महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-148

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महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-148
वेदव्यासः
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कृष्णेनार्जुनं प्रति सैन्धवमूर्ध्नो धरण्यामनिपातनीयत्वे कारणाभिधानम्।। 1 ।। कृष्णाज्ञयाऽर्जुनेन स्यमन्तपञ्चके सन्ध्य मुपासमानस्य वृद्धक्षत्रस्योत्सङ्गे जयद्रथशिरसो निपातनम्।। 2 ।। उत्तिष्ठमानस्य तस्योत्सङ्गाच्छिरसि धरणौ पतिते वृद्ध क्षत्रमूर्ध्नो विदारणम्।। 3 ।।

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सञ्जय उवाच। 5-148-1x
एवस्मिन्नेव काले तु त्वरमाणे दिवाकरे।
अब्रवीत्पाण्डवं तत्र त्वरमाणो जनार्दनः।।
5-148-1a
5-148-1b
पार्थ पार्थ शिरो ह्येनद्यत्कृते न पतेद्भुवि।
श्रूयतां तद्यथावृत्तं कारणं सैन्धवं *प्रति।।
5-148-2a
5-148-2b
वृद्धक्षत्रः सैन्धवस्य पिता जगति विश्रुतः।
स च घोरेण तपसा दैन्धवं प्राप्तवान्सुतम्।।
5-148-3a
5-148-3b
जयद्रथममित्रघ्नं वागुवाचाशरीरिणी।
नृपमन्तर्हिता वाणी मेघदुन्दुभिनिःस्वना।।
5-148-4a
5-148-4b
तवात्मजो मनुष्येन्द्र कुलशीलदमादिभिः।
गुणैर्भविष्यति विभो सदृशो वंशयोर्द्वयोः।
क्षत्रियप्रवरो लोके नित्यं शूराभिसत्कृतः।।
5-148-5a
5-148-5b
5-148-5c
शिरश्छेत्स्यति सङ्क्रुद्धः शत्रुश्चालक्षितो भुवि।। 5-148-6a
एतच्छ्रुत्वा सिन्धुराजो ध्यात्वा चिरमरिन्दमः।
ज्ञातीन्सर्वानुवाचेदं पुत्रस्नेहाभिचोदितः।।
5-148-7a
5-148-7b
सङ्ग्रामे युध्यमानस्य वहतो महतीं धुरम्।
धरण्यां मम पुत्रस्य पातयिष्यति यः शिरः।।
5-148-8a
5-148-8b
तस्यापि शतधा मूर्धा फलिष्यति न संशयः।
`यदि चेदस्ति मे लाभस्तपसो वा दमस्य वा'।।
5-148-9a
5-148-9b
एवमुक्त्वा ततो राज्ये स्थापयित्वा जयद्रथम्।
वृद्धक्षत्रो वनं यातस्तपश्चोग्रं समास्थितः।।
5-148-10a
5-148-10b
सोऽयं तप्यति तेजस्वी तपो घोरं दुरासदम्।
स्यमन्तपञ्चकादस्माद्बहिर्वानरकेतन।।
5-148-11a
5-148-11b
तस्माज्जयद्रथस्य त्वं शिरश्छित्त्वा महामृधे।
दिव्येनास्त्रेण रिपुहन्घोरेणाद्भुतकर्मणा।।
5-148-12a
5-148-12b
सकुण्डलं सिन्धुपतेः प्रभञ्जनसुतानुज।
उत्सङ्गे पातयस्वास्य वृद्धक्षत्रस्य भारत।।
5-148-13a
5-148-13b
अथ त्वमस्य मूर्धानं पातयिष्यसि भूतले।
तवापि शतधा मूर्धा फलिष्यति न संशयः।।
5-148-14a
5-148-14b
