महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-018
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अर्जुनस्य संशप्तकैः सह युद्धम्।। 1 ।।
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सञ्जय उवाच। | 5-18-1x |
ततः संशप्तका राजन्समे देशे व्यवस्थिताः। व्यूढानीकै रथैरेव चन्द्रार्धाख्यैर्मुदा युताः।। | 5-18-1a 5-18-1b |
ते किरीटिनमायान्तं दृष्ट्वा हर्षेण मारिष। `अतीव सम्प्रहृष्टास्ते ह्युपलक्ष्य धनञ्जयम्'। उदक्रोशन्नरव्याघ्राः शब्देन महता तदा।। | 5-18-2a 5-18-2b 5-18-2c |
स दिशः प्रदिशः सर्वा नभश्चैव समावृणोत्। आवृतत्वाच लोकस्य नासीत्तत्र प्रतिस्वनः।। | 5-18-3a 5-18-3b |
सोऽतीव संप्रहृष्टांस्तानुपलभ्य धनञ्जयः। किञ्चिदभ्युत्स्मयन्कृष्णमिदं वचनमब्रवीत्।। | 5-18-4a 5-18-4b |
देवकीपुत्र पश्येमान्मुमूर्षूनद्य संयुगे। भ्रातॄंस्त्रैगर्तकानेतान्रोदितव्ये प्रहर्षितान्।। | 5-18-5a 5-18-5b |
आससाद रणे व्यूढां त्रिगर्तानामनीकिनीम्।। | 5-18-7b |
स देवदत्तमादाय शङ्खं हेमपरिष्कृतम्। दध्मौ वेगेन महता घोषेणापूरयन्दिशः।। | 5-18-8a 5-18-8b |
तेन शब्देन वित्रस्ता संशप्तकवरूथिनी। विचेष्टाऽवस्थिता सङ्ख्ये ह्यश्मसारमयी यथा।। | 5-18-9a 5-18-9b |
`सा सेना भरतश्रेष्ठ निश्चेष्टा शुशुभे तदा। चित्रे पटे यथा न्यस्ता कुशलैः शिल्पिभिर्नरैः।। | 5-18-10a 5-18-10b |
स्वनेन तेन सैन्यानां दिवमावृण्वता तदा। सस्वना पृथिवी सर्वा तथैव च महोदधिः। स्वनेन तेन सैन्यानां कर्णास्तु बधिरीकृताः'।। | 5-18-11a 5-18-11b 5-18-11c |
वाहास्तेषां विवृत्ताक्षाः स्तब्धकर्णशिरोधराः। विष्टब्धचरणा मूत्रं रुधिरं च प्रसुस्रुवुः। `ततो व्युपारमच्छब्दः प्रहृष्टास्ते ततोऽभवन्'।। | 5-18-12a 5-18-12b 5-18-12c |
उपलभ्य ततः संज्ञामवस्थाप्य च वाहिनीम्। युगपत्पाण्डुपुत्राय चिक्षिपुः कङ्कपत्रिणः।। | 5-18-13a 5-18-13b |
तानर्जुनः सहस्राणि दशपञ्चभिराशुगैः। अनागतानेव शरैश्चिच्छेदाशु पराक्रमी।। | 5-18-14a 5-18-14b |
ततो?ऽर्जुनं शितैर्बाणैर्दशभिर्दशभिः पुनः। प्राविध्यन्त ततः पार्थस्तानविध्यत्त्रिभिस्त्रिभिः।। | 5-18-15a 5-18-15b |
एकैकस्तु ततः पार्थं राजन्विव्याध पञ्चभिः। स च तान्प्रतिविव्याध द्वाभ्यां द्वाभ्यां पराक्रमी।। | 5-18-16a 5-18-16b |
भूय एव तु सङ्क्रुद्धास्त्वर्जुनं सहकेशवम्। आपूरयञ्शरैस्तीक्ष्णैस्तटाकमिव वृष्टिभिः।। | 5-18-17a 5-18-17b |
