महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-185
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निद्रोपद्रुतानां सैन्यानामर्जुनाज्ञया स्वापेन श्रान्तिमपनीय चन्द्रोदयानन्तरं युद्धारम्भः।। 1 ।।
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सञ्जय उवाच। | 5-185-1x |
व्यासेनैवमथोक्तस्तु धर्मराजो युधिष्ठिरः। स्वयं कर्णवधाद्वीरो निवृत्तो भरतर्षभ।। | 5-185-1a 5-185-1b |
घटोत्कचे तु निहते सूतपुत्रेण ता निशाम्। दुःखामर्षवशं प्राप्तो धर्मराजो युधिष्ठिरः।। | 5-185-2a 5-185-2b |
दृष्ट्वा भीमेन महतीं वार्यमाणां चमूं तव। धृष्टद्युम्नमुवाचेदं कुम्भयोनिं निवारय।। | 5-185-3a 5-185-3b |
त्वं हि द्रोणविनाशाय समुत्पन्नो हुताशनात्। सशरः कवची खङ्गी धन्वी च परतापनः। अभिद्रव रणे हृष्टो मा च ते भीः कथञ्चन।। | 5-185-4a 5-185-4b 5-185-4c |
जनमेजयः शिखण्डी च दौर्मुखिश्च यशोधरः। अभिद्रवन्तु संहृष्टाः कुम्भयोनिं समन्ततः।। | 5-185-5a 5-185-5b |
नकुलः सहदेवश्च द्रौपदेयाः प्रभद्रकाः। द्रुपदश्च विराटश्च पुत्रभातृसमन्वितौ।। | 5-185-6a 5-185-6b |
सात्यकिः केकयाश्चैव पाण्डवश्च धनञ्जयः। अभिद्रवन्तु वेगेन कुम्भयोनिवधेप्सया।। | 5-185-7a 5-185-7b |
तथैव रथिनः सर्वे हस्त्यश्वं यच्च किञ्चन। पदाताश्च रणे द्रोणं पातयन्तु महारथम्।। | 5-185-8a 5-185-8b |
तथाऽऽज्ञप्तास्तु ते सर्वे पाण्डवेन महात्मना। अभ्यद्रवन्त वेगेन कुम्भयोनिवधेप्सया।। | 5-185-9a 5-185-9b |
आगच्छतस्तान्सहसा सर्वोद्योगेन पाण्डवान्। प्रतिजग्राह समरे द्रोणः शस्त्रभृतां वरः।। | 5-185-10a 5-185-10b |
ततो दुर्योधनो राजा सर्वोद्योगेन पाण्डवान्। अभ्यद्रवत्सुसङ्क्रुद्ध इच्छन्द्रोणस्य जीवितम्।। | 5-185-11a 5-185-11b |
ततः प्रववृते युद्धं श्रान्तवाहनसैनिकम्। पाण्डवानां कुरूणां च गर्जतामितरेतरम्।। | 5-185-12a 5-185-12b |
निद्रान्धास्ते महाराज परिश्रान्ताश्च संयुगे। नाभ्यपद्यन्त समरे काञ्चिच्चेष्टां महारथाः।। | 5-185-13a 5-185-13b |
त्रियामा रजनी चैषा घोररूपा भयानका। सहस्रयामप्रतिमा बभूव प्राणहारिणी।। | 5-185-14a 5-185-14b |
वध्यतां च तथा तेषां क्षतानां च विशेषतः। घोरा रात्रिः समाजज्ञे निद्रान्धानां विशेषतः।। | 5-185-15a 5-185-15b |
सर्वे ह्यासन्निरुत्साहाः क्षत्रिया दीनचेतसः। तव चैव परेषां च गतास्त्रा विगतेषवः।। | 5-185-16a 5-185-16b |
ते तदा पारयन्तश्च भ्रमन्तश्च विशेषतः। स्वधर्ममनुपश्यन्तो न जहुः स्वामनीकिनीम्।। | 5-185-17a 5-185-17b |
अस्त्राण्यन्ये समुत्सृज्य निद्रान्धाः शेरते जनाः। रथेष्वन्ये गजेष्वन्ये हयेष्वन्ये च भारत।। | 5-185-18a 5-185-18b |
