महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-165
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सङ्कुलयुद्धम्।। 3 ।।
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सञ्जय उवाच। | 5-165-1x |
प्रकाशिते तदा लोके रजसा तमसावृते। समाजग्मुरथो वीराः परस्परवधैषिणः।। | 5-165-1a 5-165-1b |
ते समेत्य रणे राजञ्शस्त्रप्रासासिधारिणः। परस्परमुदैक्षन्त परस्परकृतागसः।। | 5-165-2a 5-165-2b |
प्रदीपानां सहस्रैश्च दीप्यमानैः समन्ततः। रत्नाचितैः स्वर्णदण्डैर्गन्धतैलावसिञ्चितैः।। | 5-165-3a 5-165-3b |
देवगन्धर्वदीपाद्यैः प्रभाभिरधिकोज्ज्वलैः। विरराज तदा भूमिर्ग्रहैर्द्यौरिव भारत।। | 5-165-4a 5-165-4b |
उल्काशतैः प्रज्वलितै रणभूमिर्व्यराजत। दह्यमानेव लोकानामभावे च वसुन्धरा।। | 5-165-5a 5-165-5b |
व्यदीप्यन्त दिशः सर्वाः प्रदीपैस्तैः समन्ततः। वर्षाप्रदोषे खद्योतैर्वृता वृक्षा इवाबभुः।। | 5-165-6a 5-165-6b |
असज्जन्त ततो वीरा विरेष्वेव पृथक्पृथक्। नागा नागैः समाजग्मुस्तुरगा हयसादिभिः। रथा रथवरैरेव समजग्मुर्मुदा युताः।। | 5-165-7a 5-165-7b 5-165-7c |
तस्मिन्रात्रिमुखे घोरे तव पुत्रस्य शासनात्। चतुरङ्गस्य सैन्यस्य सम्पातश्च महारनभूत्।। | 5-165-8a 5-165-8b |
ततोऽर्जुनो महाराज कौरवाणामनीकिनीम्। व्यधमत्त्वरया युक्तः क्षपयन्सर्वपार्थिवान्।। | 5-165-9a 5-165-9b |
धृतराष्ट्र उवाच। | 5-165-10x |
तस्मिन्प्रविष्टे संरब्धे मम पुत्रस्य वाहिनीम्। अमृष्यमाणे दुर्धर्षे कथमासीन्मनो हि वः।। | 5-165-10a 5-165-10b |
किमकुर्वत सैन्यानि प्रविष्टे परषीडने। दुर्योधनश्च किं कृत्यं प्राप्तकालममन्यत।। | 5-165-11a 5-165-11b |
के चैनं समरे वीरं प्रत्युद्ययुररिन्दमाः। द्रोणं च के व्यरक्षन्त प्रविष्टे श्वेतवाहने।। | 5-165-12a 5-165-12b |
केऽरक्षन्दक्षिणं चक्रं के च द्रोणस्य सव्यतः। के पृष्ठतश्चाप्यभवन्वीरा वीरान्विनिघ्नतः। के पुरस्तादगच्छन्त निघ्नन्तः शास्त्रवान्रणे।। | 5-165-13a 5-165-13b 5-165-13c |
यत्प्राविशन्महेष्वासः पाञ्चालनापराजिताः। नृत्यन्निव नरव्याघ्रो रथमार्गेषु वीर्यवान्।। | 5-165-14a 5-165-14b |
यो ददाह शरैर्द्रोणः पाञ्चालानां रथव्रजान्। धूमकेतुरिव क्रुद्धः कथं मृत्युमुपेयिवान्।। | 5-165-15a 5-165-15b |
अव्यग्रानेव हि परान्कथयस्यपराजितान्। हृष्टानुदीर्णान्सङ्ग्रामे न तथा सूत मामकान्।। | 5-165-16a 5-165-16b |
हतांश्चैव विदीर्णांश्च विप्रकीर्णांश्च शंससि। रथिनो विरथांश्चैव कृतान्युद्वेषु मामकान्।। | 5-165-17a 5-165-17b |
सञ्जय उवाच। | 5-165-18x |
