महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-191
← द्रोणपर्व-190 | महाभारतम् सप्तमपर्व महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-191 वेदव्यासः |
द्रोणपर्व-192 → |
कृष्णेन युधिष्ठिरम्प्रति द्रोणजये तस्य शस्त्रन्यासस्य तत्रचाश्वत्थामवधश्रवणस्य हेतुत्वकथनम्।। 1 ।। भीमेनाश्वत्थामनाम्नि गजे निहते युधिष्ठिरेण कृष्णचोदनया द्रोणम्प्रति तद्विवक्षया अश्वत्थामा हत इति कथनम्।। 2 ।।
|
सञ्जय उवाच। | 5-191-1x |
पाञ्चालानां ततो द्रोणोऽप्यकरोत्कदनं महत्। यथा क्रुद्धो रणे शक्रो दानवानां क्षयं पुरा।। | 5-191-1a 5-191-1b |
द्रोणास्त्रेण महाराज वध्यमानाः परे युधि। नात्रसन्त रणे द्रोणत्सत्ववन्तो महारथाः।। | 5-191-2a 5-191-2b |
युध्यमाना महाराज पाञ्चालाः सृञ्जयास्तथा। द्रोणमेवाभ्ययुर्युद्धे योधयन्तो महारथाः।। | 5-191-3a 5-191-3b |
तेषां तु च्छाद्यमानानां पाञ्चालानां समन्ततः। अभवद्भैरवो नादो वध्यतां शरवृष्टिभिः।। | 5-191-4a 5-191-4b |
वध्यमानेषु सङ्ग्रामे पाञ्चालेषु महात्मना। उदीर्यमाणे द्रोणास्त्रे पाण्डवान्भयमाविशत्।। | 5-191-5a 5-191-5b |
दृष्ट्वाऽश्वनरयोधानां विपुलं च क्षयं युधि। पाण्डवेया महाराज नाशशंसुर्जयं तदा।। | 5-191-6a 5-191-6b |
कच्चिद्द्रोणो न नः सर्वान्क्षपयेत्परमास्त्रवित्। समिद्धः शिशिरापाये दहन्कक्षमिवानलः।। | 5-191-7a 5-191-7b |
न चैनं संयुगे कश्चित्समर्थः प्रतिवीक्षितुम्। न चैनमर्जुनो जातु प्रतियुध्येत धर्मवित्।। | 5-191-8a 5-191-8b |
त्रस्तान्कुन्तीसुतान्दृष्ट्वा द्रोणसायकपीडितान्। मतिमाञ्श्रेयसे युक्तः केशवोऽर्जुनमब्रवीत्।। | 5-191-9a 5-191-9b |
नैष युद्धेन सङ्ग्रामे जेतुं शक्यः कथञ्चन। सधनुर्धन्विनां श्रेष्ठो देवैरपि सवासवैः।। | 5-191-10a 5-191-10b |
न्यस्तशस्त्रस्तु सङ्गारमे शक्यो हन्तुं भवेन्नृभिः। आस्थीयतां जये योगो धर्ममुत्सृज्य पाण्डवाः। यथा न संयुगे सर्वान्निहन्याद्रुक्मवाहनः।। | 5-191-11a 5-191-11b 5-191-11c |
अश्वत्थाम्नि हते नैष युध्येदिति मतिर्मम। तं हतं संयुगे कश्चिदस्मै शंसतु मानवः।। | 5-191-12a 5-191-12b |
एतन्नारोचयद्राजन्कुन्तीपुत्रो धनञ्जयः। अन्ये त्वरोचयन्सर्वे कृच्छ्रेण तु युधिष्ठिरः।। | 5-191-13a 5-191-13b |
ततो भीमो महाबाहुरनीकेषु महागजम्। जघान गदया राजन्नश्वत्थामानमित्युत। परप्रमथनं घोरं मालवस्येन्द्रवर्मणः।। | 5-191-14a 5-191-14b 5-191-14c |
भीमसेनस्तु सव्रीडमुपेत्य द्रोणमाहवे। अश्वत्थामा हत इति शब्दमुच्चैश्चकार ह।। | 5-191-15a 5-191-15b |
अश्वत्थामेति हि गजः ख्यातो नाम्ना हतोऽभवत्। कृत्वा मनसि तं भीमो मिथ्या व्याहृतवांस्तदा।। | 5-191-16a 5-191-16b |
भीमसेनवचः श्रुत्वा द्रोणस्तत्परमाप्रियम्। मनसा सन्नागात्रोऽभूद्यथा सैकतमम्भसि।। | 5-191-17a 5-191-17b |
