महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-174
← द्रोणपर्व-173 | महाभारतम् सप्तमपर्व महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-174 वेदव्यासः |
द्रोणपर्व-175 → |
कर्णं युयुत्सोरर्जुनस्य कृष्णेन सहेतुकथनं तेन युद्धनिषेधः।। 1 ।। कृष्णार्जुनचोदनया घटोत्कचस्य कर्णेन सह रणारम्भः।। 2 ।।
|
सञ्जय उवाच। | 5-174-1x |
ततः कर्णो रणे दृष्ट्वा पार्षतं परवीरहा। आजघानरोसि शरैर्दशभिर्मर्मभेदिभिः।। | 5-174-1a 5-174-1b |
प्रतिविव्याध तं तूर्णं धृष्टद्युम्नोपि मारिष। दशभिः सायकैर्हृष्टस्तिष्ठतिष्ठेति चाब्रवीत्।। | 5-174-2a 5-174-2b |
तावन्योन्यं शरैः सङ्ख्ये सञ्छाद्य सुमहारथैः। पुनः पूर्णायतोत्सृष्टैर्विव्यधाते परस्परम्।। | 5-174-3a 5-174-3b |
ततः पाञ्चालमुख्यस्य धृष्टद्युम्नस्य संयुगे। सारथिं चतुरश्चाश्वान्कर्णो विव्याध सायकैः।। | 5-174-4a 5-174-4b |
कार्मुकप्रवरं चापि प्रचिच्छेद शितैः शरैः। सारथिं चास्य भल्लेन रथनीडादपातयत्।। | 5-174-5a 5-174-5b |
धृष्टद्युम्नस्तु विरथो हताश्वो हतसारथिः। गृहीत्वा परिघं घोरं कर्णस्याश्वानपीडयत्।। | 5-174-6a 5-174-6b |
विद्धश्च बहुभिस्तेन शरैराशीविषोपमैः। ततो युधिष्ठिरानीकं पद्ध्यामेवान्वपद्यत।। | 5-174-7a 5-174-7b |
आरुरोह रथं चापि सहदेवस्य मारिष। प्रयातुकामः कर्णाय वारितो धर्मसूनुना।। | 5-174-8a 5-174-8b |
कर्णस्तु सुमहातेजाः सिंहनादविमिश्रितम्। धनुःशब्दं महच्चक्रे दध्मौ तारेण चाम्बुजम्।। | 5-174-9a 5-174-9b |
दृष्ट्वा विनिर्जितं युद्धे पार्षतं ते महारथाः। अमर्षवशमापन्नाः पाञ्चालाः सहसोमकाः।। | 5-174-10a 5-174-10b |
सूतपुत्रवधार्थाय शस्त्राण्यादाय सर्वशः। प्रययुः कर्णमुद्दिश्य मृत्युं कृत्वा निवर्तनम्।। | 5-174-11a 5-174-11b |
कर्णस्यापि रथे वाहानन्यान्सूतोऽभ्ययोजयत्। शङ्खवर्णान्महावेगान्सैन्धवान्साधुवाहिनः।। | 5-174-12a 5-174-12b |
लब्धलक्षस्तु राधेयः पञ्चालानां महारथान्। अभ्यपीडयदायस्तः शरैर्मेघ इवाचलम्।। | 5-174-13a 5-174-13b |
सा पीड्यमाना कर्णेन पाञ्चालानां महाचमूः। सम्प्राद्रवत्सुसन्त्रस्ता सिंहेनेवार्दिता मृगी।। | 5-174-14a 5-174-14b |
पतितास्तुरगेभ्यश्च गजेभ्यश्च महीतले। रथेभ्यश्च नरास्तूर्णमदृश्यन्त ततस्ततः।। | 5-174-15a 5-174-15b |
धावमानस्य योधस्य क्षुरप्रैः स महामृधे। बाहू चिच्छेद वै कर्णः शिरश्चैव सकुण्डलम्।। | 5-174-16a 5-174-16b |