निद्रान्धा नो बुबुधिरे काञ्चिच्चेष्टां नराधिप। तानन्ये समरे योधाः प्रेषयन्ति यमक्षयम्।। | 5-185-19a 5-185-19b |
स्वप्नायमानांस्त्वपरे परानतिविचेतसः। आत्मानं समरे जघ्नुः स्वानेव च परानपि।। | 5-185-20a 5-185-20b |
नानावाचो विमुञ्चन्तो निद्रान्धास्ते महारणे।। | 5-185-21a |
अस्माकं च महाराज परेभ्यो बहवो जनाः। योद्धव्यमिति तिष्ठन्तो निदासंरक्तलोचनाः।। | 5-185-22a 5-185-22b |
संसर्पन्तो रणे केचिन्निद्रान्धास्ते तथापरान्। जघ्रुः शूरा रणे शूरांस्तस्मिंस्तमसि दारुणे।। | 5-185-23a 5-185-23b |
हन्यमानमथात्मावनं परैश्च बहवो जनाः। नाभ्यजानन्त समरे निद्रया मोहिता भृशम्।। | 5-185-24a 5-185-24b |
तेषामेतादृशीं चेष्टां विज्ञाय पुरुषर्षभः। उवाच वाक्यं बीभत्सुरुच्चैः सन्नादयन्दिशः।। | 5-185-25a 5-185-25b |
श्रान्ता भवन्तो निद्रान्धाः सर्व एव सवाहनाः। तमसा च वृते सैन्ये रजसा बहुलेन च।। | 5-185-26a 5-185-26b |
ते यूयं यदि मन्यध्वमुपारमत सैनिकाः। निमीलयत चात्रैव रणभूमौ मुहूर्तकम्।। | 5-185-27a 5-185-27b |
ततो विनिद्रा विश्रान्ताश्चन्द्रमस्युदिते पुनः। संसाधयिष्यथान्योन्यं स्वर्गाय कुरुपाण्डवाः।। | 5-185-28a 5-185-28b |
तद्वचः सर्वधर्मज्ञा धार्मिकस्य विशाम्पते। अरोचयन्त सैन्यानि तथा चान्योन्यमब्रुवन्।। | 5-185-29a 5-185-29b |
चुक्रुशुः कर्णकर्णेनि तथा दुर्योधनेति च। उपारमत पाण्डूनां विरता हि वरूथिनी।। | 5-185-30a 5-185-30b |
तथा विक्रोशमानस्य फल्गुनस्य ततस्ततः। उपारमत पाण्डूनां सेना तव च भारत।। | 5-185-31a 5-185-31b |
तामस्य वाचं देवाश्च ऋषयश्च महात्मनः। सर्वसैन्यानि चाक्षुद्रां प्रहृष्टाः प्रत्यपूजयन्।। | 5-185-32a 5-185-32b |
तत्सम्पूज्य वचोऽक्रूरं सर्वसैन्यानि भारत। मुहूर्तमस्वपन्राजञ्श्रान्तानि भरतर्षभ।। | 5-185-33a 5-185-33b |
सा तु सम्प्राप्य विश्रामं ध्वजिनी तव भारत। सुखमाप्तवती वीरमर्जुनं प्रत्यपूजयत्।। | 5-185-34a 5-185-34b |
त्वयि वेदास्तथास्त्राणि त्वयि बुद्धिपराक्रमौ। धर्मस्त्वयि महाबाहो दया भूतेषु चानघ।। | 5-185-35a 5-185-35b |
यच्चाश्वस्तास्तवेच्छामः शर्म पार्थ तदस्तु ते। मनसश्च प्रियानर्थान्वीर क्षिप्रमवाप्नुहि।। | 5-185-36a 5-185-36b |
इति ते तं नरव्याघ्रं प्रशंसन्तो महारथाः। निद्रया समवाक्षिप्तास्तूष्णीमासन्विशाम्पते।। | 5-185-37a 5-185-37b |
`वीरा वारणकुम्भेषु सुषुपुर्युद्धकर्शिताः। रात्रौ रतिपरिश्रान्ताः कामिनीनां कुचेष्विव'।। | 5-185-38a 5-185-38b |
अश्वपृष्ठेषु चाप्यन्ये रथनीडेषु चापरे। गजस्कन्धगताश्चान्ये शेरते चापरे क्षितौ।। | 5-185-39a 5-185-39b |
सायुधाः सगदाश्चैव सखङ्गाः सपरश्वथाः। सप्रासकवचाश्चान्ये नराः सुप्ताः पृथक्पृथक्।। | 5-185-40a 5-185-40b |
