महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-150
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युधिष्ठिरेण स्वाभिवादकानां कृष्णभीमार्जुनसात्यकीनामालिङ्गनादिना सत्कारः।। 1 ।। कृष्णयुधिष्ठिरयोः संलापः।। 2 ।।
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सञ्जय उवाच। | 5-150-1x |
ततो राजानमभ्येत्य धर्मपुत्रं युधिष्ठिरम्। ववन्दे सम्प्रहृष्टात्मा हते पार्थेन सैन्धवे।। | 5-150-1a 5-150-1b |
दिष्ट्या वर्धसि राजेन्द्र हतशत्रुर्नरोत्तम। दिष्ट्या निस्तीर्णवांशैव प्रतिज्ञामनुजस्तव।। | 5-150-2a 5-150-2b |
स त्वेवमुक्तः कृष्णेन हृष्टः परपुरञ्जयः। ततो युधिष्ठिरो राजा रथादाप्लुत्य भारत। पर्यष्वजत्तदा कृष्णावानन्दाश्रुपरिप्लुतः।। | 5-150-3a 5-150-3b 5-150-3c |
प्रमृज्य वदनं शुभ्रं पुण्डरीकसमप्रभम्। अब्रवीद्वासुदेवं च पाण्डवं च धनञ्जयम्।। | 5-150-4a 5-150-4b |
प्रियमेतदुपश्रुत्य त्वत्तः पुष्करलोचन। नान्तं गच्छामि हर्षस्य तितीर्षुरुदधेरिव।। | 5-150-5a 5-150-5b |
अत्यद्भुतमिदं कृष्ण कृतं पार्थेन धीमता। दिष्ट्या पश्यामि सङ्ग्रामे तीर्णभारौ महारथौ।। | 5-150-6a 5-150-6b |
दिष्ट्या च निहतः पापः सैन्धवः पुरुषाधमः। `दिष्ट्या शत्रुगणाश्चैव निमग्नाः शोकसागरे'।। | 5-150-7a 5-150-7b |
कृष्ण दिष्ट्या मम प्रीतिर्महती प्रतिपादिता। त्वया गुप्तेन गोविन्द घ्नता पापं जयद्रथम्।। | 5-150-8a 5-150-8b |
किन्तु नात्यद्भुतं तेषां येषां नस्त्वं समाश्रयः। न तेषां दुष्कृतं किञ्चित्त्रिषु लोकेषु विद्यते। सर्वलोकगुरुर्येषां त्वं नाथो मधुसूदन।। | 5-150-9a 5-150-9b 5-150-9c |
त्वत्प्रसादाद्धि गोविन्द वयं जेष्यामहे रिपून्। `यथा पुरा प्रसादात्ते दानवान्पाकशासनः।। | 5-150-10a 5-150-10b |
पृथिव्या विजयो वापि त्रैलोक्यविजयोऽपि वा। ध्रुवो हि तेषां वार्ष्णेय येषां तुष्टोऽसि मानद।। | 5-150-11a 5-150-11b |
न तेषां विद्यते पापं सङ्ग्रामे वा पराजयः। त्रिदशेश्वर नाथस्त्वं येषां तुष्टोऽसि माधव।। | 5-150-12a 5-150-12b |
त्वत्प्रसादाद्धृषीकेश शक्रः सुरगणेश्वरः। त्रैलोक्यविजयं श्रीमान्प्राप्तवान्रणमूर्धनि।। | 5-150-13a 5-150-13b |
तव चैव प्रसादेन त्रिदशास्त्रिदशेश्वराः। अमरत्वं गताः कृष्ण लोकांश्चाश्नुवतेऽक्षयान्'।। | 5-150-14a 5-150-14b |
स्थितः सर्वात्मना नित्यं प्रियेषु च हितेषु च। त्वां चैवास्माभिराश्रित्य कृतः शस्त्रसमुद्यमः। सुरैरिवासुरवधे शक्रं शक्रानुजाहवे।। | 5-150-15a 5-150-15b 5-150-15c |
