महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-035
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युधिष्ठिरेणाभिमन्युम्प्रति पद्मव्यूहभेदनचोदना।। 1 ।।
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सञ्जय उवाच। | 5-35-1x |
तदनीकमनाधृष्टं भारद्वाजेन रक्षितम्। पार्थाः समभ्यवर्तन्त भीमसेनपुरोगमाः।। | 5-35-1a 5-35-1b |
सात्यकिश्चेकितानश्च धृष्टद्युम्नश्च पार्षतः। कुन्तिभोजश्च विक्रान्तो द्रुपदश्च महारथः।। | 5-35-2a 5-35-2b |
आर्जुनिः क्षत्रधर्मा च बृहत्क्षत्रश्च वीर्यवान्। चेदिपो धृष्टकेतुश्च माद्रीपुत्रौ घटोत्कचः।। | 5-35-3a 5-35-3b |
युधामन्युश्च विक्रान्तः शिखण्डी चापराजितः। उतक्तमौजाश्च दुर्धर्षो विराटश्च महारथः।। | 5-35-4a 5-35-4b |
द्रौपदेयाश्च संरब्धाः शैशुपालिश्च वीर्यवान्। केकयाश्च महावीर्याः सृञ्जयाश्च सहस्रशः।। | 5-35-5a 5-35-5b |
एते चान्ये च सगणाः कृतास्त्रा युद्धदुर्मदाः। समभ्यधावन्सहसा भारद्वाजं युयुत्सवः।। | 5-35-6a 5-35-6b |
समीपे वर्तमानांस्तान्भारद्वाजोऽतिवीर्यवान्। असम्भ्रान्तः शरौघेण महता समवारयत्।। | 5-35-7a 5-35-7b |
महौघः सलिलस्येव गिरिमासाद्य दुर्भिदम्। द्रोणं ते नाभ्यवर्तन्त वेलामिव जलाशयाः।। | 5-35-8a 5-35-8b |
पीड्यमानाः शरै राजन्द्रोणचापविनिःसृतैः। न शेकुः प्रमुखे स्थातुं भारद्वाजस्य पाण्डवाः।। | 5-35-9a 5-35-9b |
तदद्भुतमपश्याम द्रोणस्य भुजयोर्बलम्। यदेनं नाभ्यवर्तन्त पाञ्चालाः सृञ्जयैः सह।। | 5-35-10a 5-35-10b |
तमायान्तमभिक्रुद्धं द्रोणं दृष्ट्वा युधिष्ठिरः। बहुधा चिन्तयामास द्रोणस्य प्रतिवारणम्।। | 5-35-11a 5-35-11b |
अशक्यं तु तमन्येन द्रोणं मत्त्वा युधिष्ठिरः। अविषह्यं गुर भारं सौभद्रे समवासृजत्।। | 5-35-12a 5-35-12b |
वासुदेवादनवरं फल्गुनाच्चामितौजसम्। अब्रवीत्परवीरघ्नमभिमन्युमिदं वचः।। | 5-35-13a 5-35-13b |
युधिष्ठिर उवाच। | 5-35-14x |
एत्य नो नार्जुनो गर्हेद्यथा तात तथा कुरु। द्रोणानीकस्य न वयं विद्मो भेदं कथञ्चन।। | 5-35-14a 5-35-14b |
त्वं वाऽर्जुनो वा कृष्णो वा भिन्द्यात्प्रद्युम्न एव वा। द्रोणानीकं महाबाहो पञ्चमो नोपपद्यते।। | 5-35-15a 5-35-15b |
अभिमन्यो वरं तात याचे त्वां दातुमर्हसि। पितॄणां मातुलानां च सैन्यानां चैव सर्वशः।। | 5-35-16a 5-35-16b |
धनञ्जयो हि नस्तात गर्हयेदेत्य संयुगात्। क्षिप्रमस्त्रं समादाय द्रोणानीकं विशातय।। | 5-35-17a 5-35-17b |
