महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-063
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नारद उवाच।
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नारद उवाच। | 5-63-1x |
ययातिं नाहुषं चैव मृतं सृञ्जय शुश्रुम। `य इमां पृथिवीं जित्वा ससमुद्रां सपर्वताम्।। | 5-63-1a 5-63-1b |
शम्याप्रासेन निर्माय वेदीः सन्नतदक्षिणाः। ईजानः क्रतुभिः पुण्यैः पर्यगच्छत्प्रदक्षिणम्'।। | 5-63-2a 5-63-2b |
राजसूयशतैरिष्ट्वा सोऽश्वमेधशतेन च। पुण्डरीकसहस्रेण वाजपेयशतैस्तथा।। | 5-63-3a 5-63-3b |
अतिरात्रसहस्रेण चातुर्मास्यैश्च कामतः। अग्निष्टोमैश्च विविधैः सत्रैश्च प्राज्यदक्षिणैः।। | 5-63-4a 5-63-4b |
अब्राह्मणानां यद्वित्तं पृथिव्यामस्ति किञ्चन। तत्सर्वं परिसङ्ख्याय ततो ब्राह्मणसात्करोत्।। | 5-63-5a 5-63-5b |
सरस्वती पुण्यतमा नदीनां तथा समुद्राः सरितः साद्रयश्च। ईजानाय पुण्यतमाय राज्ञे घृतं पयो दुदुहुर्नाहुषाय।। | 5-63-6a 5-63-6b 5-63-6c 5-63-6d |
व्यूढे देवासुरे युद्धे कृत्वा देवसहायताम्। चतुर्धा व्यभजत्सर्वां चतुर्भ्यः पृथिवीमिमाम्।। | 5-63-7a 5-63-7b |
यज्ञैर्नानाविधैरिष्ट्वा प्रजामुत्पाद्य चोत्तमाम्। देवयान्यां चौशनस्यां शर्मिष्ठायां च धर्मतः।। | 5-63-8a 5-63-8b |
देवारण्येषु सर्वेषु विजहारामरोपमः। आत्मनः कामचारेण द्वितीय इव वारावः।। | 5-63-9a 5-63-9b |
यदा नाभ्यगमच्छान्तिं कामानां सर्ववेदवित्। ततो गाथामिमां गीत्वा सदारः प्राविशद्वनम्।। | 5-63-10a 5-63-10b |
यत्पृथिव्यां व्रीहियवं हिरण्यं पशवः स्त्रियः। नालमेकस्य तत्सर्वमिति मत्वा शमं व्रजेत्।। | 5-63-11a 5-63-11b |
एवं कामान्परित्यज्य ययातिर्धृतिमेत्य च। पूरुं राज्ये प्रतिष्ठाप्य प्रयातो वनमीश्वरः।। | 5-63-12a 5-63-12b |
स चेन्ममार सृञ्जय चतुर्भद्रतरस्त्वया। पुत्रात्पुण्यतरस्तुभ्यं मा पुत्रमनुतप्यथाः। अयज्वानमदक्षिण्यमभि श्वैत्येत्युदाहरत्।। | 5-63-13a 5-63-13b 5-63-13c |
।। इति श्रीमन्महाभारते द्रोणपर्वणि अभिमन्युवधपर्वणि षोडशराजकीये त्रिषष्टितमोऽध्यायः।। 63 ।। |
5-63-4 प्राज्यदक्षिणैः बहुदक्षिणैः।। 5-63-5 अब्राह्मणानां ब्राह्मणद्वेषिणाम्। म्लेच्छानामिति यावत्। परिसङ्क्याय अपहृत्य।। 5-63-7 चतुर्भ्यः ऋत्विग्भ्यः। प्राचीदिग्घोतुर्दक्षिणाध्वर्योरित्यादिश्रुतेः।। 5-63-63 त्रिषष्टितमोऽध्यायः।।
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