असंभाव्यमिदं कर्म देवैरपि जनार्दन। त्वद्बुद्धिबलवीर्येण कृतवानेष फल्गुनः।। | 5-150-16a 5-150-16b |
बाल्यात्प्रभृति ते कृष्ण कर्माणि श्रुतवानहम्। अमानुषाणि दिव्यानि महान्ति च बहूनि च। तदैवाज्ञासिषं शत्रून्हतान्प्राप्तां च मेदिनीम्।। | 5-150-17a 5-150-17b 5-150-17c |
त्वत्प्रसादसमुत्थेन विक्रमेणारिसूदन। सुरेशत्वं गतः शक्रो हत्वा दैत्यान्सहस्रशः।। | 5-150-18a 5-150-18b |
त्वत्प्रसादाद्वृषीकेश जगत्स्थावरजङ्गमम्। स्ववर्त्मनि स्थितं वीर जपरहोमेषु वर्तते।। | 5-150-19a 5-150-19b |
एकार्णवमिदं पूर्वं सर्वमासीत्तमोमयम्। त्वत्प्रसादान्माहाबाहो जगत्प्राप्तं नरोत्तम।। | 5-150-20a 5-150-20b |
स्रष्टारं सर्वलोकानां परमात्मानमव्ययम्। ये पश्यन्ति हृषीकेश न ते मुह्यन्ति कर्हिचित्।। | 5-150-21a 5-150-21b |
पुराणं परमं देवं देवदेवं सनातनम्। ये प्रपन्नाः सुरगुरुं न ते मुह्यन्ति कर्हिचित्।। | 5-150-22a 5-150-22b |
अनादिनिधनं देवं लोककर्तारमव्ययम्। ये भक्तास्त्वां हृषीकेश दुर्गाण्यतितरन्ति ते।। | 5-150-23a 5-150-23b |
परं पुराणं पुरुषं पराणां परमं च यत्। प्रपद्यतस्तत्परमं परा भूतिर्विधीयते।। | 5-150-24a 5-150-24b |
गायन्ति चतुरो वेदा यश्च देवेषु गीयते। तं प्रपद्य महात्मानं भूतिमश्नाम्यनुत्तमाम्।। | 5-150-25a 5-150-25b |
परमेश परेशेश तिर्यगीश नरेश्वर। सर्वेश्वरेश्वरेशेन नमस्ते पुरुषोत्तम।। | 5-150-26a 5-150-26b |
त्वमीशेशेश्वरेशान प्रभो वर्धस्व माधव। प्रभवाप्यय सर्वस्य सर्वात्मन्पृथुलोचन।। | 5-150-27a 5-150-27b |
धनञ्जयसखा यश्च धनञ्जयहितश्च यः। धनञ्जयस्य गोप्ता तं प्रपद्य सुखमेधते।। | 5-150-28a 5-150-28b |
[मार्कण्डेयः पुराणर्षिश्चरितज्ञस्तवानघ। माहात्म्यमनुभावं पुरा फीर्तितवान्मुनिः।। | 5-150-29a 5-150-29b |
असितो देवलश्चैव नारदश्च महातपाः। पितामहश्च मे व्यासस्त्वामाहुर्विधिमुत्तमम्।। | 5-150-30a 5-150-30b |
त्वं तेजस्त्वं परं ब्रह्म त्वं सत्यं त्वं महत्तपः। त्वं श्रेयस्त्वं यशश्चाग्र्यं कारणं जगतस्तथा।। | 5-150-31a 5-150-31b |
त्वया सृष्टमिदं सर्वं जगत्स्थावरजङ्गमम्। प्रलये समनुप्राप्ते त्वां वै निविशते पुनः।। | 5-150-32a 5-150-32b |
अनादिनिधनं देवं विश्वस्येशं जगत्पते। धातारमजमव्यक्तमाहुर्वेदविदो जनाः।। | 5-150-33a 5-150-33b |
भूतात्मानं महात्मानमनन्तं विश्वतोमुखम्। अपि देवा न जानन्ति गुह्यमाद्यं जगत्पतिम्। नारायणं परं देवं परमात्मानमीश्वरम्।। | 5-150-34a 5-150-34b 5-150-34c |