ततः शरसहस्राणि प्रापतन्नर्जुनं प्रति। भ्रमराणामिव व्राताः फुल्लं द्रुमगणं वने।। | 5-18-18a 5-18-18b |
ततः सुबाहुस्त्रिंशद्भिरद्रिसारमयैः शरैः। अविध्यदिषुभिर्गाढं किरीटे सव्यसाचिनम्।। | 5-18-19a 5-18-19b |
तैः किरीटि किरीटस्थैर्हेमपुङ्खैरजिह्मगैः। शातकुम्भमयापीडो बभौ यूप इवोच्छ्रितः।। | 5-18-20a 5-18-20b |
हस्तावापं सुबाहोस्तु भल्लेन युधि पाण्डवः। चिच्छेद तं चैव पुनः शरवर्षैरवाकिरत्।। | 5-18-21a 5-18-21b |
ततः सुशर्मा दशभिः सुरथस्तु किरीटिनम्। सुधर्मा सुधनुश्चैव सुबाहुश्च समार्पयत्।। | 5-18-22a 5-18-22b |
तांस्तु सर्वान्पृथग्बाणैर्वानरप्रवरध्वजः। प्रत्यविध्यद्ध्वजांश्चैषां भल्लैश्चिच्छेद सायकान्।। | 5-18-23a 5-18-23b |
सुधन्वनो धनुश्छित्त्वा हयांश्चास्यावधीच्छरैः। अथास्य सशिरस्त्राणं शिरः कायादपातयत्।। | 5-18-24a 5-18-24b |
`जहार पार्थः सैन्येषु सहस्रे द्वे च योधिनाम्'। तस्मिन्निपतिते वीरे त्रस्तास्तस्य पदानुगाः।। | 5-18-25a 5-18-25b |
`भूयिष्ठं प्रतिरुद्धा ये हतैर्योधैर्यशस्विनः'। व्यद्रवन्त भयाद्भीता यत्र दौर्योधनं बलम्।। | 5-18-26a 5-18-26b |
ततो जघानं सङ्क्रुद्धो वासविस्तां महाचमूम्। शरजालैरविच्छिन्नैस्तमः सूर्य इवांशुभिः।। | 5-18-27a 5-18-27b |
ततो भग्ने बले तस्मिन्विप्रलीने समन्ततः। सव्यसाचिनि सङ्क्रुद्वे त्रैगर्तान्भयमाविशत्।। | 5-18-28a 5-18-28b |
ते वध्यमानाः पार्थेन शरैः सन्नतपर्वभिः। अमुह्यंस्तत्रतत्रैव त्रस्ता मृगगणा इव।। | 5-18-29a 5-18-29b |
ततस्त्रिगर्तराट् क्रुद्धस्तानुवाच महारथान्। अलं द्रुतेन वः शूरा न भयं कर्तुमर्हथ।। | 5-18-30a 5-18-30b |
शप्त्वाऽथ शपथान्घोरान्सर्वसैन्यस्य पश्यतः। गत्वा दौर्योधनं सैन्यं किं वै वक्ष्यथ मुख्यशः। | 5-18-31a 5-18-31b |
नावहास्याः कथं लोके कर्मणाऽनेन संयुगे। भवेम सहिताः सर्वे निवर्तध्वं यथाबलम्।। | 5-18-32a 5-18-32b |
एवमुक्तास्तु ते राजन्नुदक्रोशन्मुहुर्मुहुः। शङ्खांश्च दध्मिरे वीरा हर्षयन्तः परस्परम्।। | 5-18-33a 5-18-33b |
ततस्ते सन्न्यवर्तन्तं संशप्तकगणाः पुनः। नारायणाश्च गोपाला मृत्युं कृत्वाऽनिवर्तनम्।। | 5-18-34a 5-18-34b |
।। इति श्रीमन्महाभारते द्रोणपर्वणि द्रोणाभिषेकपर्वणि अष्टादशोऽध्यायः।। 18 ।। |
5-18-1 व्युह्यानीकं रथैरेव चन्द्राकारं मुदा युताः इति झ पाठः।। 5-18-18 अष्टादशोऽध्यायः।।
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