महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-117
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सात्यकिपराक्रमवर्णनम्।। 1 ।।
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सञ्जय उवाच। | 5-117-1x |
काल्यमानेषु सैन्येषु शैनेयेन ततस्ततः। भारद्वाजः शरव्रातैर्मर्मभिद्भिरवाकिरत्।। | 5-117-1a 5-117-1b |
स सम्प्रहारस्तुमुलो द्रोणसात्वतयोरभूत्। पश्यतां सर्वसैन्यानां बलिवासवयोरिव।। | 5-117-2a 5-117-2b |
ततो द्रोणः शिनेः पौत्रं चित्रैः सर्वायसैः शरैः। त्रिभिराशीविपाकारैर्ललाटे समविध्यत।। | 5-117-3a 5-117-3b |
तैर्ललाटार्पितैर्बाणैर्युयुधानस्त्वजिह्मगैः। व्यरोचत महाराज त्रिशृङ्ग इव पर्वतः।। | 5-117-4a 5-117-4b |
ततोऽस्य बाणानपरानिन्द्राशनिसमस्वनान्। भारद्वाजोऽन्तरप्रेक्षी प्रेषयामास संयुगे।। | 5-117-5a 5-117-5b |
तान्द्रोणचापनिर्मुक्तान्दाशार्हः पततः शरान्। द्वाभ्यांद्वाभ्यां सुपुङ्खाभ्यां चिच्छेद परमास्त्रवित्।। | 5-117-6a 5-117-6b |
तामस्य लघुतां द्रोणः समवेक्ष्य विशाम्पते। प्रहस्य सहसाऽविध्यत्त्रिंशतां शिनिपुङ्गवम्।। | 5-117-7a 5-117-7b |
पुनः पञ्चशतेषूणां शितेन च समार्पयत्। लघुतां युयुधानस्य लाघवेन विशेषयन्।। | 5-117-8a 5-117-8b |
समुत्पतन्ति वल्मीकाद्यथा क्रुद्धा महोरगाः। तथा द्रोणरथाद्राजन्नापतन्ति तनुच्छिदः।। | 5-117-9a 5-117-9b |
तथैव युयुधानेन सृष्टाः सतसहस्रशः। अवाकिरन्द्रोणरथं शरा रुधिरभोजनाः।। | 5-117-10a 5-117-10b |
लाघवाद्दिजमुख्यस्य सात्वतस्य च मारिष। विशेषं नाध्यगच्छाम समावास्तां नरर्षभौ।। | 5-117-11a 5-117-11b |
सात्यकिस्तु ततो द्रोणं नवभिर्नतपर्वभिः। आजघान भृशं क्रुद्धो ध्वजं च निशितैः शरैः।। | 5-117-12a 5-117-12b |
सारथिं च शतेनैव भारद्वाजस्य पश्यतः। लाघवं युयुधानस्य दृष्ट्वा द्रोणो महारथः।। | 5-117-13a 5-117-13b |
सप्तत्या सारथिं विद्व्वा तुरङ्गांश्च त्रिभिस्त्रिभिः। ध्वजमेकेन चिच्छेद माधवस्य रथे स्थितम्।। | 5-117-14a 5-117-14b |
अथापरेण भल्लेन हेमपुङ्खेन पत्रिणा। धनुश्चिच्छेद समरे माधवस्य महात्मनः।। | 5-117-15a 5-117-15b |
सात्यकिस्तु ततः क्रुद्धो धनुस्त्यक्त्वा महारथः। गदां जग्राह महतीं भारद्वाजाय चाक्षिपत्।। | 5-117-16a 5-117-16b |
तामापतन्तीं सहसा पट्टबद्धामयस्मयीम्। न्यवारयच्छरैर्द्रोणो बहुभिर्बहुरूपिभिः।। | 5-117-17a 5-117-17b |
अथान्यद्धनुरादाय सात्यकिः सत्यविक्रमः। विव्याध बहुभिर्वीरं भारद्वाजं शिलाशितैः।। | 5-117-18a 5-117-18b |