शङ्कमानः स तन्मिथ्या वीर्यज्ञः स्वसुतस्य वै। हतः स इति च श्रुत्वा नैव धैर्यादकम्पत।। | 5-191-18a 5-191-18b |
स लब्ध्वा चेतनां द्रोणः क्षणेनैव समाश्वसत्। अनुचिन्त्यात्मनः पुत्रमविषह्यमरातिभिः।। | 5-191-19a 5-191-19b |
स पार्षतमभिद्रुत्य जिघांसुर्मृत्युमात्मनः। अवाकिरत्सहस्रेण तीक्ष्णानां कङ्कपत्रिणाम्।। | 5-191-20a 5-191-20b |
तं विंशतिसहस्राणि पाञ्चालानां नरर्षभाः। यथा चरन्तं सङ्ग्रामे सर्वतोऽवाकिरञ्छरैः।। | 5-191-21a 5-191-21b |
शरैस्तैराचितं द्रोणं नापश्याम महारथम्। भास्करं जलदै रुद्धं वर्षास्विव विशाम्पते।। | 5-191-22a 5-191-22b |
विधूय तान्बाणगणान्पाञ्चालानां महारथः। प्रादुश्चक्रे ततो द्रोणो ब्राह्ममस्त्रं परन्तपः।। | 5-191-23a 5-191-23b |
वधाय तेषां शूराणां पाञ्चालानाममर्षितः। ततो व्यरोचत द्रोणो विनिघ्नन्सर्वसैनिकान्।। | 5-191-24a 5-191-24b |
शिरांस्यापातयच्चापि पाञ्चालानां महामृधे। तथैव परिघाकारान्बाहून्कनकभूषणान्।। | 5-191-25a 5-191-25b |
ते वध्यमानाः समरे भारद्वाजेन पार्थिवाः। मेदिन्यामन्वकीर्यन्त वातनुन्ना इव द्रुमाः।। | 5-191-26a 5-191-26b |
कुञ्जराणां च पततां हयौघानां च भारत। अगम्यरूपा पृथिवी मांसशोणितकर्दमा।। | 5-191-27a 5-191-27b |
हत्वा विंशतिसाहस्रान्पाञ्चालानां रथव्रजान्। अतिष्ठदाहवे द्रोणो विधूमोऽग्निरिव ज्वलन्।। | 5-191-28a 5-191-28b |
तथैव च पुनः क्रुद्धो भारद्वाजः प्रतापवान्। वसुदानस्य भल्लेन शिरः कायादपाहरत्।। | 5-191-29a 5-191-29b |
पुनः पञ्चशतान्मात्स्यान्षट्सहस्रांश्च सृञ्जयान्। हस्तिनामयुतं हत्वा जघानाश्वायुतं पुनः।। | 5-191-30a 5-191-30b |
क्षत्रियाणामभावाय दृष्ट्वा द्रोणमवस्थितम्। ऋषयोऽभ्यागतास्तूर्णं हव्यवाहपुरोगमाः।। | 5-191-31a 5-191-31b |
विश्वामित्रो जमदग्निर्भरद्वाजोऽथ गौतमः। वसिष्ठः कश्यपोऽत्रिश्च ब्रह्मलोकं निनीषवः।। | 5-191-32a 5-191-32b |
सिकताः पृश्नयो गर्गा वालखिल्या मरीचिपाः। भृगवोऽङ्गिरसश्चैव सूक्ष्माश्चान्ये महर्षयः।। | 5-191-33a 5-191-33b |
त एनमब्रुवन्सर्वे द्रोणमाहरवशोभिनम्। अधर्मतः कृतं युद्धं समयो निधनस्य ते।। | 5-191-34a 5-191-34b |
न्यस्यायुधं रणे द्रोण समीक्षास्मानवस्थितान्। नातः क्रूरतरं कर्म पुनः कर्तुमिहार्हसि।। | 5-191-35a 5-191-35b |
वेदवेदाङ्गविदुषः सत्यधर्मरतस्य ते। ब्राह्मणस्य विशेषेण तवैतन्नोपपद्यते।। | 5-191-36a 5-191-36b |
त्यजायुधममोधेषो तिष्ठ वर्त्मनि शाश्वते। परिपूर्णश्च कालस्ते वस्तुं लोकेऽद्य मानुषे।। | 5-191-37a 5-191-37b |
ब्रह्मास्त्रेण त्वया दग्धा अनस्त्रज्ञा नरा भुवि। यदेतदीदृशं विप्र कृतं कर्म न साधु तत्।। | 5-191-38a 5-191-38b |
न्यस्यायुधं रणे विप्र द्रोण मा त्वं चिरं कृथाः। मा पापिष्ठतरं कर्म करिष्यसि पुनर्द्विज।। | 5-191-39a 5-191-39b |