यथा चेदं न जानीयात्स राजा तपसि स्थितः।
तथा कुरु कुरुश्रेष्ठ दिव्यमस्त्रमुपाश्रितः।।
5-148-15a
5-148-15b
न ह्यसाध्यमकार्यं वा विद्यते तव किञ्चन।
समस्तेष्वपि लोकेषु त्रिषु वासवनन्दन।।
5-148-16a
5-148-16b
`यथैतत्सैन्धवशिरः शरैरेव धनञ्जय।
वृद्धक्षत्रे पतत्येव तथा नीतिर्विधीयताम्'।।
5-148-17a
5-148-17b
सञ्जय उवाच। 5-148-18x
ततः सुमहदाश्चर्यं तत्रापश्याम भारत।
स्यमन्तपञ्चकाद्बाह्यं शिरो यद्व्यहरत्ततः।।
5-148-18a
5-148-18b
एतस्मिन्नेव काले तु वृद्धक्षत्रो महीपतिः।
सन्ध्यामुपास्ते तेजस्वी सम्बन्धी तव मारिष।।
5-148-19a
5-148-19b
उपासीनस्य तस्याथ कृष्णकेशं सकुण्डलम्।
सिन्धुराजस्य मूर्धानमुत्सङ्गे समपातयत्।।
5-148-20a
5-148-20b
तस्योत्सङ्गे निपतितं शिरस्तच्चारुकुण्डलम्।
वृद्धक्षत्रस्य नृपतेरलक्षितमरिन्दम।।
5-148-21a
5-148-21b
कृतजप्यस्य तस्याथ वृद्धक्षत्रस्य भारत।
प्रोत्तिष्ठतस्तत्सहसा शिरोऽगच्छद्वरातलम्।।
5-148-22a
5-148-22b
ततस्तस्य नरेन्द्रस्य पुत्रमूर्धनि भूतले।
गते तस्यापि शतधा मूर्धाऽगच्छदरिन्दम।।
5-148-23a
5-148-23b
ततः सर्वाणि सैन्यानि विस्मयं जग्मुरुत्तमम्।
वासुदेवश्च बीभत्सुं प्रशशंस महारथम्।।
5-148-24a
5-148-24b
`ततो दृष्ट्वा विनिहतं सिन्धुराजं जयद्रथम्।
कर्मणा तेन पार्थस्य विस्मिताः सर्वदेवताः।।
5-148-25a
5-148-25b
सर्वदा समरे यस्य गोप्ता नित्यं जनार्दनः।
कथं तस्य जयो न स्यादिति भूतानि मेनिरे।।
5-148-26a
5-148-26b
एतदर्थं शिरस्तस्य व्यापयामास पाण्डवः।
स्यमन्तपञ्चकाद्बाह्यं शरैरेव यथाक्रमम्।।
5-148-27a
5-148-27b
कृत्वा तच्च महत्कर्म निहत्य च जयद्रथम्।
अस्त्रं पाशुपतं पार्थः संहर्तुमुपचक्रमे।।
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5-148-28b
संहरत्यपि कौन्तेये तदस्त्रं तत्र भारत।
ववौ शीतः सुगन्धश्च पवनो ह्लादयन्निव।।
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5-148-29b
संहारं च प्रमोक्षं च दृष्ट्वा तत्र दिवौकसः।
विस्मयं परमं जग्मुः प्रशशंसुश्च पाण्डवम्।।
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5-148-30b
एवमस्त्रेण तान्वीरो योधयित्वा धनञ्जयः।
जयद्रथशिरः पश्चाद्व्यापयामास पाण्डवः।।
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5-148-31b
तच्छिरश्च्यावमानं तु ददृशुस्तावका युधि।
शल्यकर्णकृपा राजन्मोहिताः सव्यसाचिना।।
