महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-184
← द्रोणपर्व-183 | महाभारतम् सप्तमपर्व महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-184 वेदव्यासः |
द्रोणपर्व-185 → |
कर्णशक्तेर्घटोत्कचवधेन वैफल्याद्धृतराष्ट्रेण शोचनम्।। 1 ।। युधिष्ठिरेण कृष्णे घटोत्कचकृतोपकारनिवेदनपूर्वकं शोचन।। 2 ।। व्यासेन क्रोधात्कर्णजिघांसया गच्छन्तं युधिष्ठिरमेत्य समाश्वासनेन तं निवर्त्य पुनरन्तर्धानम्।। 3 ।।
|
धृतराष्ट्र उवाच। | 5-184-1x |
कर्णदुर्योधनादीनां शकुनेः सौबलस्य च। अपनीतं महत्तात तव चैव विशेषतः।। | 5-184-1a 5-184-1b |
यदि जानीथ तां शक्तिमेकघ्नीं सततं रणे। अनिवार्यामसह्यां च देवैरपि सवासवैः।। | 5-184-2a 5-184-2b |
सा किमर्थं तु कर्णेन प्रवृत्ते समरे पुरा। न देवकीसुते मुक्ता फल्गुने वाऽपि सञ्जय।। | 5-184-3a 5-184-3b |
सञ्जय उवाच। | 5-184-4x |
सङ्ग्रामाद्विनिवृत्तानां सर्वेषां नो विशाम्पते। रात्रौ कुरुकुलश्रेष्ठ मन्त्रोऽयं समजायत।। | 5-184-4a 5-184-4b |
प्रभातमात्रे श्वोभूते केशवायार्जुनाय वा। शक्तिरेषा हि मोक्तव्या कर्णकर्णेनि नित्यशः।। | 5-184-5a 5-184-5b |
ततः प्रभातसमये राजन्कर्णस्य दैवतैः। अन्येषां चैव योधानां सा बुद्धिर्नाश्यते पुनः।। | 5-184-6a 5-184-6b |
दैवमेव परं मन्ये यत्कर्णो हस्तसंस्थया। न जघान रणे पार्थं कृष्णं वा देवकीसुतम्।। | 5-184-7a 5-184-7b |
तस्य हस्तस्थिता शक्तिः कालरात्रिरिवोद्यता। दैवोपहतबुद्धित्वान्न तां कर्णो विमुक्तवान्।। | 5-184-8a 5-184-8b |
कृष्णे वा देवकीपुत्रे मोहितो देवमायया। पार्थे वा शक्रकल्पे वै वधार्थं वासवीं प्रभो।। | 5-184-9a 5-184-9b |
धृतराष्ट्र उवाच। | 5-184-10x |
दैवेनोपहता यूयं स्वबुद्ध्या केशवस्य च। गता हि वासवी हत्वा तृणभूतं घटोत्कचम्।। | 5-184-10a 5-184-10b |
कर्णश्च मम पुत्राश्च सर्वे चान्ये च पार्थिवाः। तेन वै दुष्प्रणीतेन गता वैवस्वतक्षयम्।। | 5-184-11a 5-184-11b |
भूय एव तु मे शंस यथा युद्धमवर्तत। कृरूणां पाण्डवानां च हैडिम्बौ निहते तदा।। | 5-184-12a 5-184-12b |
ये च तेऽभ्यद्रवन्द्रोणं व्यूढानीकाः प्रहारिणः। सृञ्जयाः सह पाञ्चालैस्तेऽप्यकुर्वन्कथं रणम्।। | 5-184-13a 5-184-13b |
सौमदत्तेर्वधाद्द्रोणमायान्तं सैन्धवस्य च। अमर्षाज्जीवितं त्यक्त्वा गाहमानं वरूथिनीम्।। | 5-184-14a 5-184-14b |
जृम्भमाणमिव व्याघ्रं व्यात्ताननमिवान्तकम्। कथं प्रत्युद्ययुर्द्रोणमस्यन्तं पाण्डुसृञ्जयाः।। | 5-184-15a 5-184-15b |
