महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-183
← द्रोणपर्व-182 | महाभारतम् सप्तमपर्व महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-183 वेदव्यासः |
द्रोणपर्व-184 → |
धृतराष्ट्रेण सञ्जयम्प्रति कर्णेन अर्जुने शक्तेरमोक्षणकारणप्रश्ने सञ्जयेन सात्यकिम्प्रति कृष्णोक्ततदुत्तरकथनम्।। 1 ।।
|
धृतराष्ट्र उवाच। | 5-183-1x |
एकवीरवधे मोघा शक्तिः सूतात्मजे यदा। कस्मात्सर्वान्समुत्सृज्य स तां पार्थे न मुक्तवान्।। | 5-183-1a 5-183-1b |
तस्मिन्हते हता हि स्युः सर्वे पाण्डवसृञ्जयाः। एकवीरवधे कस्माद्युद्धे न जयमादधे।। | 5-183-2a 5-183-2b |
आहूतो न निवर्तेयमिति तस्य महाव्रतम्। स्वयं मार्गयितव्यः स सूतपुत्रेण फल्गुनः।। | 5-183-3a 5-183-3b |
ततो द्वैरथमानीय फल्गुनं शक्तदत्तया। जघान न वृषा कस्मात्तन्ममाचक्ष्व सञ्जय।। | 5-183-4a 5-183-4b |
नूनं बुद्धिविहीनश्चाप्यसहायश्च मे सुतः। शत्रुभिर्व्यंसितः पापः कथं नु स जयेदरीन्।। | 5-183-5a 5-183-5b |
या ह्यस्य परमा शक्तिर्जयस्य च परायणम्। सा शख्तिर्वासुदेवेन व्यंसिता च घटोत्कचे।। | 5-183-6a 5-183-6b |
कुणेर्यथा हस्तगतं हियेद्बिल्वं बलीयसा। तथा शक्तिरमोघा सा मोघीभूता घटोत्कचे।। | 5-183-7a 5-183-7b |
यथा वराहस्य शुनश्च युध्यतो-- स्तयोरभावे श्वपचस्य लाभः। मन्ये विद्वन्वासुदेवस्य तद्व-- द्युद्धे लाभः कर्णहैडिम्बयोर्वै।। | 5-183-8a 5-183-8b 5-183-8c 5-183-8b |
घटोत्कचो यदि हन्याद्वि कर्णं परो लाभः स भवेत्पाण्डवानाम्। वैकर्तनो वा यदि तं निहन्या-- त्तथापि कृत्यं शक्तिनाशात्कृतं स्यात्।। | 5-183-9a 5-183-9b 5-183-9c 5-183-9d |
इति प्राज्ञः प्रज्ञयैतद्विचिन्त्य घटोत्कचं सूतपुत्रेण युद्धे। अघातयद्वासुदेवो नृसिंहः प्रियं कुर्वन्पाण्डवानां हितं च।। | 5-183-10a 5-183-10b 5-183-10c 5-183-10d |
सञ्जय उवाच। | 5-183-11x |
एतच्चिकीर्षितं ज्ञात्वा कर्णे मधुनिहा नृप। नियोजयामास तदा द्वैरथे राक्षसेश्वरम्।। | 5-183-11a 5-183-11b |
घटोत्कचं महावीर्यं महाबुद्धिर्जनार्दनः। अमोघाया विघातार्थं राजन्दुर्मन्त्रिते तव।। | 5-183-12a 5-183-12b |
तदैव कृतकार्या हि वयं स्याम कुरूद्वह। न रक्षेद्यदि कृष्णस्तं पार्थं कर्णान्महारथात्।। | 5-183-13a 5-183-13b |
साश्वध्वजरथः सङ्क्ये धृतराष्ट्र पतेद्भुवि। विना जनार्दनं पार्थो योगानामीश्वरं प्रभुम्।। | 5-183-14a 5-183-14b |
तैस्तैरुपायैर्बहुभी रक्ष्यमाणः स पार्थिव। जयत्यभिमुखः शत्रून्पार्थः कृष्णेन पालितः।। | 5-183-15a 5-183-15b |
