महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-089
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अर्जुनयुद्धवर्णनम्।। 1 ।।
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अर्जुन उवाच | 5-89-1x |
चोदयाश्वान्हृषीकेश यत्र दुर्मर्षणः स्थितः। एतद्भित्त्वा गजानीकं प्रवेक्ष्याम्यरिवाहिनीम्।। | 5-89-1a 5-89-1b |
सञ्जय उवाच। | 5-89-2x |
एवमुक्तो महाबाहुः केशवः सव्यसाचिना। अचोदयद्धयांस्तत्र यत्र दुर्मर्षणः स्थितः।। | 5-89-2a 5-89-2b |
स सम्प्रहारस्तुमुलः सम्प्रवृत्तः सुदारुणः। एकस्य च बहूनां च रथनागनरक्षयः।। | 5-89-3a 5-89-3b |
ततः सायकवर्षेण पर्जन्य इव वृष्टिमान्। परानवाकिरत्पार्थः पर्वतानिव नीरदः।। | 5-89-4a 5-89-4b |
ते चापि रथिनः सर्वे त्वरिताः कृतहस्तवत्। अवाकिरन्बाणजालैस्तत्र कृष्णधनञ्जयौ।। | 5-89-5a 5-89-5b |
ततः क्रुद्धो महाबाहुर्वार्यमाणः परैर्युधि। शिरांसि रथिनां पार्थः कायेभ्योऽपाहरच्छरैः।। | 5-89-6a 5-89-6b |
उद्धान्तनयनैर्वक्रैः सन्दष्टौष्ठपुटैः शुभैः। सकुण्डलशिरस्त्राणैर्वसुधा समकीर्यत।। | 5-89-7a 5-89-7b |
पुण्डरीकवनानीव विध्वस्तानि समन्ततः। विनिकीर्णानि योधानां वदनानि चकाशिरे।। | 5-89-8a 5-89-8b |
सुवर्णचित्राभरणाः संसिक्ता रुधिरेण च। संसक्ता इव दृश्यन्ते मेघसङ्घाः सविद्युतः।। | 5-89-9a 5-89-9b |
शिरसां पततां राजञ्शब्दोऽभूद्वसुधातले। कालेन परिपक्वानां तालानां पततामिव।। | 5-89-10a 5-89-10b |
कबन्ध उत्थितः कश्चिद्विष्फार्य सशरं धनुः। किञ्चित्खङ्गं विनिष्कृष्य भुजेनोद्यम्य तिष्ठति। `गृहीत्वाऽन्यस्य केशेषु शिरो नृत्यति चापरः'।। | 5-89-11a 5-89-11b 5-89-11c |
पतितानि न जानन्ति शिरांसि पुरुषर्षभाः। अमृष्यमाणाः सङ्ग्रामे कौन्तेयं जयगृद्धिनः।। | 5-89-12a 5-89-12b |
हयानामुत्तमाङ्गैश्च हस्तिहस्तैश्च मेदिनी। बाहुभिश्च शिरोभिश्च वीराणां समकीर्यत।। | 5-89-13a 5-89-13b |
अयं पार्थः कुतः पार्थः पार्थोऽयमिति सर्वशः। `तिष्ठ पार्थेहि मां पार्थ क्व यासीति च जल्पताम्'। तव सैन्येषु योधानां पार्थभूतमिवाभवत्।। | 5-89-14a 5-89-14b 5-89-14c |
अन्योन्यमपि चाजघ्नुरात्मानमपि चापरे। पार्थभूतममन्यन्त जनाः कालेन मोहिताः।। | 5-89-15a 5-89-15b |
निष्टनन्तः सरुधिरा विसंज्ञा गाढवेदनाः। शयाना बहवो वीराः कीर्तयन्तः स्वबान्धवान्।। | 5-89-16a 5-89-16b |
सभिण्डिपालाः सप्रासाः सशक्त्यृष्टिपरश्वथाः। सनिर्व्यूहाः सनिस्त्रिंशाः सशरासनतोमराः।। | 5-89-17a 5-89-17b |