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5-148-32b
शिरसि च्याविते तस्य शरैराशीविषोपमैः।
पश्चात्कायोऽपतद्भूमिं शोचयन्सर्वपार्थिवान्।।
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5-148-33b
दृष्ट्वा तु निहतं सङ्ख्ये सिन्धुराजं महारथम्।
पुत्राणां तव नेत्रेभ्यो दुःखादास्रं प्रवर्तत'।।
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5-148-34b
ततो विनिहते राजन्सिन्धुराजे किरीटिना।
तमस्तद्वासुदेवेन संहृतं भरतर्षभ।।
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5-148-35b
पश्चाज्ज्ञातं महीपाल तव पुत्रैः सहानुगैः।
वासुदेवप्रयुक्तेयं मायेति नृपसत्तम।।
5-148-36a
5-148-36b
एवं स निहतो राजन्पार्थेनामिततेजसा।
अक्षौहिणीरष्ट हत्वा जामाता तव सैन्धवः।।
5-148-37a
5-148-37b
हतं जयद्रथं दृष्ट्वा तव पुत्रा नराधिप।
दुःखादश्रूणि मुमुचुर्निराशाश्चाभवञ्जये।।
5-148-38a
5-148-38b
ततो जयद्रथे राजन्हते पार्थेन केशवः।
दध्मौ शङ्खं महाबाहुरर्जुनश्च परन्तपः।।
5-148-39a
5-148-39b
भीमश्च वृष्णिसिंहश्च युधामन्युश्च भारत।
उत्तमौजाश्च विक्रान्तः शङ्खान्दध्मुः पृथक्पृथक्।।
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5-148-40b
श्रुत्वा महान्तं तं शब्दं धर्मराजो युधिष्ठिरः।
सैन्धनं निहतं मेने फल्गुनेन महात्मना।।
5-148-41a
5-148-41b
ततो वादित्रघोषेण स्वान्योधान्पर्यहर्षयत्।
अभ्यवर्तत सङ्ग्रामे भारद्वाजं युयुत्सया।।
5-148-42a
5-148-42b
ततः प्रववृते राजन्नस्तं गच्छति भास्करे।
द्रोणस्य सोमकैः सार्धं सङ्ग्रामो रोमहर्षणः।।
5-148-43a
5-148-43b
ते तु सर्वे प्रयत्नेन भारद्वाजं जिघांसवः।
सैन्धवे निहते राजन्नयुध्यन्त महारथाः।।
5-148-44a
5-148-44b
पाण्डवास्तु जयं लब्ध्वा सैन्धवं विनिहत्य च।
अयोधयंस्तु ते द्रोणं जयोऽन्मत्तास्ततस्ततः।।
5-148-45a
5-148-45b
अर्जुनोऽपि ततो योधांस्तावकान्रथसत्तमान्।
अयोधयन्महाबाहुर्हत्वा सैन्धवकं नृपम्।।
5-148-46a
5-148-46b
।। इति श्रीमन्महाभारते द्रोणपर्वणि जयद्रथवधपर्वणि
चतुर्दशदिसयुद्धे अष्टचत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः।। 148 ।।

