महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-003
← द्रोणपर्व-002 | महाभारतम् सप्तमपर्व महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-003 वेदव्यासः |
द्रोणपर्व-004 → |
कर्णेन भीष्ममेत्य युद्धानज्ञायाचनम्।। 3 ।।
|
सञ्जय उवाच। | 5-3-1x |
शरतल्पे महात्मानं शयानममितौजसम्। महावातसमूहेन समुद्रमिव शोषितम्।। | 5-3-1a 5-3-3b |
दृष्ट्वा पितामहं भीष्मं सर्वक्षत्रान्तकं गुरुम्। दिव्यैरस्त्रैर्महेष्वासं पातितं सव्यसाचिना। जयाशा तव पुत्राणां संभग्ना शर्म वर्म च।। | 5-3-2a 5-3-2b 5-3-2c |
अपाराणामिव द्वीपमगाधे गाधमिच्छताम्। स्रोतसा यामुनेनेव शरौघेण परिप्लुतम्।। | 5-3-3a 5-3-3b |
महान्तमिव मैनाकमहार्यं भुवि पातितम्। नभश्च्युतमिवादित्यं शक्रस्येवामृतं हृतम्।। | 5-3-4a 5-3-4b |
शतक्रतुभिवाचिन्त्यं पुरा वृत्रेणा निर्जितम्। मोहनं सर्वसैन्यस्य युधि भीष्मं निपातितम्।। | 5-3-5a 5-3-5b |
ककुदं सर्वसैन्यानां लक्ष्म सर्वधनुष्मताम्। धनंजयशरैर्व्याप्तं पितरं ते महाव्रतम्। | 5-3-6a 5-3-6b |
तं वीरशयने वीरं शयानं पुरुषर्षभम्। भीष्ममाधिरथिर्दृष्ट्वा भरतानां पितामहम्।। | 5-3-7a 5-3-7b |
प्रस्कन्द्य स रथात्तूर्णं शोकमोहपरिप्लुतः। `पद्भ्यामेव जगामार्तो बाष्पव्याकुललोचनः'।। अभिवाद्याञ्जलिं बद्ध्वा वन्दमानोऽभ्यभाषत।। | 5-3-8a 5-3-8b 5-3-8c |
कर्णोऽहमस्मि भद्रं ते वद मामभि भारत। पुण्यया क्षेमया वाचा चक्षुषा चावलोकय।। | 5-3-9a 5-3-9b |
न नूनं सुकृतस्येह फलं कश्चित्समश्नुते। यत्र धर्मपरो वृद्धः शेते भुवि भवानिह।। | 5-3-10a 5-3-10b |
कोशसञ्चयने मन्त्रे व्यूहे प्रहरणेषु च। नाहमन्यं प्रपश्यामि कुरूणां कुरुपुङ्गव।। | 5-3-11a 5-3-11b |
बुद्ध्या विशुद्धया युक्तो यः कुरूंस्तारयेद्भयात्। योधांस्त्वमप्लुवे हित्वा पितुलोकं गमिष्यसि।। | 5-3-12a 5-3-12b |
अद्यप्रभृति सङ्क्रुद्धा व्याघ्रा इव मृगक्षयम्। पाण्डवा भरतश्रेष्ठ करिष्यन्ति कुरुक्षयम्।। | 5-3-13a 5-3-13b |
अद्य गाण्डीवधोपेण वीर्यज्ञाः सव्यसाचिनः। कुरवः सन्त्रसिष्यन्ति वज्रघोषादिवासुराः।। | 5-3-14a 5-3-14b |
अद्य गाण्डीवमुक्तानामशनीनामिव xxxः। त्रासयिष्यति बाणानां कुरूनन्यांश्च पथिxx | 5-3-15a 5-3-15b |
समिद्धोऽग्निर्यथा वीर महाज्वालो द्रुमान्दxxxत्। धार्तराष्ट्राः इधक्ष्यन्ति तथा बाणाः किरीटिxx | 5-3-16a 5-3-16b |
येन येन प्रसरतो वाय्वग्नी सहितौ वने। तेन तेन प्रदहतो भूरिगुल्मतृणद्रुमान्।। | 5-3-17a 5-3-17b |
यादृशोऽग्निः समुद्भूतस्तादृक्पार्थो न संशयः। यथा वायुर्नरव्याघ्र तथा कृष्णो संशयः।। | 5-3-18a 5-3-18b |
xxदतः पाञ्चजन्यस्य रसतो गाण्डिवस्य च। श्रुत्वा सर्वाणि सैन्यानि त्रासं यास्यन्ति भारत। | 5-3-19a 5-3-19b |
कपिध्वजस्योत्पततो रथस्यामित्रकर्शिनः। शब्दं सोढुं न शक्ष्यन्ति त्वामृते वीर पार्थिवाः।। | 5-3-20a 5-3-20b |
को ह्यर्जुनं योधयितुं त्वदन्यः पार्थिवोऽर्हति। यस्य दिव्यानि कर्माणि प्रवदन्ति मनीषिणः। | 5-3-21a 5-3-21b |
अमानुषैश्च संग्रामं त्र्यम्बकेण महात्मना। तस्माच्चैव वरं प्राप्तो दुष्प्रापश्चाकृतात्मभिः।। | 5-3-22a 5-3-22b |
कोऽन्यः शक्तो रणे जेतुं पूर्वं यो न जितस्त्वया। जितो येन रणे रामो भवता वीर्यशालिना। | 5-3-23a 5-3-23b |
क्षत्रियान्तकरो घोरो देवदानवदर्पहा। `सोप्यद्याभिहतः शेते शरैः प्रोतः शिखण्डिना।। | 5-3-24a 5-3-24b |
तमद्याहं पाण्डवं युद्धशौण्डममृष्यमाणो भवता चानुशिष्टः। आशीविषं हष्टिहरं सुघोरं शूरं शक्ष्याम्यस्त्रबलान्निहन्तुम्।। | 5-3-25a 5-3-25b |
।। इति श्रीमन्महाभारते द्रोणपर्वणि द्रोणाभिषेकपर्वणि तृतीयोऽध्यायः।। 3 ।। |
5-3-6 ककुदं श्रेष्ठम् 5-3-39 xxxतः शब्दं कुर्वतः।। 5-3-22 अमानुषैर्निवातकवचादिभिः।। 5-3-3 तृतीयोऽध्यायः।।
द्रोणपर्व-002 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | द्रोणपर्व-004 |