अभिमन्युरुवाच। | 5-35-18x |
द्रोणस्य दृढमत्युग्रमनीकप्रवरं युधि। पितॄणां जयमाकाङ्क्षन्नवगाहेऽविलम्बितम्।। | 5-35-18a 5-35-18b |
उपदिष्टो हि मे पित्रा योगोऽनीकविशातने। नोत्सहे हि विनिर्गन्तुमहं कस्याञ्चिदापदि।। | 5-35-19a 5-35-19b |
युधिष्ठिर उवाच। | 5-35-20x |
भिन्ध्यनीकं युधांश्चेष्ठ द्वारं सञ्जनयस्व नः। वयं त्वाऽनुगमिष्यामो येन त्वं तात यास्यसि।। | 5-35-20a 5-35-20b |
धनञ्जयसमं युद्धे त्वां वयं तात संयुते। प्रणिधायानुयास्यामो रक्षन्तः सर्वतोमुखाः।। | 5-35-21a 5-35-21b |
भीम उवाच। | 5-35-22x |
अहं त्वाऽनुगमिष्यामि धृष्टद्युम्नोऽथ सात्यकिः। पाञ्चलाः केकया मात्स्यास्तथा सर्वे प्रभद्रकाः।। | 5-35-22a 5-35-22b |
सकृद्भिन्नं त्वया व्यूहं तत्र तत्र पुनः पुनः। वयं प्रध्वंसयिष्यामो निघ्नामाना वरान्वरान्।। | 5-35-23a 5-35-23b |
अभिमन्युरुवाच। | 5-35-24x |
अहमेतत्प्रवेक्ष्यामि द्रोणानीकं दुरासदम्। पतङ्ग इव सङ्क्रुद्धो ज्वलितं जातवेदसम्।। | 5-35-24a 5-35-24b |
तत्कर्माद्य करिष्यामि हितं यद्वंशयोर्द्वयोः। मातुलस्य च यत्प्रीतिं करिष्यति पितुश्च मे।। | 5-35-25a 5-35-25b |
शिशुनैकेन सङ्ग्रमे काल्यमानानि सङ्घशः। द्रक्ष्यन्ति सर्वभूतानि द्विषत्सैन्यानि वै मया।। | 5-35-26a 5-35-26b |
नाहं पार्थेन जातः स्यां न च जातः सुभद्रया। यदि मे संयुगे कश्चिज्जीवितो नाद्य मुच्यते।। | 5-35-27a 5-35-27b |
यदि चैकरथेनाहं समग्रं क्षत्रमण्डलम्। न करोम्यष्टधा युद्धे न भवाम्यर्जुनात्मजः।। | 5-35-28a 5-35-28b |
युधिष्ठिर उवाच। | 5-35-29x |
एवं ते भाषमाणस्य बलं सौभद्र वर्धताम्। यत्समुत्सहसे भेत्तुं द्रोणानीकं दुरासदम्।। | 5-35-29a 5-35-29b |
रक्षितं पुरुषव्याघ्रैर्महेष्वासैर्महाबलै। साध्यरुद्रमरुत्तुल्यैर्वस्वग्न्यादित्यविक्रमैः।। | 5-35-30a 5-35-30b |
सञ्जय उवाच। | 5-35-31x |
तस्य तद्वचनं श्रुत्वा स यन्तारमचोदयत्।। | 5-35-31a |
सुमित्राश्वान्रणे क्षिप्रं द्रोणानीकाय चोदय।। | 5-35-32a |
।। इति श्रीमन्महाभारते द्रोणपर्वणि अभिमन्युवधपर्वणि त्रयोधशदिवसयुद्धे पञ्चत्रिंशोऽध्यायः।। 35 ।। |
5-35-16 मातुलानां सात्यकिप्रभृतीनाम्।। 5-35-19 योग उपायो युक्तिर्वा ।। 5-35-21 प्रणिधाय प्रविश्य।। 5-35-35 पञ्चत्रिंशोःऽध्यायः।।
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