ज्ञानयोनिं हरिं विष्णुं मुमुक्षूणां परायणम्। परं पुराणं पुरुषं पुराणानां परं च यत्।। | 5-150-35a 5-150-35b |
एवमादिगुणानां ते कर्मणां दिवि चेह च। अतीतभूतभव्यानां सङ्ख्याताऽत्र न विद्यते।। | 5-150-36a 5-150-36b |
सर्वतो रक्षणीयाः स्म शक्रेणेव दिवौकसः। यैस्त्वं सर्वगुणोपेतः सुहृन्न उपपादितः।। | 5-150-37a 5-150-37b |
इत्येवं धर्मराजेन हरिरुक्तो महायशाः। अनुरूपमिदं वाक्यं प्रत्युवाच जनार्दनः।। | 5-150-38a 5-150-38b |
भवता तपसोग्रेण धर्मेण परमेण च। साधुत्वादार्जवाच्चैव हतः पापो जयद्रथः।। | 5-150-39a 5-150-39b |
अयं च पुरुषव्याघ्र त्वदनुध्यानसंवृतः। हत्वा योधसहस्राणि न्यहञ्जिष्णुर्जयद्रथम्।। | 5-150-40a 5-150-40b |
कृतित्वे बाहुवीर्ये च तथैवासम्भ्रमेऽपि च। शीघ्रतामोधबुद्धित्वे नास्ति पार्थसमः क्वचित्।। | 5-150-41a 5-150-41b |
तदयं भरतश्रेष्ठ भ्राता तेऽद्य यदर्जुनः। सैन्यक्षयं रणे कृत्वा सिन्धुराजशिरोऽहरत्।। | 5-150-42a 5-150-42b |
ततो धर्मसुतो जिष्णुं परिष्वज्य विशाम्पते। प्रमृज्य वदनं तस्य पर्याश्वासयत प्रभुः।। | 5-150-43a 5-150-43b |
अतीव सुमहत्कर्म कृतवानसि फल्गुन। असह्यं चाविषह्यं च देवैरपि सवासवैः।। | 5-150-44a 5-150-44b |
दिष्टा निस्तीर्णभारोऽसि हतारिश्चासि शत्रुहन्। दिष्ट्या सत्या प्रतिज्ञेयं कृता हत्वा जयद्रथम्।। | 5-150-45a 5-150-45b |
एवमुक्त्वा गुडाकेशं धर्मराजो महायशाः। पस्पर्श पुण्यगन्धेन पृष्ठे हस्तेन पार्थिवाः।।] | 5-150-46a 5-150-46b |
सञ्जय उवाच। | 5-150-47x |
एवमुक्तौ महात्मानावुभौ केशवपाण्डवौ। तावब्रूतां तदा कृष्णौ राजानं पृथिवीपतिम्।। | 5-150-47a 5-150-47b |
तव कोपाग्निना दग्धः पापो राजञ्जयद्रथः। उत्तीर्णं चापि सुमहद्धार्तराष्ट्रबलं रणे।। | 5-150-48a 5-150-48b |
युधिष्ठिर उवाच। | 5-150-49x |
हन्यन्ते निहताश्चैव विनङ्क्ष्यन्ति च केशव। तव क्रोधहता ह्येते कौरवाः शत्रुसूदन।। | 5-150-49a 5-150-49b |
त्वां हि चक्षुर्हणं वीर कोपयित्वा सुयोधनः। समित्रबन्धुः समरे प्राणांस्त्यक्ष्यति दुर्मतिः।। | 5-150-50a 5-150-50b |
तव क्रोधहतः पूर्वं देवैरपि सुदुर्जयः। शरतल्पगतः शेते भीष्मः कुरुपितामहः।। | 5-150-51a 5-150-51b |
दुर्लभो विजयस्तेषां सम्प्रामे रिपुघातिनाम्। याता मृत्युवशं ते वै येषां क्रुद्धोऽपि माधव।। | 5-150-52a 5-150-52b |
राज्यं प्राणाः श्रियः पुत्राः सौख्यानि विविधानि च। अचिरात्तस्य नश्यन्ति येषां क्रुद्धोऽसि मानद।। | 5-150-53a 5-150-53b |