आचार्यं ये च तेऽरक्षन्दुर्योधनपुरोगमाः। द्रौणिकर्णकृपास्तात ते वाऽकुर्वन्किमाहवे।। | 5-184-16a 5-184-16b |
भारद्वाजं जिघांसन्तौ सव्यसाचिवृकीदरौ। समार्च्छन्मामका युद्धे कथं सञ्जय शंस मे।। | 5-184-17a 5-184-17b |
सिन्धुराजवधेनेमे घटोत्कचवधेन ते। अमर्पिताः सुसङ्क्रुद्धा रणं चक्रुः कथं निशि।। | 5-184-18a 5-184-18b |
सञ्जय उवाच। | 5-184-19x |
हते घटोत्कचे राजन्कर्णेन निशि राक्षसे। प्रणदत्सु च हृष्टेषु तावकेषु युयुत्सुषु।। | 5-184-19a 5-184-19b |
आपतत्सु च वेगेन वध्यमाने बलेऽपि च। विगाढायां रजन्यां च राजा दैन्यं परं गतः।। | 5-184-20a 5-184-20b |
अब्रवीच्च महाबाहुर्भीमसेनमिदं वचः। आवारय महाबाहो धार्तराष्ट्रस्य वाहिनीम्।। | 5-184-21a 5-184-21b |
हैडिम्बेश्चैव घातेन मोहो मामाविशन्महान्। एवं भीमं समादिश्य स्वरथे समुपाविशत्।। | 5-184-22a 5-184-22b |
अश्रुपूर्णमुखो राजा निःश्वसंश्च पुनःपुनः। कश्मलं प्राविशद्धोरं दृष्ट्वा कर्णस्य विक्रमम्।। | 5-184-23a 5-184-23b |
तं तथा व्यथितं दृष्ट्वा कृष्णो वचनमब्रवीत्।। | 5-184-24a |
मा व्यथां कुरु कौन्तेय नैतत्त्वय्युपपद्यते। वैक्लव्यं भरतश्रेष्ठ यथा प्राकृतपूरुषे।। | 5-184-25a 5-184-25b |
उत्तिष्ठ राजन्युध्वस्व वह गुर्वीं धुरं विभो। त्वयि वैक्लव्यमापन्ने संशयो विजये भवेत्।। | 5-184-26a 5-184-26b |
श्रुत्वा कृष्णस्य वचनं धर्मराजो युधिष्ठिरः। विमृज्य नेत्रे पाणिभ्यां कृष्णं वचनमब्रवीत्।। | 5-184-27a 5-184-27b |
विदिता मे महाबाहो धर्माणां परमा गतिः। ब्रह्महत्याफलं तस्य यः कृतं नावबुध्यते।। | 5-184-28a 5-184-28b |
अस्माकं हि वनस्थानां हैडिम्बेन महात्सना। बालेनापि सता तेन कृतं साह्यं जनार्दन।। | 5-184-29a 5-184-29b |
अस्त्रहेतोर्गतं ज्ञात्वा पाण्डवं स्वेतवाहनम्। असौ कृष्ण महेष्वासः काम्यके मामुपस्थितः।। | 5-184-30a 5-184-30b |
उषितश्च सहास्माभिर्यावन्नासीद्धनञ्जयः। गन्धमादनयात्रायां दुर्गेभ्यश्च स्म तारिताः। पाञ्चाली च परिश्रान्ता पृष्ठेनोढा महात्मना।। | 5-184-31a 5-184-31b 5-184-31c |
आरम्भांश्चैव युद्धानां यदेष कृतवान्प्रभो। मदर्थे दुष्करं कर्म कृतं तेन महाहवे।। | 5-184-32a 5-184-32b |
स्वभावाद्या च मे प्रीतिः सहदेवे जनार्दन। सैव मे द्विगुणा प्रीती राक्षसेन्द्रे घटोत्कचे।। | 5-184-33a 5-184-33b |