5-148-* 147 तमाध्याये आदित्यं प्रेक्षमाणस्तु इत्यादि 61 तमश्लोकमारभ्य 148 तमाध्याये श्रूयतां तद्यथावृत्तं कारणं सैन्धवं प्रतीति 2 तीयश्लोकपर्यन्तं विद्यमानानां 23 विंशतिश्लोकानां स्थाने ग.घ.ङ.झ.पुस्तकेषु अधोलिखिताः 45 श्लोका दृश्यन्ते। एतस्मिन्नेव काले तु द्रुतं गच्छति भास्करे। अब्रवीत्पाण्डवं राजंस्त्वरमाणो जनार्दनः।। 1 ।। एष मध्ये कृतः षड्भिः पार्थ वीरैर्महारथैः। जीवितेप्सुर्महाबाहो भीतस्तिष्ठति सैन्धवः।। 2 ।। एताननिर्जित्य रणे षड्रथान्पुरुषर्षभ। न शक्यः शैन्धवो हन्तुं यतो निर्व्याजमर्जुन।। 3 ।। योगमत्र विधास्यामि सूर्यस्यावरणं प्रति। अस्तं गत इति व्यक्तं द्रक्ष्यत्येकः स सिन्धुराट्।। 4 ।। हर्षेण जीविताकाङ्क्षी विनाशार्थं तव प्रभो। न गोप्स्यति दुराचारः स आत्मानं कथञ्चन।। 5 ।। तत्र च्छिद्रे प्रहर्तव्यं त्वयास्त कुरुसत्तम। व्यपेक्षा नैव कर्तव्या गतोऽस्तमिति भास्करः।। 6 ।। एवमस्त्विति बीभत्सुः केशवं प्रत्यभाषत। ततोऽसृजत्तमः कृष्णः सूर्यस्यावरणं प्रति।। 7 ।। योगी योगेन संयुक्तो योगिनामीश्वरो हरिः।। 8 ।। सृष्टे तमसि कृष्णेन गतोऽस्तमिति भास्करः। त्वदीया जहृषुर्योधाः पार्थनाशान्नराधिप।। 9 ।। ते प्रहृष्टा रणे राजन्नापश्यन्सैनिका रविम्। उन्नाम्य वक्त्राणि तदा स च राजा जयद्रथः।। 10 ।। वीक्षमाणे ततस्तस्मिन्सिन्धुराजे दिवाकरम्। पुनरेवाब्रवीत्कृष्णो धनञ्जयमिदं वचः।। 11 ।। पश्य सिन्धुपतिं वीरं प्रेक्षमाणं दिवाकरम्। भयं हि विप्रमुच्यैतत्त्वत्तो भरतसत्तम।। 12 ।। अयं कालो महाबाहो वधायास्य दुरात्मनः। छिन्धि मूर्धानमस्याशु कुरु साफल्यमात्मनः।। 13 ।। इत्येवं केशवोनोक्तः पाण्डुपुत्रः प्रतापवान्। न्यवधीत्तावकं सैन्यं शरैरर्काग्निसन्निभैः।। 14 ।। कृपं विव्याध विंशत्या कर्णं पञ्चाशता शरैः। शल्यं दुर्योधनं चैव षड्भिः षड्भिरताडयत्।। 15 ।। वृषसेनं तथाष्टाभिः षष्ट्या सैन्धवमेव च। तथैव स महाबाहुस्त्वदीयान्पाण्डुनन्दनः। गाढं विद्ध्वा शरै राजञ्जयद्रथमुपाद्रवत्।। 16 ।। तं समीपस्थितं दृष्ट्वा लेलिहानमिवानलम्। जयद्रथस्य गोप्तारः संशयं परमं गताः।। 17 ततः सर्वे महाराज तव योधा जयैषिणः। सिषिचुः शरधाराभिः पाकशासनिमाहवे।। 18 सञ्छाद्यमानः कौन्तेयः शरजालैरनेकशः। अक्रुध्यत्स महाबाहुरजितः कुरुनन्दनः।। 19 ।। ततः शरमयं जालं तुमुलं पाकशासनिः। व्यसृजत्पुरुषव्याघ्रस्तव सैन्यजिघांसया।। 20 ।। ते हन्यमाना वीरणे योधा राजन्रणे तव। प्रजहुः सैन्धवं भीता द्वौ समं नाप्यधावताम्।। 21 ।। तत्राद्भुतमपश्याम कुन्तीपुत्रस्य विक्रमम्। तादृङ्ग भावी भूतो वा यच्चकार महायशाः।। 22 ।। द्विपान्द्विपगतांश्चैव हयान्हयगतानपि। तथा स रथिनश्चैव न्यहन्रुद्रः पशूनिव।। 