ऊरू चिच्छेद चान्यस्य गजस्थस्य विशाम्पते। वाजिपृष्ठगतस्यापि भूमिष्ठस्य च मारिष।। | 5-174-17a 5-174-17b |
नाज्ञासिषुर्धावमाना बहवश्च महारथाः। सञ्छिन्नान्यात्मगात्राणि वाहनानि च संयुगे।। | 5-174-18a 5-174-18b |
ते वध्यमानाः समरे पाञ्चालाः सृञ्जयैः सह। तृणप्रस्पन्दनाच्चापि सूतपुत्रं स्म मेनिरे।। | 5-174-19a 5-174-19b |
अपि स्वं समरे योधं धावमानं विचेतसम्। कर्णमेवाभ्यमन्यन्त ततो भीता द्रवन्ति ते।। | 5-174-20a 5-174-20b |
तान्यनीकानि भग्नानि द्रवमाणानि भारत। अभ्यद्रवद्द्रुतं कर्णः पृष्ठतो विकिरञ्छरान्।। | 5-174-21a 5-174-21b |
अवेक्षमाणास्त्वन्योन्यं सुसम्मूढा विचेतसः। नाशक्नुवन्नवस्थातुं काल्यमाना महात्मना।। | 5-174-22a 5-174-22b |
कर्णेनाभ्याहता राजन्पाञ्चालाः परमेषुभिः। द्रोणेन च दिशः सर्वा वीक्षमाणाः प्रदुद्रुवुः।। | 5-174-23a 5-174-23b |
ततो युधिष्ठिरो राजा स्वसैन्यं प्रेक्ष्य विद्रुतम्। अपयाने मनः कृत्वा फल्गुनं वाक्यमब्रवीत्।। | 5-174-24a 5-174-24b |
पश्य कर्णं महेष्वासं धनुष्पाणिमवस्थितम्। निशीथे दारुणे काले तपन्तमिव भास्करम्।। | 5-174-25a 5-174-25b |
कर्णसायकनुन्नानां क्रोशतामेष निःस्वनः। अनिशं श्रूयते पार्थ त्वद्बन्धूनामनाथवत्।। | 5-174-26a 5-174-26b |
यथा विसृजतश्चास्य सन्दधानस्य चाशुगान्। पश्यामि नान्तरं पार्थ क्षपयिष्यति नो ध्रुवम्।। | 5-174-27a 5-174-27b |
यदत्रानन्तरं कार्यं प्राप्तकाल च पश्यसि। कर्णस्य वधसंयुक्तं तत्कुरुष्व धनञ्जय।। | 5-174-28a 5-174-28b |
एवमुक्तो महाराज पार्थः कृष्णमथाब्रवीत्। भीतः कुन्तीसुतो राजा राधेयस्याद्य विक्रमात्।। | 5-174-29a 5-174-29b |
एवं गते प्राप्तकालं कर्णानीके पुनः पुनः। भवान्व्यवस्यतु क्षिप्रं द्रवते हि वरूथिनी।। | 5-174-30a 5-174-30b |
द्रोणसायकनुन्नानां भग्नानां मधुसूदन। कर्णेन त्रास्यमानानामवस्थानं न विद्यते।। | 5-174-31a 5-174-31b |
पश्यामि च तथा कर्णं विचरन्तमभीतवत्। द्रवमाणान्रथोदारान्किरन्तं निशितैः शरैः।। | 5-174-32a 5-174-32b |
नैनं शक्ष्यामि संसोढुं चरन्तं रणमूर्धनि। प्रत्यक्षं वृष्णिशार्दूल पादस्पर्शमिवोरगः।। | 5-174-33a 5-174-33b |
स सवांस्तत्र यात्वाशु यत्र कर्णो महारथः। अहमेनं हनिष्यामि मां वैष मधुसूदन।। | 5-174-34a 5-174-34b |
श्रीवासुदेव उवाच। | 5-174-35x |
पश्यामि कर्णं कौन्तेय देवराजमिवाहवे। विचरन्तं नरव्याघ्रमतिमानुषविक्रमम्।। | 5-174-35a 5-174-35b |
