महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-168
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कर्णेन सहदेवस्य पराजयपूर्वकमवहेलनम्।। 1 ।। शल्येन विराटपराजयः।। 2 ।। अर्जुनेनालायुधपराजयः।। 3 ।।
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सञ्जय उवाच। | 5-168-1x |
सहदेवमथायान्तं द्रोणप्रेप्तुं विशाम्पते। कर्णो वैकर्तनो युद्धे वारयामास भारत।। | 5-168-1a 5-168-1b |
सहदेवस्तु राधेयं विद्ध्वा नवभिराशुगैः। पुनर्विव्याध दशभिर्विशिखैर्नतपर्वभिः।। | 5-168-2a 5-168-2b |
तं कर्णः प्रतिविव्याध शतेन नतपर्वणाम्। सज्यं चास्य धनुः शीघ्रं चिच्छेद लघुहस्तवत्।। | 5-168-3a 5-168-3b |
ततोऽन्यद्धनुरादाय माद्रीपुत्रः प्रतापवान। कर्णं विव्याध विंशत्या तदद्भुतमिवाभवत्।। | 5-168-4a 5-168-4b |
तस्य कर्णो हयान्हत्वा शरैः सन्नतपर्वभिः। सारथिं चास्य भल्लेन द्रुतं निन्ये यमक्षयम्।। | 5-168-5a 5-168-5b |
विरथः सहदेवस्तु खङ्गं चर्म समाददे। तदप्यस्य शरैः कर्णो व्यधमत्प्रहसन्निव।। | 5-168-6a 5-168-6b |
अथ गुर्वीं महाघोरां हेमचित्रां महागदाम्। प्रेषयामास सङ्क्रुद्धो वैकर्तनरथं प्रति।। | 5-168-7a 5-168-7b |
तामापतन्तीं सहसा सहदेवप्रचोदिताम्। व्यष्टम्भयच्छरैः कर्णो भूमौ चैनामपातयत्।। | 5-168-8a 5-168-8b |
गदां विनिहतां दृष्ट्वा सहदेवस्त्वरान्वितः। शक्तिं चिक्षेप कर्णाय तामप्यस्याच्छिनच्छरैः।। | 5-168-9a 5-168-9b |
ससम्भ्रमं ततस्तूर्णमवप्लुत्य रथोत्तमात्। सहदेवो महाराज दृष्ट्वा कर्णं व्यवस्थितम्।। | 5-168-10a 5-168-10b |
रथचक्रं प्रगृह्याजौ मुमोचाधिरथं प्रति। तदापतद्वै सहसा कालचक्रमिवोद्यतम्। शरैरनेकसाहस्रैराच्छिनत्सूतनन्दनः।। | 5-168-11a 5-168-11b 5-168-11c |
तस्मिंस्तु निहते चक्रे सूतजेन महात्मना। ईषादण्डकयोक्रांश्च युगानि विविधानि च।। | 5-168-12a 5-168-12b |
हस्त्यङ्गानि तथाश्वांश्च मृतांश्च पुरुषान्बहून्। चिक्षेप कर्णमुद्दिश्य कर्णस्तान्व्यधमच्छरैः।। | 5-168-13a 5-168-13b |
स निरायुधमात्मानं ज्ञात्वा माद्रवतीसुतः। वार्यमाणस्तु विशिखैः सहदेवो रणं जहौ।। | 5-168-14a 5-168-14b |
तमभिद्रुत्य राधेयो मुहूर्ताद्भरतर्षभ। अब्रवीत्प्रहसन्वाक्यं सहदेवं विशाम्पते।। | 5-168-15a 5-168-15b |
मा युध्यस्व रणेऽधीर विशिष्टै रथिभिः सह। | 5-168-16a |
सदृशैर्युध्य माद्रेय वचो मे मा विशङ्किथाः।। अथैनं धनुषोग्रेण तुदन्भूयोऽब्रवीद्वचः।। | 5-168-17a 5-168-17b |
एषोऽर्जुनो रणे तूर्णं युध्यते कुरुभिः सह। तत्र गच्छस्व माद्रेय गृहं वा यदि मन्यसे।। | 5-168-18a 5-168-18b |
एवमुक्त्वा तु तं कर्णो रथेन रथिनां वरः। प्रायात्पाञ्चालपाण्डूनां सैन्यानि प्रदहन्निव।। | 5-168-19a 5-168-19b |
वधं प्राप्तं तु माद्रेयं नावधीत्समरेऽरिहा। कुन्त्याःस्मृत्वा वचो राजन्सत्यसन्धो महायशाः।। | 5-168-20a 5-168-20b |
सहदेवस्ततो राजन्विमनाः शरपीडितः। कर्णवाक्शरतप्तश्च जीवितान्निरविद्यत।। | 5-168-21a 5-168-21b |
आरुरोह रथं चापि पाञ्चाल्यस्य महात्मनः। जनमेजयस्य समरे त्वरायुक्तो महारथः।। | 5-168-22a 5-168-22b |
विराटं सहसेनं तु द्रोणार्थे द्रुतमागतम्। मद्रराजः शरौघेण च्छादयामास धन्विनम्।। | 5-168-23a 5-168-23b |
तयोः समभवद्युद्धं समरे दृढधन्विनोः। यादृशं ह्यभवद्राजञ्जम्भवासवयोः पुरा।। | 5-168-24a 5-168-24b |
