महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-076
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अर्जुनेन श्रीकृष्णम्प्रति स्वसामर्थ्यकथनम्।। 1 ।।
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अर्जुन उवाच। | 5-76-1x |
षड्रथान्धार्तराष्ट्रस्य मन्यसे यान्बलाधिकान्। तेषां वीर्यं ममार्धेन न तुल्यमिति मे मतिः।। | 5-76-1a 5-76-1b |
अस्त्रमस्त्रेण सर्वेषामेतेषां मधुसूदन। मया द्रक्ष्यसि निर्भिन्नं जयद्रथवधैषिणा।। | 5-76-2a 5-76-2b |
द्रोणस्य मिषतश्चाहं सगणस्य विपश्चितः। मूर्धानं सिन्धुराजस्य पातयिष्यामि भूतले।। | 5-76-3a 5-76-3b |
यदि साध्याश्च रुद्राश्च वसवश्च सहाश्विनः। मरुतश्च सहेन्द्रेण विश्वेदेवाः सहेश्वराः।। | 5-76-4a 5-76-4b |
पितरः सहगन्धर्वाः सुपर्णाः सागराद्रयः। द्यौर्वियत्पृथिवी चेयं दिशश्च सदिगीश्वराः।। | 5-76-5a 5-76-5b |
ग्राम्यारण्यानि भूतानि स्थावराणि चराणि च। त्रातारः सिन्धुराजस्य भवन्ति मधुसूदन।। | 5-76-6a 5-76-6b |
तथापि बाणैर्निहतं श्वो द्रष्टासि रणे मया। सत्येन च शपे कृष्ण तथैवायुधमालभे।। | 5-76-7a 5-76-7b |
यस्य गोप्ता महेष्वासो द्रोणः पापस्य दुर्मतेः। तमेव प्रथमं द्रोणमभियास्यामि केशव।। | 5-76-8a 5-76-8b |
तस्मिन्युद्धमिदं बद्धं मन्यते स सुयोधनः। तस्मात्तस्यैव सेनाग्रं भित्त्वा यास्यामि सैन्धवम्।। | 5-76-9a 5-76-9b |
द्रष्टासि श्वो महेष्वासान्नाराचैस्तिग्मतेजितैः। शृङ्गाणीव गिरेर्वज्रैर्दार्यमाणान्मया युधि।। | 5-76-10a 5-76-10b |
नरनागाश्वदेहेभ्यो विस्रविष्यति शोणितम्। पतद्ध्यः पतितेभ्यश्च विभिन्नेभ्यः शितैः शरैः।। | 5-76-11a 5-76-11b |
गाण्डीवप्रेषिता बाणा मनोऽनिलसमा जवे। नृनागाश्वान्विदेहासून्कर्तारश्च सहस्रशः।। | 5-76-12a 5-76-12b |
शक्राद्भीष्मात्कृपाद्द्रोणाद्देवाद्रुद्राच्च यन्मया। उपात्तमस्त्रं घोरं तद्दष्टारोऽत्र नरा युधि।। | 5-76-13a 5-76-13b |
ब्राह्मेणास्त्रेण चास्त्राणि हन्यमानानि संयुगे। मया द्रष्टाऽसि सर्वेषां सैन्धवस्याभिरक्षिणाम्।। | 5-76-14a 5-76-14b |
शरवेगसमुत्कृत्तै राज्ञां केशव मूर्धभिः। आस्तीर्यमाणां पृथिवीं द्रष्टाऽसि श्वो मया युधि।। | 5-76-15a 5-76-15b |
क्रव्यादांस्तर्पयिष्यामि द्रावयिष्यामि शात्रवान्। सुहृदो नन्दयिष्यामि प्रमथिष्यामि सैन्धवम्।। | 5-76-16a 5-76-16b |
बह्वागस्कृत्कुसंबन्धी पापदेशसमुद्भवः। मया सैन्धवको राजा हतः स्वाञ्शोचयिष्यति।। | 5-76-17a 5-76-17b |
सर्वे क्षीरान्नभोक्तारः पापाचारा रणाजिरे। मया सराजका बाणैर्हता नश्यन्ति सैन्धवाः।। | 5-76-18a 5-76-18b |
तथा प्रभाते कर्ताऽस्मि यथा कृष्ण सुयोधनः। नान्यं धनुर्धरं लोके मंस्यते मत्समं युधि।। | 5-76-19a 5-76-19b |
`गाण्डीवं च धनुर्दिव्यं योद्धारं च धनञ्जम्। यन्तारं च हृषीकेशं कोऽतिवर्तेत संयुगे'।। | 5-76-20a 5-76-20b |
तव प्रसादाद्भगवन्किंनावाप्तं रणे मम। अविषह्यं हृषीकेश किं जानन्मां विगर्हसे।। | 5-76-21a 5-76-21b |
यथा लक्ष्म स्थिरं चन्द्रे समुद्रे च यथा जलम्। एवमेतां प्रतिज्ञां मे सत्यां विद्धि जनार्दन।। | 5-76-22a 5-76-22b |
मावमंस्था ममास्त्राणि मावमंस्थाश्च गाण्डिवम्। मावमंस्था बलं बाह्वोर्मावमंस्था धनञ्जयम्।। | 5-76-23a 5-76-23b |
गाण्डीवं च धनुर्दिव्यं योद्धा चाहं नरर्षभ। त्वं च यन्ता हृषीकेश किन्नु स्यादजितं मया।। | 5-76-24a 5-76-24b |
यथाभियाय सङ्ग्रमं न जितो वै जयामि च। तेन सत्येन सङ्ग्रामे हतं विद्धि जयद्रथम्।। | 5-76-25a 5-76-25b |
`त्वं च माधव सर्वं तत्तथा प्रतिविधास्यसि। यथा रिपूणां मिषतां प्रमथिष्यामि सैन्धवम्'।। | 5-76-26a 5-76-26b |
ध्रुवं वै ब्राह्मणे सत्यं ध्रुवा साधुषु सन्नतिः। श्रीर्ध्रुवाऽपि च दक्षेषु ध्रुवो नारायणे जयः।। | 5-76-27a 5-76-27b |
सञ्जय उवाच। | 5-76-28x |
एवमुक्त्वा हृषीकेशं स्वयमात्मानमात्मना। सन्दिदेशार्जुनो नर्दन्वासविः केशवं प्रभुम्।। | 5-76-28a 5-76-28b |
यथा प्रभातां रजनीं कल्पितः स्याद्रथोत्तमः। तथा कार्यं त्वया कृष्ण प्रतिज्ञा स्याद्यथा ध्रुवा।। | 5-76-29a 5-76-29b |
।। इति श्रीमन्महाभारते द्रोणपर्वणि प्रतिज्ञापर्वणि षट्सप्ततितमोऽध्यायः।। 76 ।। |
5-76-9 तस्मिन् द्रोणे। युद्धं बद्धमिव बद्धं एकान्तजयेन स्थिरीकृतम् ।। 5-76-76 षट्सप्ततितमोऽध्यायः।।
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