नैतस्यान्योऽस्ति सङ्ग्रामे प्रत्युद्याता धनञ्जय। ऋते त्वां पुरुषव्याघ्र राक्षसाद्वा घटोत्कचात्।। | 5-174-36a 5-174-36b |
न तु तावदहं मन्ये प्राप्तकालं तवानघ। समागमं महाबाहो सूतपुत्रेण संयुगे।। | 5-174-37a 5-174-37b |
दीप्यमाना महोल्केव तिष्ठत्यस्य हि वासवी। त्वदर्थं हि महाबाहो सूतपुत्रेण संयुगे।। | 5-174-38a 5-174-38b |
रक्ष्यते शक्तिरेषा हि रौद्रां रूपं बिभर्ति च। घटोत्कचस्तु राधेयं प्रत्युद्यातु महाबलः।। | 5-174-39a 5-174-39b |
स हि भीमेन बलिना जातः सुरपराक्रमः। तस्मिन्नस्त्राणि दिव्यानि राक्षसान्यासुराणि च।। | 5-174-40a 5-174-40b |
सततं चानुरक्तो वो हितैषी च घटोत्कचः। विजेष्यति रणे कर्णमिति मे नात्र संशयः।। | 5-174-41a 5-174-41b |
सञ्जय उवाच। | 5-174-42x |
एवमुक्तो महाबाहुः पार्थः पुष्करलोचनः। आजुहावाथ तद्रक्षस्तच्चासीत्प्रादुरप्रतः।। | 5-174-42a 5-174-42b |
कवची सशरः खङ्गी सधन्वा च विशाम्पते। अभिवाद्य ततः कृष्णं पाण्डवं च धनञ्जयम्। अब्रवीच्च तदा कृष्णमयमस्म्यनुशाधि माम्।। | 5-174-43a 5-174-43b 5-174-43c |
ततस्तं मेघसङ्काशं दीप्तास्यं दीप्तकुण्डलम्। अभ्यभाषत हैडिम्बिं दाशार्हः प्रहसन्निव।। | 5-174-44a 5-174-44b |
वासुदेव उवाच। | 5-174-45x |
घटोत्कच विजानीहि यत्त्वां वक्ष्यामि पुत्रक। प्राप्तो विक्रमकालोऽयं तव नान्यस्य कस्याचित्। स त्वं निमज्जतां युद्धे बन्धूनां बान्धवो भव।। | 5-174-45a 5-174-45b 5-174-45c |
यावन्ति च तवास्त्राणि सन्ति मायाश्च राक्षसीः। `अद्यैव समयस्तेषां मायानां चैव राक्षस'।। | 5-174-46a 5-174-46b |
पश्य कर्णेन हैडिम्बे पाण्डवानामनीकिनीम्। काल्यमानां रणे तात सिंहनेवेतरान्मृगान्।। | 5-174-47a 5-174-47b |
एष कर्णो महेष्वासो मतिमान्दृढविक्रमः। पाण्वानामनीकेषु निहन्ति क्षत्रियर्षभान्।। | 5-174-48a 5-174-48b |
किरन्तः शरवर्षाणि महान्ति दृढधन्विनः। न शक्नुवन्त्यवस्थातुं पीड्यमानाः शरार्चिषा।। | 5-174-49a 5-174-49b |
निशीथे सूतपुत्रेण शरवर्षेण पीडिताः। एते द्रवन्ति पाञ्चालाः सिंहेनेवार्दिता मृशाः।। | 5-174-50a 5-174-50b |
एतस्यैवं प्रवृद्धस्य सूतपुत्रस्य संयुगे। निषेद्धा विद्यते नान्यस्त्वामृते भीमविक्रम।। | 5-174-51a 5-174-51b |
स त्वं कुरु महाबाहो कर्म युक्तमिहात्मनः। मातुलानां पितॄणां च तेसजोऽस्त्रबलस्य च।। | 5-174-52a 5-174-52b |
एतदर्थे हि हैडिम्बे पुत्रानिच्छन्ति मानवाः। कथं नस्तारयेद्दुःखात्स त्वं तारय बान्धवान्।। | 5-174-53a 5-174-53b |