गजास्ते पन्नगाभोगैर्हस्तैर्भूरेणुगुण्ठितैः। निद्रान्धा वसुधां चक्रुर्घ्राणनिः श्वासशीतलाम्।। | 5-185-41a 5-185-41b |
सुप्ताः शुशुभिरे तत्र निःश्वसन्तो महीतले। विकीर्णा गिरयो यद्वन्निःश्वसद्भिर्महोरगैः।। | 5-185-42a 5-185-42b |
समां च विषमां चक्रुः खुराग्रैर्विकृतां महीम्। हयाः काञ्चनयोक्त्रास्ते केसरालम्बिभिर्युगैः। सुषुपुस्तत्र राजेन्द्र युक्ता वाहेषु सर्वशः।। | 5-185-43a 5-185-43b 5-185-43c |
एवं हयाश्च नागाश्च योधाश्च भरतर्पभ। युद्धाद्विरम्य सुषुपुः श्रमेण महताऽन्विताः।। | 5-185-44a 5-185-44b |
तत्तथा निद्रया भग्नं तद्बभौ निःस्वनं बलम्। कुशलैः शिल्पिभिर्न्यस्तं पटे चित्रमिवाद्भुतम्।। | 5-185-45a 5-185-45b |
ते क्षत्रियाः कुण्डलिनो युवानः परस्परं सायकविक्षताङ्गाः। कुम्भेषु लीनाः सुषुपुर्गजानां कुचेषु लग्ना इव कामिनीनाम्।। | 5-185-46a 5-185-46b 5-185-46c 5-185-46d |
ततः कुमुदनाथेन कामिनीगण्डपाण्डुना। नेत्रानन्देन चन्द्रेण माहेन्द्री दिगलङ्कृता।। | 5-185-47a 5-185-47b |
दशशताक्षककुब्दरिनिःसृतः किरणकेसरभासुरपिञ्जरः। तिमिरवारणवृथविदारणः समुदियादुदयाचलकेसरी।। | 5-185-48a 5-185-48b 5-185-48c 5-185-48d |
हरवृषोत्तमगात्रसमद्युतिः स्मरशरासनपूर्णसमप्रभः। नववधृस्मितचारुमनोहरः प्रविसृतः कुमुदाकरबान्धवः।। | 5-185-49a 5-185-49b 5-185-49c 5-185-49d |
ततो मुहूर्ताद्भगवान्पुरस्ताच्छशलक्षणः। अरुणं दर्शयामास ग्रसञ्ज्योतिः प्रभां प्रभुः।। | 5-185-50a 5-185-50b |
अरुणस्य तु तस्यानु जातरूपसमप्रभम्। रश्मिजालं महच्चन्द्रो मन्दं मन्दमवासृजत्।। | 5-185-51a 5-185-51b |
उत्सारयन्तः प्रभया तमस्ते चन्द्ररश्मयः। पर्यगच्छञ्छनैः सर्वा दिशः खं च क्षितिं तथा।। | 5-185-52a 5-185-52b |
ततो मुहूर्ताद्भुवनं ज्योतिर्भूतमिवाभवत्। अप्रख्यमप्रकाशं च जगामाशु तमस्तथा।। | 5-185-53a 5-185-53b |
प्रतिप्रकाशिते लोके दिवाभूते निशाकरे। विचेरुर्न विचेरुश्च राजन्नक्तञ्चरास्ततः।। | 5-185-54a 5-185-54b |
बोध्यमानं तु तत्सैन्यं राजंश्चन्द्रस्य रश्मिभिः। बुबुधे शतपत्राणां वनं सूर्यांशुभिर्यथा।। | 5-185-55a 5-185-55b |
यथा चन्द्रोदयोद्धूतः क्षुभितः सागरोऽभवत्। तथा चन्द्रोदयोद्धूतः क्षुभितश्च बलार्णवः।। | 5-185-56a 5-185-56b |
ततः प्रववृते युद्धं पुनरेव विशाम्पते। लोके लोकविनाशाय परं लोकमभीप्सताम्।। | 5-185-57a 5-185-57b |
।। इति श्रीमन्महाभारते द्रोणपर्वणि द्रोणवधपर्वणि चतुर्दशरात्रियुद्धे पञ्चाशीत्यधिकशततमोऽध्यायः।। 185 ।। |
5-185-28 सङ्ग्राममिति झ.पाठः।। 5-185-185 पञ्चाशीत्यधिकशततमोऽध्यायः।।
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