23 ।। न तत्र समरे कश्चिन्मया दृष्टो नराधिप। गजो वाजी नरो वापि यो न पार्थशराहतः।। 24 ।। रजसा तमसा चैव योधाः सञ्छन्नचक्षुषः। कश्मलं प्राविशन्घोरं नान्वजानन्परस्परम्।। 25 ।। ते शरैर्भिन्नमर्माणः सैनिकाः पार्थचोदितैः। वभ्रमुश्चस्खलुः पेतुः सेदुर्मम्लुश्च भारत।। 26 ।। तस्मिंन्महाभीषणके प्रजानामिव सङ्क्षये। रणे महति दुष्पारे वर्तमाने सुदारुणे।। 27 ।। शोणितस्य प्रसेकेन शीघ्रत्वादनिलस्य च। अशाम्यत्तद्रजो भौममसृक्सिक्ते धरातले।। 28 ।। आनाभि निरमज्जंश्च रथचक्राणि शोणिते। मत्ता वेगवता राजंस्तावकानां रणाङ्गणे।। 29 ।। हस्तिनश्च हतारोहा दारिताङ्गाः सहस्रशः। स्वान्यनीकानि मृद्गन्त आर्तनादाः प्रदुद्रुवुः।। 30 ।। हयाश्च पतितारोहाः पत्तयश्च नराधिप। प्रदुद्रुवुर्भयाद्राजन्धनञ्जयशराहताः।। 31 ।। मुक्तकेशा विकवचाः क्षरन्तः क्षतजं क्षतैः। प्रापलायन्त सन्त्रस्तास्त्यक्त्वा रणशिरो जनाः।। 32 ।। ऊरुग्राहगृहीताश्च केचित्तत्राभवन्भूवि। हतानां चापरे मध्ये द्विरदानां निलिल्यिरे।। 33 ।। एवं तव बलं राजन्द्रावयित्वा धनञ्जयः। न्यवधीत्सायकैर्घोरैः सिन्धुराजस्य रक्षिणः।। 34 ।। द्रौणिं कृपं कर्णशल्यौ वृषसेनं सुयोधनम्। छादयामास तीव्रेण शरजालेन पाण्डवः।। 35 ।। न गृह्णन्नक्षिपरन्राजन्मुञ्चन्नापि च सन्दधत्। अदृश्यतार्जुनः सङ्ख्ये शीघ्रास्त्रत्वात्कथञ्चन।। 36 ।। धनुर्मण्डलमेवास्य दृश्यते स्मास्यतः सदा। सायकाश्च व्यदृश्यन्त निश्चरन्तः समन्ततः।। 37 ।। कर्णस्य तु धनुश्छित्त्वा वृषसेनस्य चैव ह। शल्यस्य सूतं भल्लेन रथनीडादपातयत्।। 38 ।। गाढविद्धावुभौ कृत्वा शरैः स्वस्रीयमातुलौ। अर्जुनो जयतां श्रेष्ठो द्रौणिशारद्वतौ रणे।। 39 ।। एवं तान्व्याकुलीकृत्य त्वदीयानां महारथान्। उज्जहार शरं घोरं पाण्डवोऽनलसन्निभम्।। 40 ।। इन्द्राशनिसमप्रख्यं दिव्यमस्त्राभिमन्त्रितम्। सर्वभारसहं शश्वद्ग्रन्धमाल्यार्चितं महत्।। 41 ।। वज्रेणास्त्रेण संयोज्य विधिवत्कुरुनन्दनः। समादधन्महाबाहुर्गाण्डीवे क्षिप्रमर्जुनः।। 42 ।। तस्मिन्सन्धीयमाने तु शरे ज्वलनतेजसि। अन्तरिक्षे महानादो भूतानामभवन्नृप।। 43 ।। अब्रवीच्च पुनस्तत्र त्वरमाणो जनार्दनः। धनञ्जय शिरश्छिन्धि सैन्धवस्य दुरात्मनः।। 44 ।। अस्तं महीधरश्रेष्ठं यियासति दिवाकरः। शृणुष्वैतच्च वाक्यं मे जयद्रथवधं पर्ति।। 45 ।।

द्रोणपर्व-147 पुटाग्रे अल्लिखितम्। द्रोणपर्व-149