इच्छन्ति पितरः पुत्रान्स्वार्थहेतोर्घटोत्कच। हहलोकात्परे लोके तारयिष्यन्ति ये हिताः।। | 5-174-54a 5-174-54b |
तव ह्यत्र बलं भीमं मायाश्च तव दुस्तराः। सङ्क्रामे युध्यमानस्य सततं भीमनन्दन।। | 5-174-55a 5-174-55b |
पाण्डवानां प्रभग्नानां कर्णेन निशि सायकैः। मज्जतां धार्तराष्ट्रेषु भव पारं परन्तप।। | 5-174-56a 5-174-56b |
रात्रौ हि राक्षसा भूयो भवन्त्यमितविक्रमाः। बलवन्तः सुदुर्धर्षाः शूरा विक्रान्तचारिणः।। | 5-174-57a 5-174-57b |
जहि कर्णं हमेष्वासं निशीथे मायया रणे। पार्था द्रोणं वधिष्यन्ति धृष्टद्युम्नपुरोगमाः।। | 5-174-58a 5-174-58b |
सञ्जय उवाच। | 5-174-59x |
केशवस्य वचः श्रुत्वा बीभत्सुरपि राक्षसम्। अभ्यभाषत कौरव्य घटोत्कचमरिन्दमम्।। | 5-174-59a 5-174-59b |
घटोत्कच भवांश्चैव दीर्घबाहुश्च सात्यकिः। मतौ मे सर्वसैन्येषु भीमसेनश्च पाण्डवः।। | 5-174-60a 5-174-60b |
तद्भवान्यातु कर्णेन द्वैरथं युध्यतां निशि। सात्यकिः पृष्ठगोपस्ते भविष्यति महारथः।। | 5-174-61a 5-174-61b |
जहि कर्णं रणे शूरं सात्वतेन सहायवान्। यथेन्द्रस्तारकं पूर्वं स्कन्देन सह जघ्निवान्।। | 5-174-62a 5-174-62b |
घटोत्कच उवाच। | 5-174-63x |
`एवमेव महाबाहो यथा वदसि मां प्रभो। त्वया नियुक्तो गच्छामि कर्णस्य बधकाङ्क्षया'।। | 5-174-63a 5-174-63b |
अलमेवास्मि कर्णाय द्रोणायालं च भारत। अन्येषां क्षत्रियाणां च कृतास्त्राणां महात्मनाम्।। | 5-174-64a 5-174-64b |
अद्य दास्यामि सङ्ग्रामं सूतपुत्राय तं निशि। यं जनाः सम्प्रवक्ष्यन्ति यावद्भूमिर्धरिष्यति।। | 5-174-65a 5-174-65b |
न चात्र शूरान्मोक्ष्यामि न भीतान्न कृताञ्जलीन्। सर्वानेव वधिष्यामि राक्षसं धर्ममास्थितः।। | 5-174-66a 5-174-66b |
सञ्जय उवाच। | 5-174-67x |
एवमुक्त्वा महाबाहुर्हैडिम्बिः परवीरहा। अभ्ययात्तुमुले कर्णं तव सैन्यं विभीषयन्।। | 5-174-67a 5-174-67b |
तमापतन्तं सङ्क्रुद्धं दीप्तास्यं दीप्तमूर्धजम्। प्रहसन्पुरुषव्याघ्रः प्रतिजग्राह सूतजः।। | 5-174-68a 5-174-68b |
तयोः समभवद्युद्धं कर्णराक्षसयोर्निशि। गर्जतो राजशार्दूल शक्रप्रह्लादयोरिव।। | 5-174-69a 5-174-69b |
।। इति श्रीमन्महाभारते द्रोणपर्वणि घटोत्कचवधपर्वणि चतुर्दशरात्रियुद्धे चतुःसप्तत्यधिकशततमोऽध्यायः।। 174 ।। |
5-174-13 आयस्तः प्रयत्नवान्।। 5-174-174 चतुःसप्तत्यधिकशततमोऽध्यायः।।
द्रोणपर्व-173 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | द्रोणपर्व-175 |