स विद्वा समरे द्रोणं सिंहनादममुञ्चत। तं वै न मृमषे द्रोणः सिंहनादं महात्मनः।। | 5-117-19a 5-117-19b |
ततः शक्तिं रणे द्रोणो रुक्मदण्डामयस्मयीम्। तरसा प्रेषयामास माधवस्य रथं प्रति।। | 5-117-20a 5-117-20b |
अनासाद्य तु शैनेयं सा शक्तिः कालसन्निभा। भित्त्वा रथं जगामोग्ना धरणीं दारुणस्वना।। | 5-117-21a 5-117-21b |
ततो द्रोणं शिनेः पौत्रो राजन्विव्याध पत्रिणा। दक्षिणं भुजमासाद्य पीडयन्भरतर्षभ।। | 5-117-22a 5-117-22b |
द्रोणोऽपि समरे राजन्माधवस्य महद्धनुः। अर्धचन्द्रेण चिच्छेद रथशक्त्या च सारथिम्।। | 5-117-23a 5-117-23b |
मुमोह सारथिस्तस्य रथशक्त्या समाहतः। स रथोपस्थमासाद्य मुहूर्तं सन्न्यषीदत।। | 5-117-24a 5-117-24b |
चकार सात्यकी राजंस्तत्र कर्मातिमानुषम्। अयोधयच्च यद्द्रोणं रश्मीञ्जग्राह च स्वयम्।। | 5-117-25a 5-117-25b |
ततः शरशतेनैव युयुधानो महारथः। अविध्यद्ब्राह्मणं सङ्ख्ये हृष्टरूपो विशाम्पते।। | 5-117-26a 5-117-26b |
तस्य द्रोणः शरान्पञ्च प्रेषयामास भारत। ते घोराः कवचं भित्त्वा पपुः शोणितमाहवे।। | 5-117-27a 5-117-27b |
निर्विद्धस्तु शरैर्घोरैरक्रुद्ध्यत्सात्यकिर्भृशम्। सायकान्व्यसृजच्चापि वीरो रुक्मरथं प्रति।। | 5-117-28a 5-117-28b |
ततो द्रोणस्य यन्तारं निपात्यैकेषुणा भुवि। अश्वान्व्यद्रावयद्बाणैर्हतसूतांस्ततस्ततः।। | 5-117-29a 5-117-29b |
स रथः प्रद्रुतः सङ्ख्ये मण्डलानि सहस्रशः। चकार राजतो राजन्भ्राजमान इवांशुमान्।। | 5-117-30a 5-117-30b |
अभिद्रवत गृह्णीत हयान्द्रोणस्य धावत। इति स्म चुक्रुशुः सर्वे राजपुत्राः सराजकाः।। | 5-117-31a 5-117-31b |
ते सात्यकिमपास्याशु राजन्युधि महारथाः। यतो द्रोणस्ततः सर्वे सहसा समुपाद्रवन्।। | 5-117-32a 5-117-32b |
तान्दृष्ट्वा प्रद्रुतान्सङ्ख्ये सात्वतेन शरार्दितान्। प्रभग्नं पुनरेवासीत्तव सैन्यं समाकुलम्।। | 5-117-33a 5-117-33b |
व्यूहस्यैव पुनर्द्वारं गत्वा द्रोणो व्यवस्थितः। वातायमानैस्तैरश्वैर्नीतो वृष्णिशरार्दितैः।। | 5-117-34a 5-117-34b |
पाण्डुपाञ्चालसम्भिन्नं व्यूहमालोक्य वीर्यवान्। शैनेये नाकरोद्यत्नं व्यूहमेवाभ्यरक्षत।। | 5-117-35a 5-117-35b |
निवार्य पाण्डुपाञ्चालान्द्रोणाग्निः प्रदहन्निव। तस्थौ क्रोधेध्मसन्दीप्तः कालसूर्य इवोद्यतः।। | 5-117-36a 5-117-36b |
।। इति श्रीमन्महाभारते द्रोणपर्वणि जयद्रथवधपर्वणि चतुर्दशदिवसयुद्धे सप्तदशाधिकशततमोऽध्यायः।। 117 ।। |
5-117-23 रथशक्त्या केतकपत्राकारमुखया शक्त्या।। 5-117-117 सप्तदशाधिकशततमोऽध्यायः।।
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