महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-151
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सैन्धववधदुःखितेन दुर्योधनेन द्रोणमेत्य आत्मोपालम्भपूर्वकं परिशोचनम्।। 1 ।।
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सञ्जय उवाच। | 5-151-1x |
सैन्धवे निहते राजन्पुत्रस्तव सुयोधनः। [अश्रुपूर्णमुखो दीनो निरुत्साहो द्विषज्जये।। | 5-151-1a 5-151-1b |
दुर्मना निःश्वसन्दुष्टो भग्नदंष्ट्र इवोरगः। आगस्कृत्सर्वलोकस्य पुत्रस्तेऽर्तिं परामगात्।। | 5-151-2a 5-151-2b |
दृष्ट्वा तत्कदनं घोरं स्वबलस्य कृतं महत्। जिष्णुना भीमसेनेन सात्वतेन च संयुगे।। | 5-151-3a 5-151-3b |
स विवर्णः कृशो दीनो बाष्पविप्लुतलोचनः।] अमन्यतार्जुनसमो न योद्धा भुवि विद्यते।। | 5-151-4a 5-151-4b |
न द्रोणो न च राधेयो नाश्वत्थामा कृपो न च। पार्थस्य सम्मखे स्थातुं पर्याप्ता इति मारिष।। | 5-151-5a 5-151-5b |
निर्जित्य हि रणे पार्थः सर्वान्मम महारथान्। अवधीत्सैन्धवं सङ्ख्ये न च कश्चिदवारयत्।। | 5-151-6a 5-151-6b |
सर्वथा हतमेवेदं कौरवाणां महद्बलम्। न ह्यस्य विद्यते त्राता साक्षादपि पुरन्दरः।। | 5-151-7a 5-151-7b |
यमुपाश्रित्य सङ्ग्रामे कृतः शस्त्रसमुद्यमः। स कर्णो निर्जितः सङ्ख्ये हतश्चैव जयद्रथः।। | 5-151-8a 5-151-8b |
`परुषाणि सभामध्ये प्रोक्तवान्यो हि पाण्डवान्। स कर्णो निर्जितः सङ्ख्ये सैन्धवश्च निपातितः।। | 5-151-9a 5-151-9b |
यस्य वीर्यं समाश्रित्य शमं याचन्तमच्युतम्। तृणवत्तमहं मन्ये स कर्णो निर्जितो युधि।। | 5-151-10a 5-151-10b |
एवं क्लान्तमना राजन्नुपायाद्रोणमीक्षितुम्। आगस्कृत्सर्वलोकस्य पुत्रस्ते भरतर्षभ।। | 5-151-11a 5-151-11b |
ततस्तत्सर्वमाचख्यौ कुरूणां वैशसं महत्। परान्विजयतश्चापि धार्तराष्ट्रान्निमज्जतः।। | 5-151-12a 5-151-12b |
दुर्योधन उवाच। | 5-151-13x |
पश्य मूर्धाभिषिक्तानामाचार्य कदनं महत्। कृत्वा प्रमुखतः शूरं भीष्मं मम पितामहम्।। | 5-151-13a 5-151-13b |
तं निहत्य प्रलुब्धोऽयं शिखण्डी पूर्णमानसः। पाञ्चाल्यैः सहितः सर्वैः सेनाग्रमभिवर्तते।। | 5-151-14a 5-151-14b |
अपरश्चापि दुर्धर्षः शिष्यस्ते सव्यसाचिना। अक्षौहिणीः सप्त हत्वा हतो राजा जयद्रथः।। | 5-151-15a 5-151-15b |
अस्मद्विजयकामानां सुहृदामुपकारिणाम्। गन्ताऽस्मि कथमानृण्यं गतानां यमसादनम्।। | 5-151-16a 5-151-16b |
ये मदर्थं परीप्सन्ते वसुधां वसुधाधिपाः। ते हित्वा वसुधैश्वर्यं वसुधामधिशेरते।। | 5-151-17a 5-151-17b |
सोऽहं कापुरुषः क-त्वा मित्राणां क्षयमीदृशम्। अश्वमेधसहस्रेण पावितुं न समुत्सहे।। | 5-151-18a 5-151-18b |
मम लुब्धस्य पापस्य तथा धर्मापचायिनः। व्यायामेन जिगीषन्तः प्राप्ता वैवस्वतक्षयम्।। | 5-151-19a 5-151-19b |