सबाणवर्माभरणाः सगदाः साङ्गदा रणे। महाभुजगसङ्काशा बाहवः परिघोपमाः।। | 5-89-18a 5-89-18b |
उद्वेष्टन्ति विचेष्टन्ति सञ्चेष्टन्ति च सर्वशः। वेगं कुर्वन्ति संरब्धा निकृत्ताः परमेषुभिः।। | 5-89-19a 5-89-19b |
यो यः स्म समरे पार्थं प्रतिसञ्चरते नरः। तस्यतस्यान्तको बाणः शरीरमुपसर्पति।। | 5-89-20a 5-89-20b |
नृत्यतो रथमार्गेषु धनुर्व्यायच्छतस्तथा। न कश्चित्तत्र पार्थश्च ददृशेऽन्तरमण्वपि।। | 5-89-21a 5-89-21b |
यत्तस्य घटमानस्य क्षिप्रं विक्षिपतः शरान्। लाघवात्पाण्डुपुत्रस्य व्यस्मयन्त परे जनाः।। | 5-89-22a 5-89-22b |
हस्तिनं हस्तियन्तारमश्वमाश्विकमेव च। अभिनत्फल्गुनो बाणै रथिनं च ससारथिम्।। | 5-89-23a 5-89-23b |
आवर्तमानमावृत्तं युध्यमानं च पाण्डवः। प्रमुखे तिष्ठमानं च न कञ्चिन्न निहन्ति सः।। | 5-89-24a 5-89-24b |
यथोदयन्वै गगने सूर्यो हन्ति महत्तमः। तथाऽर्जुनो गजानीकमवधीत्कङ्कपत्रिभिः।। | 5-89-25a 5-89-25b |
हस्तिभिः पतितैर्भिन्नैस्तव सैन्यमदृश्यत। अन्तकाले यथा भूमिर्व्यवकीर्णा महीधरैः।। | 5-89-26a 5-89-26b |
यथा मध्यंदिने सूर्यो दुष्प्रेक्ष्यः प्राणिभिः सदा। तथा धनञ्जयः क्रुद्धो दुष्प्रेक्ष्यो युधि शत्रुभिः।। | 5-89-27a 5-89-27b |
तत्तथा तव पुत्रस्य सैन्यं युधि परन्तप। प्रभग्नं द्रुतमाविग्नमतीव शरपीडितम्।। | 5-89-28a 5-89-28b |
मारुतेनेव महता मेघानीकं व्यदीर्यत। प्रकाल्यमानं तत्सैन्यं नाशकत्प्रतिवीक्षितुम्।। | 5-89-29a 5-89-29b |
प्रतोदैश्चापकोटीभिर्हुंकारैः साधुवाहितैः। कशापार्ष्ण्यभिघातैश्च वाग्भिरुग्राभिरेव च।। | 5-89-30a 5-89-30b |
चोदयन्तो हयांस्तूर्णं पलायन्ते स्म तावकाः। सादिनो रथिनश्चैव पत्तयश्चार्जुनार्दिताः।। | 5-89-31a 5-89-31b |
पार्ष्ण्यङ्गुष्ठाङ्कुशैर्नागं चोदयन्तस्तथाऽपरे। शरैः सम्मोहिताश्चान्ये तमेवाभिमुखा ययुः।। | 5-89-32a 5-89-32b |
तव योघ हतोत्साहा विभ्रान्तमनसस्तदा।। | 5-89-33a |
।। इति श्रीमन्महाभारते द्रोणपर्वणि जयद्रथवधपर्वणि चतुर्दशदिवसयुद्धे एकोननवतितमोऽध्यायः।। 89 ।। |
5-89-17 निर्व्यूह आयुधविशेषः।। 5-89-20 प्रतिसञ्चरते प्रत्युद्रच्छति।। 5-89-22 यत्तस्यावहितस्य।। 5-89-28 द्रुतं विद्रुतम्। आविग्नं भीतम्।। 5-89-30 साधुवाहितैः सुष्ठु व्यापारीतैः।। 5-89-89 एकोननवतितमोऽध्यायः।।
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