भक्तश्च मेहाबाहुः प्रियोऽस्याहं प्रियश्च मे। तेन विन्दामि वार्ष्णेय कश्मलं शोकतापिताः।। | 5-184-34a 5-184-34b |
पश्य सैन्यानि वार्ष्णेय द्राव्यमाणानि कौरवैः। द्रोणकर्णौ तु संयत्तौ पश्य युद्धे महारथौ।। | 5-184-35a 5-184-35b |
निशीथे पाण्डवं सैन्यमाभ्यां माधव मर्दितम्। गजाभ्यामिव मत्ताभ्यां यथा नलवनं महत्।। | 5-184-36a 5-184-36b |
अनादृत्य बलं बाह्वोर्भीमसेनस्य माधव। चित्रास्त्रतां च पार्थस्य विक्रमन्ते च कौरवाः।। | 5-184-37a 5-184-37b |
एष द्रोणश्च कर्णश्च राजा चैव सुयोधनः। निहत्य राक्षसं युद्धे हृष्टा नर्दन्ति संयुगे।। | 5-184-38a 5-184-38b |
कथं वाऽसमासु जीवत्सु त्वयि चैव जनार्दन। हैडिम्बिः प्राप्तवान्मृत्यं सूतपुत्रेण सङ्गतः।। | 5-184-39a 5-184-39b |
कदर्थीकृत्य नः सर्वान्पश्यतः सव्यसाचिनः। निहतो राक्षसः कृष्ण भैमसेनिर्महाबलः।। | 5-184-40a 5-184-40b |
यदाऽभिमन्युर्निहतो धार्तराष्ट्रैर्दुरात्मभिः। नासीत्तत्र रणे कृष्ण सव्यसाची महारथः।। | 5-184-41a 5-184-41b |
निरुद्वाश्च वयं सर्वे सैन्धवेन दुरात्मना। निमित्तमभवद्द्रोणः सपुत्रस्तत्र कर्मणि।। | 5-184-42a 5-184-42b |
उपदिष्टो वधोपायः कर्णस्य गुरुणा स्वयम्। व्यायच्छतश्च खङ्गेन द्विधा खङ्गं चकार ह।। | 5-184-43a 5-184-43b |
व्यसने वर्तमानस्य कृतवर्मा नृशंसवत्। अश्वाञ्जघान सहसा तथोभौ पार्ष्णिसारथी। तथेतरे महेष्वासाः सौभद्रं युध्यपातयन्।। | 5-184-44a 5-184-44b 5-184-44c |
अल्पे च कारणे कृष्ण हतो गाण्डीवधन्वना। सैन्धवो यादवश्रेष्ठ तच्च नातिप्रियं मम।। | 5-184-45a 5-184-45b |
यदि शत्रुवधो न्याय्यो भवेत्कर्तुं हि पाण्डवैः। कर्णद्रोणौ रणे पूर्वं हन्तव्याविति मे मतिः।। | 5-184-46a 5-184-46b |
एतौ हि मूलं दुःखानामस्माकं पुरुषर्षभ। एतौ रणे समासाद्य समाश्वस्तः सुयोधनः।। | 5-184-47a 5-184-47b |
यत्र वध्यो भवेद्द्रोणः सूतपुत्रश्च सानुगः। तत्रावधीन्महाबाहुः सैन्धवं दूरवासिनम्।। | 5-184-48a 5-184-48b |
अवश्यं तु मया कार्यः सूतपुत्रस्य निग्रहः। ततो यास्याम्यहं वीर स्वयं कर्णजिघांसया।। | 5-184-49a 5-184-49b |
भीमसेनो महाबाहुर्द्रोणानीकेन सङ्गतः।। | 5-184-50a |
एवमुक्त्वा ययौ तूर्णं त्वरमाणो युधिष्ठिरः। स विष्फार्य महच्चापं शङ्खं प्रध्माप्य भैरवम्।। | 5-184-51a 5-184-51b |
ततो रथसहस्रेण गजानां च शतैस्त्रिभिः। वाजिभिः पञ्चसाहस्रैः पाञ्चालैः सप्रभद्रकैः। वृतः शिखण्डी तवरितो राजानं पृष्ठतोऽन्वयात्।। | 5-184-52a 5-184-52b 5-184-52c |