कथं पतितवृत्तस्य पृथिवी सुहृदां द्रुहः। विवरं नाशकद्दातुं मम पार्थिवसंसदि।। | 5-151-20a 5-151-20b |
योऽहं रुधिरसिक्ताङ्गं राज्ञां मध्ये पितामहम्। शयानं नाशकं त्रातुं भीष्ममायोधने हतम्।। | 5-151-21a 5-151-21b |
तं मामनार्यपुरुषं मित्रद्रुहमधार्मिकम्। किं वक्ष्यति हि दुर्धर्षः समेत्य परलोकजित्।। | 5-151-22a 5-151-22b |
जलसन्धं महेष्वासं पश्य सात्यकिना हतम्। मदर्थमुद्यतं शूरं प्राणांस्त्यक्त्वा महारथम्।। | 5-151-23a 5-151-23b |
काम्भोजं निहतं दृष्ट्वा तथालम्बुसमेव च। अन्यान्बहूंश्च सुहृदो जीवितार्थोऽद्य को मम।। | 5-151-24a 5-151-24b |
व्यायच्छन्तो हताः शूरा मदर्थे ये पराङ्मुखाः। यतमानाः परं शक्त्या विजेतुमहितान्मम।। | 5-151-25a 5-151-25b |
तेषां गत्वाऽहमानृण्यमद्य शक्त्या परन्तप। तर्पयिष्यामि तानेव जलेन यमुनामनु।। | 5-151-26a 5-151-26b |
सत्यं ते प्रतिजानामि सर्वशस्त्रभृतां वर। इष्टापूर्तेन च शपे वीर्येण च सुतैरपि।। | 5-151-27a 5-151-27b |
निहत्य तान्रमे सर्वान्पाञ्चालान्पाण्डवैः सह। सान्तिं लब्धाऽस्मि तेषां वा रणे गन्ता सलोकताम् | 5-151-28a 5-151-28b |
सोऽहं तत्र गमिष्यामि यत्र ते पुरुषर्षभाः। हता मदर्थे सङ्ग्रामे युध्यमानाः किरीटिना।। न हीदानीं सहाया मे परीप्सन्त्यनुपस्कृताः। श्रेयो हि पाण्डून्मन्यन्ते न तथास्मान्महाभुज।। | 5-151-29a 5-151-29b 5-151-30 5-151-30b |
स्वयं हि मृत्युर्विहितः सत्यसन्धेन संयुगे। भवानुपेक्षां कुरुते शिष्यत्वादर्जुनस्य हि।। | 5-151-31a 5-151-31b |
अतो विनिहताः सर्वे येऽस्मज्जयचिकीर्षवः। कर्णमेव तु पश्यामि सम्प्रत्यस्मज्जयैषिणम्।। | 5-151-32a 5-151-32b |
यो हि मित्रमविज्ञाय याथातथ्येन मन्दधीः। मित्रार्थे योजयत्येनं तस्य सोऽर्थोऽवसीदति।। | 5-151-33a 5-151-33b |
तादृग्रूपं कृतमिदं मम कार्यं सुहृत्तमैः। मोहाल्लुब्धस्य पापस्य जिह्मस्य धनमीहतः।। | 5-151-34a 5-151-34b |
यौ मे युद्धस्य कृत्यस्य जिह्माचारैः समीयतुः। हतो जयद्रथश्चैव सौमदत्तिश्च विर्यवान्। अभीषाहाः शूरसेनाः शिबयोऽथ वसातयः।। | 5-151-35a 5-151-35b 5-151-35c |
सोऽहमद्य गमिष्यामि यत्र ते पुरुषर्षभाः। हता मदर्थे सङ्ग्रामे युध्यमानाः किरीटिना।। | 5-151-36a 5-151-36b |
न हि मे जीवितेनार्थस्तानृते पुरुषर्षभान्। आचार्यः पाण्डुपुत्राणामनुजानातु नो भवान्।। | 5-151-37a 5-151-37b |
।। इति श्रीमन्महाभारते द्रोणपर्वणि जयद्रथवधपर्वणि चतुर्दशदिवसयुद्धे एकपञ्चाशदधिकशततमोऽध्यायः।। 151 ।। |
5-151-1 आर्तिमिति च्छेदः।। 5-151- प्रलुब्धः प्रकृष्टो लुब्धकस्तद्वद्वञ्चकत्वात्।। 5-151- धर्मापचायिनः धर्मक्षेपकस्य।। 5-151- आचार्यः पाण्डुपुत्राणामित्यपालम्भः।। 5-151- एकपञ्चाशदधिकशततमोऽध्यायः।। 151 ।।
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