य सूरस्य पारावतलोहिताक्षम्। अश्वस्य मेध्यस्य शिरो निकृत्तं न्यस्तं हविर्धानमिवान्तरेण।। | 5-143-89a 5-143-89b 5-143-89c 5-143-89d |
स तेजसा शस्त्रकृतेन पूतो महाहवे देहवरं विसृज्य। आक्रामदूर्ध्वं वरदो वरार्हो व्यावृत्त्य धर्मेण परेम रोदसी।। | 5-143-90a 5-143-90b 5-143-90c 5-143-90d |
।। इति श्रीमन्महाभारते द्रोणपर्वणि जयद्रथवधपर्वणि चतुर्दशदिवसयुद्धे त्रिचत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः।। 143 ।। |
5-143-5 विषक्तस्यान्यासक्तस्य।। 5-143-6 येषुयेषु सत्स्वसत्सु वा।। 5-143-* एतदादि 35 त्तमश्लोकपर्यन्तं विद्यमानानां श्लोकानां स्थाने अधोलिखिताः श्लोकाः झ. पुस्तके सन्ति। नचात्मा रक्षितव्यो वै राजन्रणगतेन हि। यो यस्य युज्यतेऽर्थेषु स वै रक्ष्यो नराधिप।। 1 ।। तै रक्ष्यमाणैः स नृपो रक्षितव्यो महामृधे। यद्यहं सात्यकिं पश्ये वध्यमानं महारणे।। 2 ।। ततस्तस्य वियोगेन पापं मेऽनर्थतो भवेत्। रक्षितश्च मया यस्मात्तस्मात्क्रुध्यसि किं मयि।। 3 ।। यच्च मे गर्हसे राजन्नन्येन सह सङ्गतम्। अहं त्वया विनिकृतस्तत्र मे बुद्धिविभ्रमः।। 4 ।। कवचं धुन्वतस्तुभ्यं रथं चारोहतः स्वयम्। धनुर्ज्यां कर्षतश्चैव युध्यतः सह शत्रुभिः।। 5 ।। एवं रथगजाकीर्णे हयपत्तिसमाकुले। सिंहनादोद्भतरवे गम्भीरे सैन्यसागरे।। 6 ।। स्वैः परैश्च समेतेभ्यः सात्वतेन च सङ्गमे। एकस्यैकेन हि कथं सङ्ग्रमः सम्भविष्यति।। 7 ।। बहुभिः सह सङ्गम्य निर्जित्य च महारथान्। श्रान्तश्च श्रान्तवाहश्च विमनाः शस्त्रपीडितः।। 8 ।। ईदृशं सात्यकिं संख्ये निर्जित्य च महारथम्। अधिकत्वं विजानीषे स्ववीर्यवशमागतम्।। 9 ।। यदिच्छसि शिरश्चास्य असिना हन्तुमाहवे। तथा कृच्छ्रगतं चैव सात्यकिं कः क्षमिष्यति।। 10 ।। त्वं वै विगर्हयात्मानमात्मानं यो न रक्षसि। कथं करिष्यसे वीर यो वा त्वां संश्रयेज्जनः।। 11 ।। 5-143-23 दक्षिणं बाहुं तत्स्थनीयम्।। 5-143-37 प्रायं आमरणानशनं प्रारब्धवान्।। 5-143-38 प्राणानसून् प्राणेषुवायुषु अजुहोदाहितवान्।। 5-143-39 प्रसन्नमकल्पमषम्।। 5-143-49 स कथं च वधं नीतः इति ङ. पाठः। सः सात्यकिः वधसुद्दिस्येति शेषः।। 5-143-52 नातिहारः कृतान्तस्येति ठ.पाठः। अतिहारः परिहारः।। 5-143-56 दक्षिणं कृत्तमात्मनः पाणिं अस्यार्जुनस्य समीपे प्राहिणोत् प्रहितवान्।। 5-143-60 ये लोका इति श्लोकः झ.घ.ञ. पुस्तकेष्वेवास्ति। सकृद्विभाताः सहप्रकाशाः। गरुडस्योत्तमाङ्गेन पृष्ठेन यानं यस्य।। 5-143-64 प्रसक्तमन्यासक्तम्।। 5-143-79 क्षेपे निन्दामाम्। जीवन्निति द्वितीयार्थे प्रथमा।। 5-143-85 न हन्तव्या इत्यर्थं घ.ङ.झ.ञ. पाठेष्वेवास्ति।। 5-143-89 वरदस्यार्थितार्थप्रदातुः। हविर्धानमन्तरेण हविर्गृहस्य मध्ये।। 5-143-143 त्रिचत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः।।
द्रोणपर्व-142 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | द्रोणपर्व-144 |