इति तेषां वचः श्रुत्वा भीमसेनवचः स्मरन्। धृष्टद्युम्नं च सम्प्रेक्ष्य रणे स विमनाऽभवत्।। | 5-191-40a 5-191-40b |
सन्दिह्यमानो व्यथितः कुन्तीपुत्रं युधिष्ठिरम्। अहतं वा हतं वेति पप्रच्छ सुतमात्मनः।। | 5-191-41a 5-191-41b |
स्थिरा बुद्धिर्हि द्रोणस्य न पार्थो वक्ष्यतेऽनृतम्। त्रयाणामपि लोकानामैश्वर्यार्थे कथञ्चन।। | 5-191-42a 5-191-42b |
तस्मात्तं परिपप्रच्छ नान्यं कञ्छिद्द्विजर्षभः। तस्मिंस्तस्य हि सत्याशा बाल्यात्प्रभृति पाण्डवे।। | 5-191-43a 5-191-43b |
ततो निष्पाण्डवामुर्वीं करिष्यन्तं युधाम्पतिम्। द्रोणं ज्ञात्वा धर्मराजं गोविन्दो व्यथितोऽब्रवीत्।। | 5-191-44a 5-191-44b |
यद्यर्धदिवसं द्रोणो युध्यते मन्युमास्थितः। सत्यं ब्रवीमि ते सेना विनाशं समुपैष्यति।। | 5-191-45a 5-191-45b |
स भवांस्त्रातु नो द्रोणात्सत्याज्ज्यायोऽनृतं वचः। अनृतं जीवितस्यार्थे वदन्न स्पृश्यतेऽनृतैः।। | 5-191-46a 5-191-46b |
तयोः संवदतोरेवं भीमसेनोऽब्रवीदिदम्।। | 5-191-47a |
श्रुत्वैवं तु महाराज वधोपायं महात्मनः। गाहमानस्य ते सेनां मालवस्येन्द्रवर्मणः।। | 5-191-48a 5-191-48b |
अश्वत्थामेति विख्यातो गजः शक्रगजोपमः। निहतो युधि विक्रम्य ततोऽहं द्रोणमब्रुवम्।। | 5-191-49a 5-191-49b |
अश्वत्थामा हतो ब्रह्मन्निवर्तस्वाहवादिति। नूनं नाश्रद्दधद्वाक्यमेष मे पुरुषर्षभः।। | 5-191-50a 5-191-50b |
स त्वं गोविन्दवाक्यानि मानयस्व जयैषिणः। द्रोणाय निहतं शंस राजञ्शारद्वतीसुतम्।। | 5-191-51a 5-191-51b |
त्वयोक्ते नैव युध्येत जातु राजन्द्विजर्षभः। सत्यवागिति लोकेऽस्मिन्भवान्ख्यातो जनाधिप।। | 5-191-52a 5-191-52b |
तस्य तद्वचनं श्रुत्वा कृष्णवाक्यप्रचोदितः। भावित्वाच्च महाराज वक्तुं समुपचक्रमे।। | 5-191-53a 5-191-53b |
तमतथ्यभये मग्नो जये सक्तो युधिष्ठिरः। `अश्वत्थामा हति शब्दमुच्चैश्चकार ह'। अव्यक्तमब्रवीद्राजन्हतः कुञ्जर इत्युत।। | 5-191-54a 5-191-54b 5-191-54c |
तस्य पूर्वं रथः पृथ्व्याश्चतुरङ्गुलमुच्छ्रितः। बभूवैवं च तेनोक्ते तस्य वाहाः स्पृशन्महीम्।। | 5-191-55a 5-191-55b |
युधिष्ठिरात्तु तद्वाक्यं श्रुत्वा द्रोणो महारथः। पुत्रव्यसनसन्तप्तो निराशो जीवितेऽभवत्।। | 5-191-56a 5-191-56b |
आगस्कृतमिवात्मानं पाण्डवानां महात्मनाम्। ऋषिवाक्येन मन्वानः श्रुत्वा च निहतं सुतम्।। | 5-191-57a 5-191-57b |
विचेताः परमोद्विग्नो धृष्टद्युम्नमवेक्ष्य च। योद्धुं नाशक्नुवद्राजन्यथापूर्वमरिन्दमः।। | 5-191-58a 5-191-58b |
।। इति श्रीमन्महाभारते द्रोणपर्वणि द्रोणवधपर्वणि पञ्चदशदिवसयुद्धे एकनवत्यधिकशततमोऽध्यायः।। 191 ।। |
5-191-51 जयैषिण इत्यस्य गोविन्दवाक्यानीत्यत्रैकदेशे गोविन्देऽन्वयः।। 5-191-191 एकनवत्यधिकशततमोऽध्यायः।। 191 ।।
द्रोणपर्व-190 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | द्रोणपर्व-192 |