महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-071
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युधिष्ठिरं समाश्वास्य स्वाश्रमगमनम्।। 1 ।।
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व्यास उवाच। | 5-71-1x |
पुण्यमाख्यानमायुष्यं श्रुत्वा षोडशराजकम्। अव्याहरन्नरपतिस्तूष्णीमासीत्स सृञ्जयः।। | 5-71-1a 5-71-1b |
तमब्रवीत्तदा दीनं नारदो भगवानृषिः। कच्चिन्मया व्याहृतं यद्धृदये तत्स्थितं तव।। | 5-71-2a 5-71-2b |
आहोस्विदन्ततो नष्टं श्राद्धं शूद्रीपताविव। स एवमुक्तः प्रत्याह प्राञ्जलिः सृञ्जयस्तदा।। | 5-71-3a 5-71-3b |
पुत्रशोकापहं श्रुत्वा धन्यमाख्यानमुत्तमम्। राजर्षीणां पुराणानां यज्वनां दक्षिणावताम्।। | 5-71-4a 5-71-4b |
विस्मयेन हृते शोके तमसीवार्कतेजसा। विपाप्माऽस्म्यव्यथोपेतो ब्रूहि किं करवाण्यहम्।। | 5-71-5a 5-71-5b |
नारद उवाच। | 5-71-6x |
दिष्ट्यापहतशोकस्त्वं वृणीष्वेह यदिच्छसि। तत्ते सम्पत्स्यते सर्वं न मृषावादिनो वयम्।। | 5-71-6a 5-71-6b |
सृञ्जय उवाच। | 5-71-7x |
पावितोऽहमनेनैव प्रसन्नो यद्भवान्मम्। प्रसन्नो यस्य भगवान्न तस्यास्तीह दुर्लभम्।। | 5-71-7a 5-71-7b |
नारद उवाच। | 5-71-8x |
पुनर्ददामि ते पुत्रं दस्युभिर्निहतं वृथा। उद्धृत्य नरकात्कष्टात्पशुवत्प्रोक्षितं यथा।। | 5-71-8a 5-71-8b |
व्यास उवाच। | 5-71-9x |
प्रादुरासीत्ततः पुत्रः सृञ्जयस्याद्भुतप्रभः। प्रसन्नेनर्षिणा दत्तः कुबेरतनयोपमः।। | 5-71-9a 5-71-9b |
ततः सङ्गम्य पुत्रेण प्रीतिमानभवन्नृपः। ईजे च क्रतुभिः पुण्यैः समाप्तवरदक्षिणैः।। | 5-71-10a 5-71-10b |
अकृतार्थश्च भीतश्च न च सन्नाहकोविदः। अयज्वाचानपत्यश्च ततोऽसौ जीवितः पुनः।। | 5-71-11a 5-71-11b |
शूरो वीरः कृतार्थश्च प्रमथ्यारीन्सहस्रशः। अभिमन्युर्गतः स्वर्गं सङ्ग्रामेऽभिमुखाहतः।। | 5-71-12a 5-71-12b |
ब्रह्मचर्येण याँल्लोकान्प्रजया च श्रुतेन च। इष्टैश्च क्रतुभिर्यान्ति तांस्ते पुत्रोऽक्षयान्गतः।। | 5-71-13a 5-71-13b |
विद्वांसः कर्मभिः पुण्यैः स्वर्गमीहन्ति नित्यशः। न तु स्वर्गादयं लोकः काम्यते स्वर्गवासिभिः।। | 5-71-14a 5-71-14b |
तस्मात्स्वर्गगतं पुत्रमर्जुनस्य हतं रणे। न चेहानयितुं शक्यं किञ्चिदप्राप्यमीहितम्।। | 5-71-15a 5-71-15b |
यां योगिनो ध्यानविविक्तदर्शनाः प्रयान्ति यां चोत्तमयज्विनो जनाः। तपोभिरिद्धैरनुयान्ति यां तथा तामक्षयां ते तनयो गतो गतिम्।। | 5-71-16a 5-71-16b 5-71-16c 5-71-16d |
अन्तात्पुनर्भावगतो विराजते राजेव वीरो ह्यमृतात्मरश्मिभिः। तामैन्दवीमात्मतनुं द्विजोचितां गतोऽभिमन्युर्न स शोकमर्हति।। | 5-71-17a 5-71-17b 5-71-17c 5-71-17d |
एवं ज्ञात्वा स्थिरो भूत्वा मा शुचो धैर्यमाप्नुहि। जीवन्हि पुरुषः शोच्यो न तु स्वर्गगतोऽनघ।। | 5-71-18a 5-71-18b |
शोचतो हि महाराज अघमेवाभिवर्धते। तस्माच्छोकं परित्यज्य श्रेयसे प्रयतेद्बुधः।। | 5-71-19a 5-71-19b |
प्रहर्षं प्रीतिमानन्दं प्रियमुत्सिक्तचित्तताम्। एतदाहुर्बुधाः शौचमशौचं शोक उच्यते।। | 5-71-20a 5-71-20b |
एवं विद्वन्समुत्तिष्ठ प्रयतो भव मा शुचः। श्रुतस्ते सम्भवो मृत्योस्तपांस्यनुपमानि च।। | 5-71-21a 5-71-21b |
सर्वभूतसमत्वं च ब्रह्मणा चापि चोदितम्। सृञ्जयस्य तु पुत्रोऽसौ मृतः सञ्जीवितः श्रुतः।। | 5-71-22a 5-71-22b |
एवं विद्वन्महाराज मा शुचः साधयाम्यहम्। एतावदुक्त्वा भगवांस्तत्रैवान्तरधीयत।। | 5-71-23a 5-71-23b |
वागीशाने भगवति व्यासे व्यभ्रनभःप्रभे। गते मतिमतां श्रेष्ठे समाश्वास्य युधिष्ठिरम्।। | 5-71-24a 5-71-24b |
पूर्वेषां पार्थिवेन्द्राणआं महेन्द्रप्रतिमौजसाम्। न्यायाधिगतवित्तानां तां श्रुत्वा यज्ञसम्पदम्।। | 5-71-25a 5-71-25b |
सम्पूज्य मनसा विद्वान्विशोकोऽभूद्युधिष्ठिरः। पुनश्चाचिन्तयद्दीनः किंस्विद्वक्ष्ये धनञ्जयम्।। | 5-71-26a 5-71-26b |
।। इति श्रीमन्महाभारते द्रोणपर्वणि अभिमन्युवधपर्वणि एकसप्ततितमोऽध्यायः।। 71 ।। |
5-71-5 विस्मयेन पुण्याख्यानश्रवणजनितचित्तविस्तारेण।। 5-71-15 नेहानियतिना ह्यस्य किं चिदव्याप्तमीहते इति क.पाठः। न चेहानयितुं शक्यं किं चिरं प्राप्यमीहता इति ङ. पाठः। नेहानेयतिना ह्यस्य किञ्चिदप्राप्यमीशितुः इति ड.पाठः।। 5-71-17 अन्तान्मरणात्। भावगतः सम्पत्प्राप्तः। द्विजोचितां द्विजैरभिमताम्।। 5-71-19 अधं दुःखम्।। 5-71-71 एकसप्ततितमोऽध्यायः।।
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