द्रोणस्य मतमाज्ञाय योद्वुकामस्य तां निशाम्। दुर्योधनो महाराज वश्यान्भ्रातॄनुवाच ह।। | 5-165-18a 5-165-18b |
कर्णं च वृषसेनं च मद्रराजं च कौरव। दुर्धर्षं दीर्घबाहुं च ये च तेषां पदानुगाः।। | 5-165-19a 5-165-19b |
द्रोणं यत्ताः पराक्रान्ताः सर्वे रक्षन्तु पृष्ठतः। हार्दिक्यो दक्षिणं चक्रं शल्यश्चैवोत्तरं तथा।। | 5-165-20a 5-165-20b |
त्रिगर्तानां च ये शूरा हतशिष्टा महारथाः। तांश्चैव पुरतः सर्वान्पुत्रस्ते समचोदयत्।। | 5-165-21a 5-165-21b |
दुर्योधन उवाच। | 5-165-22x |
आचार्यो हि सुसंयत्तो भृशं यत्ताश्च पाण्डवाः। तं रक्षत सुसंयत्ता निघ्नन्तं शास्त्रवान्रणे।। | 5-165-22a 5-165-22b |
द्रोणो हि बलवान्युद्धे क्षिप्रहस्तः प्रतापवान्। निर्जयेत्त्रिदशान्युद्धे किमु पार्थान्ससोमकान्।। | 5-165-23a 5-165-23b |
ते यूयं सहिताः सर्वे भृशं यत्ता महारथाः। द्रोणं रक्षत पाञ्चालाद्धृष्टद्युम्नान्महारथात्।। | 5-165-24a 5-165-24b |
पाण्डवीयेषु सैन्येषु न तं पश्याम कञ्चन। यो योधयेद्रणे द्रोणं धृष्टद्युम्नादृते पुमान्।। | 5-165-25a 5-165-25b |
तस्मात्सर्वात्मना मन्ये भारद्वाजस्य रक्षणम्। सुगुप्तः पाण्डवान्हन्यात्सृञ्जयांश्च ससोमकान्।। | 5-165-26a 5-165-26b |
सृञ्जयेष्वथ सर्वेषु निहतेषु चमूमुखे। धृष्टद्युम्नं रमे द्रौणिर्हनिष्यति न संशयः।। | 5-165-27a 5-165-27b |
तथाऽर्जुनं च राधेयो हनिष्यति महारथः। भीमसेनमहं चापि युद्धेजेष्यामि दीक्षितः। शेषांश्च पाण्डवान्योधाः प्रसभं हीनतेजसः।। | 5-165-28a 5-165-28b 5-165-28c |
सोयं मम जयो व्यक्तो दीर्घकालं भविष्यति। तस्माद्रक्षत सङ्ग्रामे द्रोणमेव महारथम्।। | 5-165-29a 5-165-29b |
इत्युक्त्वा भरतश्रेष्ठ पुत्रो दुर्याधनस्तव। व्यादिदेश तथा सैन्यं तस्मिंस्तमसि दारुणे।। | 5-165-30a 5-165-30b |
ततः प्रववृते युद्धं रात्रौ भरतसत्तम। उभयोः सेनयोर्घोरं परस्परजिगीषया।। | 5-165-31a 5-165-31b |
अर्जुनः कौरवं सैन्यमर्जुनं चापि कौरवाः। नानाशस्त्रसमावायैरन्योन्यं समपीडयन्।। | 5-165-32a 5-165-32b |
द्रौणिः पाञ्चालराजं च भारद्वाजश्च सृञ्जयान्। छादयांचक्रिरे सङ्ख्ये शरैः सन्नतपर्वभिः।। | 5-165-33a 5-165-33b |
पाण्डुपाञ्चालसैन्यानां कौरवाणां च भारत। आसीन्निष्टानको घोरो निघ्नतामितरेतरम्।। | 5-165-34a 5-165-34b |
नैवास्माभिस्तथा पूर्वैर्दृष्टपूर्वं तथाविधम्। युद्धं यादृशमेवासीत्तां रात्रि सुभयावहम्।। | 5-165-35a 5-165-35b |
।। इति श्रीमन्महाभारते द्रोणपर्वणि घटोत्कचवधपर्वणि चतुर्दशरात्रियुद्धे पञ्चषष्ट्यधिकशततमोऽध्यायः।। 165 ।। |
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