सविशेषं त्वमेयात्मा कृष्णो रक्षेन्न फल्गुनम्। हन्यात्क्षिप्रं हि कौन्तेयं शक्तिर्वृक्षमिवाशनिः।। | 5-183-16a 5-183-16b |
धृतराष्ट्र उवाच। | 5-183-17x |
विरोधी च कुमन्त्री च प्राज्ञमानी ममात्मजः। यस्यैष समतिक्रान्तो वधोपायो जयं प्रति।। | 5-183-17a 5-183-17b |
स वा कर्णो महाबुद्धिः सर्वशस्त्रभृतां वरः। न मुक्तवान्कथं सूत ताममोघां धनञ्जये।। | 5-183-18a 5-183-18b |
तवापि समतिक्रान्तमेतद्गावल्गणे कथम्। एतमर्थं महाबुद्धे यत्त्वया नावबोधितः।। | 5-183-19a 5-183-19b |
सञ्जय उवाच। | 5-183-20x |
दुर्योधनस्य शकुनेर्मम दुःशासनस्य च। रात्रौ रात्रौ भवत्येषा नित्यमेव विकत्थना।। | 5-183-20a 5-183-20b |
श्वः सर्वसैन्यानुत्सृज्य जहि कर्ण धनञ्जयम्। प्रेष्यवत्पाण्डुपाञ्चालानुपभोक्ष्यामहे ततः।। | 5-183-21a 5-183-21b |
अथवा निहते पार्थं पाण्डवान्यतमं ततः। स्थापयेद्यदि वार्ष्णेयस्तस्मात्कृष्णो हि हन्यताम्।। | 5-183-22a 5-183-22b |
कृष्णो हि मूलं पाण्डूनां पार्थः स्कन्ध इवोद्गतः। शाखा इवेतरे पार्थाः पाञ्चालाः पत्रसंज्ञिताः।। | 5-183-23a 5-183-23b |
कृष्णाश्रयाः कृष्णबलाः कृष्णनाथाश्च पाण्डवाः। कृष्णः परायणं चैषां ज्योतिषामिव चन्द्रमाः।। | 5-183-24a 5-183-24b |
तस्मात्पर्णानि शाखाश्च स्कन्धं चोत्सृज्य सूतज। कृष्णं हि विद्वि पाण्डूनां मूलं सर्वत्र सर्वदा।। | 5-183-25a 5-183-25b |
हन्याद्यदि हि दाशार्हं कर्णो यादवनन्दनम्। कृत्स्ना वसुमती राजन्वशे तस्य न संशयः।। | 5-183-26a 5-183-26b |
यदि हि स निहतः शयीत भूमौ यदुकुलपाण्डवनन्दनो महात्मा। ननु तव वसुधा नरेन्द्र सर्वा सगिरिसमुद्रवना वशं व्रजेत।। | 5-183-27a 5-183-27b 5-183-27b 5-183-27b |
सा तु बुद्धिः कृताऽप्येवं जाग्रति त्रिदशेश्वरे। अप्रमेये हृषीकेशे युद्धकाले त्वमुह्यत।। | 5-183-28a 5-183-28b |
अर्जुनं चापि राधेयात्सदा रक्षति केशवः। न ह्येनमैच्छत्प्रमुखे सौतेः स्थापयितुं रणे।। | 5-183-29a 5-183-29b |
अन्यांश्चास्मै रथोदारानुपास्थापयदच्युतः। अमोघां तां कथं शक्तिं मोघां कुर्यामिति प्रभो।। | 5-183-30a 5-183-30b |
यश्चैवं रक्षते पार्थं कर्णात्कृष्णो महामनाः। आत्मानं स कथं राजन्न रक्षेत्पुरुपोत्तमः।। | 5-183-31a 5-183-31b |
परिचिन्त्य तु पश्यामि चक्रायुधमरिन्दमम्। न सोऽस्ति त्रिषु लोकेषु यो जयेत जनार्दनम्।। | 5-183-32a 5-183-32b |
सञ्जय उवाच। | 5-183-33x |
ततः कृष्णं महाबाहुं सात्यकिः सत्यविक्रमः। पप्रच्छ रथशार्दूलः कर्णं प्रति महारथः।। | 5-183-33a 5-183-33b |