मद्रराजो महाराज विराटं वाहिनीपतिम्। आजघ्ने त्वरितस्तूर्णं शतेन नतपर्वणाम्।। | 5-168-25a 5-168-25b |
प्रतिविव्याध तं राजन्नवभिर्निशितै शरैः। पुनश्चैनं त्रिसप्तत्या भूयश्चैव शतेन तु।। | 5-168-26a 5-168-26b |
तस्य मद्राधिपो हत्वा चतुरो रथवाजिनः। सूतं ध्वजं च समरे शराभ्यां सन्न्यपातयत्।। | 5-168-27a 5-168-27b |
हताश्वात्तुं रथात्तूर्णमवप्लुत्य महारथः। तस्थौ विष्फारयंश्चापं विमुञ्चंश्च शिताञ्छरान्।। | 5-168-28a 5-168-28b |
शतानीकस्ततो दृष्ट्वा भ्रातरं हतवाहनम्। रथेनाभ्यपतत्तूर्णं सर्वलोकस्य पश्यतः।। | 5-168-29a 5-168-29b |
शतानीकमथायान्तं मद्राराजो महामृधे। विशिखैर्बहुभिर्विद्ध्वा ततो निन्ये यमक्षयम्।। | 5-168-30a 5-168-30b |
तस्मिंस्तु निहते वीरे विराटो रथसत्तमः। आरुरोह रथं तूर्णं तमेव ध्वजमालिनम्।। | 5-168-31a 5-168-31b |
ततो विष्फार्य नयने क्रोधाद्द्विगुणविक्रमः। मद्रराजरथं तूर्णं छादयामास पत्रिभिः।। | 5-168-32a 5-168-32b |
ततो मद्राधिपः क्रुद्धः शरेणानतपर्वणा। आजघानोरसि दृढं विराटं वाहिनीपतिम्।। | 5-168-33a 5-168-33b |
सोऽतिविद्धो महाराज रथोपस्थ उपाविशत्। कश्मलं चाविशत्तीव्रं विराटो भरतर्षभ। सारथिस्तमपोवाह समरे शरविक्षतम्।। | 5-168-34a 5-168-34b 5-168-34c |
ततः सा महती सेना प्राद्रवन्निशि भारत। वध्यमाना शरशतैः शल्येनाहवशोभिना।। | 5-168-35a 5-168-35b |
तां दृष्ट्वा विद्रुतां सेनां वासुदेवधनञ्जयौ। प्रयातौ तत्र राजेन्द्र यत्र शल्यो व्यवस्थितः।। | 5-168-36a 5-168-36b |
तौ तु प्रत्युद्ययौ राजन्राक्षसेन्द्रो ह्यलायुधः। अष्टचक्रसमायुक्तमास्थाय प्रवरं रथम्।। | 5-168-37a 5-168-37b |
तुरङ्गममुखैर्युक्तं पिशाचैर्घोरदर्शनैः। लोहितार्द्रपताकं तं रक्तमाल्यविभूषितम्। कार्ष्णायसमयं घोरमृक्षचर्मसमावृतम्।। | 5-168-38a 5-168-38b 5-168-38c |
रौद्रेण चित्रपक्षेण विवृताक्षेण कूजता। ध्वजेनोच्छ्रितदण्डेन गृध्रराजेन राजता। स बभौ राक्षसो राजन्भिन्नाञ्जनचयोपमः।। | 5-168-39a 5-168-39b 5-168-39c |
रुरोधार्जुनमायान्तं प्रभञ्जनमिवाद्रिराट्। किरन्बाणगणान्राजञ्शतशोऽर्जुनमूर्धनि।। | 5-168-40a 5-168-40b |
अतितीव्रं महाद्युद्धं नरराक्षसयोस्तदा। द्रष्टॄणां प्रीतिजननं सर्वेषां तत्र भारत। गृध्रकाकबलोलूककङ्कगोमायुहर्षणम्।। | 5-168-41a 5-168-41b 5-168-41c |
तमर्जुनः शतेनैव पत्रिणां समताडयत्। नवभिश्च शितैर्बाणैर्ध्वजं चिच्छेद भारत।। | 5-168-42a 5-168-42b |
सारथिं च त्रिभिर्बाणैस्त्रिभिरेव त्रिवेणुकम्। धनुरेकेन चिच्छेद चतुर्भिश्चतुरो हयान्।। | 5-168-43a 5-168-43b |
पुनः सज्यं कृतं चापं तदप्यस्य द्विधाऽच्छिनत्। विरथस्योद्यतं खङ्गं शरेणास्य द्विधाऽकरोत्।। | 5-168-44a 5-168-44b |
अथैनं निशितैर्बाणैश्चतुर्भिर्भरतर्षभ। पार्थोऽविध्यद्राक्षसेन्द्रं स विद्वः प्राद्रवद्भयात्।। | 5-168-45a 5-168-45b |
तं विजित्यार्जुनस्तूर्णं द्रोणान्तिकमुपाययौ। किऱञ्शरगणान्राजन्नरवारणवाजिषु।। | 5-168-46a 5-168-46b |
वध्यमाना महाराज पाण्डवेन यशस्विना। सैनिका न्यपतन्नुर्व्यां वातनुन्ना इव द्रुमाः।। | 5-168-47a 5-168-47b |
तेषु तूत्साद्यमानेषु फल्गुनेन महात्मना। सम्प्राद्रवद्बलं सर्वं पुत्राणां ते विशाम्पते।। | 5-168-48a 5-168-48b |
।। इति श्रीमन्महाभारते द्रोणपर्वणि घटोत्कचवधपर्वणि चतुर्दशरात्रियुद्धे अष्टषष्ट्यधिकशततमोऽध्यायः।। 168 ।। |
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