महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-012
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द्रोणचोदितेन दुर्योधनेन युधिष्ठिरस्य जीवग्राहं ग्रहणवरणम्।। 1 ।। द्रोणेन अर्जुनासन्निधाने तद्व्रहणे प्रतिज्ञाते दुर्यो धनेन तदुद्धोषणम्।। 2 ।।
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सञ्जय उवाच। | 5-12-1x |
`शुश्रूषस्व स्थिरो भूत्वां शंसतो मम भारत'। हन्त ते कथयिष्यामि सर्वं प्रत्यक्षदर्शिवान्। यथा सत्यपरो द्रोणः सादिताः पाण्डुसृञ्जयैः।। | 5-12-1a 5-12-1b 5-12-1c |
सेनापतित्वं सम्प्राप्य भारद्वाजो महारथः। मध्ये सर्वस्य सैन्यस्य पुत्रं ते वाक्यमब्रवीत्।। | 5-12-2a 5-12-2b |
यत्कौरवाणामृषभादापगेयादनन्तरम्। सैनापत्ये त्वया राजन्नद्य सत्कृतवानहम्।। | 5-12-3a 5-12-3b |
सदृशं कर्मणस्तस्य फलं प्राप्नुहि भारत। करोमि कामं कं तेऽद्य प्रवृणीष्व यमिच्छसि।। | 5-12-4a 5-12-4b |
सञ्जय उवाच। | 5-12-5x |
ततो दुर्योधनो राजा कर्णदुःशासनादिभिः। सम्मन्त्र्योवाच दुर्धर्षमाचार्यं जयतां वरम्।। | 5-12-5a 5-12-5b |
ददासि चेद्वरं मह्यं जीवग्राहं युधिष्ठिरम्। गृहीत्वा रयिनां श्रेष्ठं मत्समीपमिहानय।। | 5-12-6a 5-12-6b |
`इच्छेयं वै महात्मानं धर्मात्मानं युधिष्ठिरम्। भ्रातृणां पश्यतामेव जीवग्राहेण मे द्विज।। | 5-12-7a 5-12-7b |
गृहीत्वा रथिनां श्रेष्ठं मत्सकाशमिहानय। प्रीणाम्यनेन कार्येण ससुहृज्जनबान्धवः।। | 5-12-8a 5-12-8b |
सञ्जय उवाच। | 5-12-9x |
ततः कुरूणामाचार्यः श्रुत्वा पुत्रस्य ते वचः। सेनां प्रहर्षयन्सर्वामिदं वचनमब्रवीत्।। | 5-12-9a 5-12-9b |
धन्यः कुन्तीसुतो राजन्यस्य ग्रहणमिच्छसि। न वधं तस्य दुर्धर्ष वरमद्य प्रयाचसे।। | 5-12-10a 5-12-10b |
किमर्थं च नरव्याघ्र न वधं तस्य काङ्क्षसे। नाशंससि क्रियामेतां मत्तो दुर्योधन ध्रुवम्।। | 5-12-11a 5-12-11b |
आहोस्विद्धर्मराजस्य द्वेष्टा कश्चिन्न विद्यते। यदीच्छसि त्वं जीवन्तं कुलं रक्षसि चात्मनः।। | 5-12-12a 5-12-12b |
अथवा भरतश्रेष्ठ निर्जित्य युधि पाण्डवान्। राज्यांशं प्रति दत्त्वा च सौभ्रात्रं कर्तुमिच्छसि।। | 5-12-13a 5-12-13b |
धन्यः कुन्तीसुतो राजा सुजातं चास्य धीमतः। अजातशत्रुता सत्या तस्य यत्स्निह्यते भवान्।। | 5-12-14a 5-12-14b |
सञ्जय उवाच। | 5-12-15x |
द्रोणेन चैवमुक्तस्य तव पुत्रस्य भारत। सहसा निःसृतो भावो योस्य नित्यं हृदि स्थितः।। | 5-12-15a 5-12-15b |
नाकारो गूहितुं शक्यो बृहस्पतिसमैरपि। तस्मात्तव सुतो राजन्प्रहृष्टो वाक्यमब्रवीत्।। | 5-12-16a 5-12-16b |
वधे कुन्तीसुतस्याजौ नाचार्य विजयो मम। हते युधिष्ठिरे पार्था हन्युःसर्वान्हि नो ध्रुवम्।। | 5-12-17a 5-12-17b |
नैव शक्या रणे सर्वे निहन्तुममरैरपि। `यदि सर्वे हनिष्यन्ते पाण्डवाः ससुता मृधे।। | 5-12-18a 5-12-18b |
ततः कृत्स्नं वशे कृत्वा निःशेषं नृपमण्डलम्। ससागरवनां स्फीतां विजित्य वसुधामिमाम्।। | 5-12-19a 5-12-19b |