भगवानुवाच। | 5-150-54x |
विनष्टान्कौरवान्मन्ये सपुत्रपशुबान्धवान्। राजधर्मपरे नित्यं त्वयि क्रुद्धे परन्तप।। | 5-150-54a 5-150-54b |
सञ्जय उवाच। | 5-150-55x |
ततो भीमो महाबाहुः सात्यकिश्च महारथः। अभिवाद्य गुरुं ज्येष्ठं मार्गणैः क्षतविक्षतौ। क्षितावास्तां महेष्वासौ पाञ्चाल्यपरिवारितौ।। | 5-150-55a 5-150-55b 5-150-55c |
तौ दृष्ट्वा मुदितो वीरौ प्राञ्जली चाग्रतः स्थितौ। अभ्यनन्दत कौन्तेयस्तावुभौ भीमसात्यकी।। | 5-150-56a 5-150-56b |
दिष्ट्या पश्यामि वा शूरौ विमुक्तौ सैन्यसागरात्। द्रोणग्राहदुराधर्षाद्धार्दिक्यमकरालयात्।। | 5-150-57a 5-150-57b |
दिष्ट्या विनिर्जिताः सङ्ख्ये पृथिव्यां सर्वपार्थिवाः। युवां विजयिनौ चापि दिष्ट्या पश्यामि संयुगे।। | 5-150-58a 5-150-58b |
दिष्ट्या द्रोणो जितः सङ्ख्ये हार्दिक्यश्च महाबलः। दिष्ट्या विकर्णिभिः कर्णोरणे नीतः पराभवम्।। | 5-150-59a 5-150-59b |
विमुखश्च कृतः शल्यो युवाभ्यां पुरुषर्षभौ। दिष्ट्या युवां कुशलिनौ सङ्ग्रामात्पुनरागतौ। पश्यामि रथिनां श्रेष्ठावुभौ युद्धविशारदौ।। | 5-150-60a 5-150-60b 5-150-60c |
मम वाक्यकरौ वीरौ मम गौरवयन्त्रितौ। सैन्यार्णवं समुत्तीर्णौ दिष्ट्या पश्यामि वामहम्।। | 5-150-61a 5-150-61b |
समरश्लाघिनौ वीरौ समरेष्वपराजितौ। मम वाक्यसमौ चैव दिष्ट्या पश्यामि वामहम्।। | 5-150-62a 5-150-62b |
इत्युक्त्वा पाण्डवो राजन्युयुधानवृकोदरौ। सस्वजे पुरुषव्याघ्रौ हर्षाद्बाष्पं मुपोच ह।। | 5-150-63a 5-150-63b |
ततः प्रमुदितं सर्वं बलमासीद्विशाम्पते। पाण्डवानां रणे हृष्टं युद्धाय तु मनो दधे।। | 5-150-64a 5-150-64b |
।। इति श्रीमन्महाभारते द्रोणपर्वणि जयद्रथवधपर्वणि चतुर्दशदिवसयुद्धे प़ञ्चाशदधिकशततमोऽध्यायः।। 150 ।। |
5-150-8 गुप्तेन अर्जुनेनेति शेषः।। 8 ।। 5-150-15 शक्रानुजेति कृष्णं प्रति सम्बोधनम्।। 5-150-25 चतुरश्चत्वारः।। 5-150-27 त्वमिति। हेईशेश रुद्राद्याराध्य। ईश्वरा राजानस्तेषामपीशानो धर्मः। तदेतत्क्षत्रस्य क्षत्रं यद्धर्म इति श्रुतेस्तस्यापि प्रभो। धर्मस्य प्रभुरच्युत इति स्मृतेः।। 5-150-28 सखा वयस्यः। हितः प्रियकृत्। गोप्ता दुःखनिवारकः।। 5-150-29 कुण्डलितः पाठः झ. पुस्तक एव दृश्यते।। 5-150-48 उत्तीर्णं लङ्घितम्।। 5-150-50 चक्षुर्हणं क्रोधदृष्टिमात्रेण हन्तारम्।। 5-150-150 पञ्चाशदधिकशततमोऽध्यायः।।
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