अयं च प्रत्ययः कर्णे शक्तिश्चामितविक्रमा। किमर्थं सूतपुत्रेण न मुक्ता फल्गुने तु सा।। | 5-183-34a 5-183-34b |
वासुदेव उवाच। | 5-183-35x |
दुःशासनश्च कर्णश्च शकुनिश्च मसैन्धवः। सततं मन्त्रयन्ति स्म दुर्योधनपुरोगमाः। | 5-183-35a 5-183-35b |
कर्णकर्ण महेष्वास रणेऽमितपराक्रम। नान्यस्य शक्तिरेषा ते मोक्तव्या जयतां वर।। | 5-183-36a 5-183-36b |
ऋते महारथात्कर्ण कुन्तीपुत्राद्वनञ्जयात्। स हि तेषामतियशा देवानामिव वासवः।। | 5-183-37a 5-183-37b |
तस्मिन्विनिहते पार्थे पाण्डवाः सृञ्जयैः सह। भविष्यन्ति गतात्मानः सुरा इव निरग्नयः।। | 5-183-38a 5-183-38b |
तथेति च प्रतिज्ञातं कर्णेन शिनिपुङ्गव। हृदि नित्यं च कर्णस्य वधो गाण्डीवधन्वनः।। | 5-183-39a 5-183-39b |
अहमेव तु राधेयं मोहयामि युधांवर। ततो नावासृजच्छक्तिं पाण्डवे श्वेतवाहने।। | 5-183-40a 5-183-40b |
फल्गुनस्य हि सा मृत्युरिति चिन्तयतोऽनिशम्। न निद्रा न च मे हार्षो मनसोऽस्ति युधांवर।। | 5-183-41a 5-183-41b |
घटोत्कचे व्यंसितां तु दृष्ट्वा तां शिनिपुङ्गव। मृत्योरास्यान्तरान्मुक्तं पस्याम्यद्य धनञ्जयम्।। | 5-183-42a 5-183-42b |
न पिता न च मे माता न यूयं भ्रातरस्तथा। न च प्राणास्तथा रक्ष्या यथा बीभत्सुराहवे।। | 5-183-43a 5-183-43b |
त्रैलोक्यराज्याद्यत्किञ्चिद्भवेदन्यत्सुदुर्लभम्। नेच्छेयं सात्वताहं तद्विना पार्थं धनञ्जयम्।। | 5-183-44a 5-183-44b |
अतः प्रहर्षः सुमहान्युयुधानाद्य मेऽभवत्। मृतं प्रत्यागतमिव दृष्ट्वा पार्थं धनञ्जयम्।। | 5-183-45a 5-183-45b |
अतश्च प्रहितो युद्धे मया कर्णाय राक्षसः। न ह्यन्यः समरे रात्रौ शक्तः कर्णं प्रबाधितुम्।। | 5-183-46a 5-183-46b |
सञ्जय उवाच। | 5-183-47x |
इति सात्यकये प्राह तदा देवकिनन्दनः। धनञ्जयहिते युक्तस्तत्प्रिये सततं रतः।। | 5-183-47a 5-183-47b |
।। इति श्रीमन्महाभारते द्रोणपर्वणि घटोत्कचवधपर्वणि चतुर्दशरात्रियुद्धे त्र्यशीत्यधिकशततमोऽध्यायः।। 183 ।। |
5-183-7 हियेत् हियेत।। 5-183-11 एतत्प्रकृतशक्त्यार्जुनहननम्।। 5-183-17 सविशेषात्त्वमोघायाः कृष्णोऽरक्षत पाण्डवम इति झ. पाठः। एष कृत्स्नः जयम्प्रति अर्जुनस्येत्यर्थः।। 5-183-38 निरग्नयोऽग्निंविना मुखहीना इवेत्यर्थः।। 5-183-47 हिते आमुष्मिके श्रेयसि। प्रिये ऐहिके कल्याणे।। 5-183-183 व्यशीत्यधिकशततमोऽध्यायः।।
द्रोणपर्व-182 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | द्रोणपर्व-184 |