विष्णुर्दास्यति कृष्णायै कुन्त्यै वा पुरुषोत्तमः'। यद्येष चैषां शेषःस्यात्स एवास्मान्न शेषयेत्।। | 5-12-20a 5-12-20b |
सत्यप्रतिज्ञे त्वानीते पुनर्द्यूतेन निर्जिते। `तस्मिञ्जीवति चायाते ह्युपायैर्बहुभिः कृतैः'। पुनर्यास्यन्त्यरण्याय पाण्डवास्तमनुव्रताः।। | 5-12-21a 5-12-21b 5-12-21c |
सोऽयं मम जयो व्यक्तं दीर्घकालं भविष्यति। अतो न वधमिच्छामि धर्मराजस्य कर्हिचित्।। | 5-12-22a 5-12-22b |
सञ्जय उवाच। | 5-12-23x |
तस्य जिह्ममभिप्रायं ज्ञात्वा द्रोणोऽर्थतत्त्ववित्। तं वरं सान्तरं तस्मै ददौ संचिन्त्य बुद्धिमान्।। | 5-12-23a 5-12-23b |
द्रोण उवाच। | 5-12-24x |
न चेद्युधिष्ठिरं वीरः पालयेदर्जुनो युधि। मन्यस्व पाण्डवश्रेष्ठमानीतं वशमात्मनः।। | 5-12-24a 5-12-24b |
न हि शक्यो रणे पार्थः सेन्द्रैर्देवासुरैरपि। प्रत्युद्यातुमतस्तात न तस्माद्धर्षयाम्यहम्।। | 5-12-25a 5-12-25b |
असंशयं स मे शिष्यो मत्पूर्वश्चास्त्रकर्मणि। तरुणः सुकृती युक्त एकायनगतश्च सः।। | 5-12-26a 5-12-26b |
अस्त्राणीन्द्राच्च रुद्राच्च भूयांसि समवाप्तवान्। अमर्षितश्च ते राजंस्ततो नामर्षयाम्यहम्।। | 5-12-27a 5-12-27b |
स चापक्रम्यतां युद्धाद्येनोपायेन शक्यते। अपनीते ततः पार्थे धर्मराजो जितस्त्वया।। | 5-12-28a 5-12-28b |
ग्रहणे हि जयस्तस्य न वधे पुरुषर्षभ। `ग्रहणं हि वधात्तस्य धर्मराजस्य मन्यसे'। अनेनैवाभ्युपायेन ग्रहणं समुपैष्यसि।। | 5-12-29a 5-12-29b 5-12-29c |
अहं गृहीत्वा राजानं सत्यधर्मपरायणम्। आनयिष्यामि ते राजन्वशमद्य न संशयः।। | 5-12-30a 5-12-30b |
यदि स्यास्यति सङ्ग्रामे मुहूर्तमपि मेऽग्रतः। अपनीते नरव्याघ्रे कुन्तीपुत्रे धनञ्जये।। | 5-12-31a 5-12-31b |
फल्गुनस्य समीपे तु न हि शक्यो युधिष्ठिरः। ग्रहीतुं समरे राजन्सेन्द्रैरपि सुरासुरैः।। | 5-12-32a 5-12-32b |
सञ्जय उवाच। | 5-12-33x |
`एवमुक्ते तदा तस्मिन्युद्धे देवासुरोपमे'। सान्तरं तु प्रतिज्ञाते राज्ञो द्रोणेन निग्रहे। गृहीतं तममन्यन्त तव पुत्राः सुबालिशाः।। | 5-12-33a 5-12-33b 5-12-33c |
ततो दुर्योधनेनापि ग्रहणं पाण्डवस्य तत्। `स्कन्धावारेषु सर्वेषु यथास्थानेषु मारिष'। सैन्यस्थानेषु सर्वेषु सुघोषितमरिन्दम।। | 5-12-34a 5-12-34b 5-12-34c |
पाण्डवेयेषु सापेक्षं द्रोणं जानाति ते सुतः। ततः प्रतिज्ञास्थैर्यार्थं स मन्त्रो बहुलीकृतः।। | 5-12-35a 5-12-35b |
।। इति श्रीमन्महाभारते द्रोणपर्वणि द्रोणाभिषेकपर्वणि द्वादशोऽध्यायः।। 12 ।। |
5-12-11 एतां वधरूपां क्रियां मत्तो नाशंससि न सम्भावयसि।। 5-12-12 तदिच्छसि त्वं इति क.ख.पाठः।। 5-12-14 सुजातं शोभनं जन्म 5-12-22 व्यक्तं नियतम्।। 5-12-26 मत्पूर्वः अहं पूर्वो गुरुर्यस्य एकायनगतः जयमरणान्यतरनिश्चयवान्।। 5-12-35 बहुलीकृतः प्रतिज्ञां न त्यजेदिति बहुषु प्रकाशितः।। 5-12-12 द्वादशोऽध्यायः।।
द्रोणपर्व-011 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | द्रोणपर्व-013 |