ततो भेरीः समाजघ्नुः पणवानकगोमुखान्। शह्खशब्दरवांश्चैव पाणिशब्दांश्च दंशिताः। पाञ्चालाः पाण्डवाश्चैव युधिष्ठिरपुरोगमाः।। | 5-184-53a 5-184-53b 5-184-53c |
ततोऽब्रवीन्महाबाहुर्वासुदेवो धनञ्जयम्।। | 5-184-54a |
एष प्रयाति त्वरितः क्रोधाविष्टो युधिष्ठिरः। जिघांसुः सूतपुत्रस्य तस्योपेक्षा न युज्यते।। | 5-184-55a 5-184-55b |
एवमुक्त्वा हृषीकेशः शीघ्रमश्वानचोदयत्। दूरं प्रयान्तं राजानमन्वगच्छज्जनार्दनः।। | 5-184-56a 5-184-56b |
तं दृष्ट्वा सहसा यान्तं भूतपुत्रजिघांसया। शोकोपहतसङ्कल्पं दह्यमानमिवाग्निना। अभिगम्याब्रवीद्व्यासो धर्मपुत्रं युधिष्ठिरम्।। | 5-184-57a 5-184-57b 5-184-57c |
व्यास उवाच। | 5-184-58x |
कर्णमासाद्य सङ्ग्रामे दिष्ट्या जीवति फल्गुनः।। | 5-184-58a |
सव्यसाचिवधाकाङ्क्षी शक्तिं रक्षितवान्हि सः। न चागाद्द्वैरथं जिष्णुर्दिष्ट्या तेन महारणे।। | 5-184-59a 5-184-59b |
सृजेतां स्पर्धिनावेतौ दिव्यान्यस्त्राणि सर्वशः। वध्मानेषु चास्त्रेषु पीडितः सूतनन्दनः।। | 5-184-60a 5-184-60b |
वासवीं समरे शक्तिं ध्रुवं मुञ्चेद्युधिष्ठिर। ततो भवेत्ते व्यसनं घोरं भरतसत्तम।। | 5-184-61a 5-184-61b |
दिष्ट्या रक्षो हतं युद्धे सूतपुत्रेण मानद। वासवीं कारणं कृत्वा कालेनोपहतो ह्यसौ।। | 5-184-62a 5-184-62b |
तवैव कारणाद्रक्षो निहतं तात संयुगे। मा क्रुधो भरतश्रेष्ठ मा च शोके मनः कृथाः।। | 5-184-63a 5-184-63b |
प्राणिनामिह सर्वेषामेषा निष्ठा युधिष्ठिर। भ्रातृभिः सहितः सर्वैः पार्थिवैश्च महात्मभिः।। | 5-184-64a 5-184-64b |
कौरवान्समरे राजन्प्रतियुध्यस्व भारत। पञ्चमे दिवसे तात पृथिवी ते भविष्यति।। | 5-184-65a 5-184-65b |
नित्यं च पुरुषव्याघ्र धर्ममेवानुचिन्तय। आनृशंस्यं तपो दानं क्षमां सत्यं च पाण्डव।। | 5-184-66a 5-184-66b |
सेवेथाः परमप्रीतो यतो धर्मस्ततो जयः। इत्युक्त्वा पाण्डवं व्यासस्तत्रैवान्तरधीयत।। | 5-184-67a 5-184-67b |
।। इति श्रीमन्महाभारते द्रोणपर्वणि घटोत्कचवधपर्वणि चतुर्दशरात्रियुद्धे चतुरशीत्यधिकशततमोऽध्यायः।। 184 ।। |
5-184-1 महत् जयालम्बनममोघशक्तिरूपमिति शेषः। अपनीतं ना शितम्। महदपनीतं अन्याय इति वा।। 5-184-11 दुष्प्रणीतेन दुर्न येन।। 5-184-32 अभिज्ञश्चैवेति झ. पाठः।। 5-184-184 चतुरशीत्यधिकशततमोध्यायः।।
द्रोणपर्व-183 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | द्रोणपर्व-185 |