महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-100
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श्रीकृष्णेनार्जुननिर्मितसरसि स्नापनादिनाऽऽप्यायितानां तुरगाणां पुना रथे योजनम्।। 1 ।। पुना रथमारूढयोः कृष्णः र्जुनयोर्जयद्रथम्प्रति गमनम्।। 3 ।।
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सञ्जय उवाच। | 5-100-1x |
सलिले जनिते तस्मिन्कौन्तेयेन महात्मना। निस्तारिते द्विषत्सैन्ये कृते च शरवेश्मनि।। | 5-100-1a 5-100-1b |
वासुदेवो रथात्तूर्णमवतीर्य महाद्युतिः। मोचयामास तुरगान्विनुन्नान्कङ्कपत्रिभिः।। | 5-100-2a 5-100-2b |
अदृष्टपूर्वं तद्दृष्ट्वा साधुवादो महानभूत्। सिद्धचारणसङ्घानां सैनिकानां च सर्वशः।। | 5-100-3a 5-100-3b |
पदातिनं तु कौन्तेयं युध्यमानं महारथाः। नाशक्नुवन्वारयितुं तदद्भुतमिवाभवत्।। | 5-100-4a 5-100-4b |
आपतत्सु रथौघेषु प्रभूतगजवाजिषु। नासम्भ्रमत्तदा पार्थस्तदस्य पुरुषानति।। | 5-100-5a 5-100-5b |
व्यसृजन्त शरौघांस्ते पाण्डवं प्रति पार्थिवाः। न चाव्यथत धर्मात्मा वासविः परवीरहा।। | 5-100-6a 5-100-6b |
शतानि शरजालानि गदाः प्रासांश्च वीर्यवान्। आगतानग्रसत्पार्थः सरितः सागरो यथा।। | 5-100-7a 5-100-7b |
अस्त्रवेगेन महता पार्थो बाहुबलेन च। सर्वेषां पार्थिवेन्द्राणामग्रसत्ताञ्शरोत्तमान्।। | 5-100-8a 5-100-8b |
तत्तु पार्थस्य विक्रान्तं वासुदेवस्य चोभयोः। अपूजयन्महाराज कौरवा महदद्भुतम्।। | 5-100-9a 5-100-9b |
कौरवा ऊचुः। | 5-100-10x |
किमद्भुततमं लोके भविताऽप्यथवा ह्यभूत्। यदश्वान्पार्थ गोविन्दौ पाययामासतू रणे।। | 5-100-10a 5-100-10b |
भयं विपुलमस्मासु तावधत्तां नरोत्तमौ। तेजो विदधतुश्चोग्रं यत्सैन्यं तावकं विभो। `दधारैको रणे पार्थो वेलेवोद्वृत्तमर्णवम्।। | 5-100-11a 5-100-11b 5-100-11c |
पार्थस्य शरसञ्छन्ने तस्मिन्सद्मनि भारत। आकाशमिव सम्प्राप्य विचेरुस्तत्र पक्षिणः।। | 5-100-12a 5-100-12b |
न चैनं युधि तिष्ठन्तं सैन्येषु तव मारिष। अभ्यद्रवत्सुसङ्क्रुद्धः पुमान्कश्चित्तु तावकः।। | 5-100-13a 5-100-13b |
सर्वे विमनसोऽभूवंस्तव योधा विशाम्पते। सम्प्रेक्ष्य तत्र गोविन्दं पाण्डवं च धनञ्जयम्'।। | 5-100-14a 5-100-14b |
अथ स्मयन्हृषीकेशः स्त्रीमध्य इव भारत। अर्जुनेन कृते सङ्ख्ये शरगर्भगृहे तदा।। | 5-100-15a 5-100-15b |
उपावर्तयदव्यग्रस्तानश्वान्पुष्करेक्षणः। मिषतां सर्वसैन्यानां त्वदीयानां विशाम्पते।। | 5-100-16a 5-100-16b |
`उपावृत्त्योत्थितानश्वान्पाणिभ्यां पुष्करेक्षणः। सम्मार्जयन्रणे राजन्पश्यतां सर्वयोधिनाम्'।। | 5-100-17a 5-100-17b |
तेषां श्रमं च ग्लानिं च वमथुं वेपथुं व्रणान्। सर्वं व्यपानुदत्कृष्णः कुशलो ह्यश्वकर्मणि।। | 5-100-18a 5-100-18b |
शल्यानुद्धृत्य पाणिभ्यां परिमृज्य च तान्हयान्। उपावर्त्य यथान्यायं पाययामास वारि सः।। | 5-100-19a 5-100-19b |
स ताँल्लब्धोदकान्स्नाताञ्जग्धान्नान्विगतक्लमान्। योजयामास संहृष्टः पुनरेव रथोत्तमे।। | 5-100-20a 5-100-20b |
स तं रथवरं शौरिः सर्वशस्त्रभृतां वरः। समास्थाय महातेजाः सार्जुनः प्रययौ द्रुतम्।। | 5-100-21a 5-100-21b |
`योजयित्वा हयांस्तस्य विधिदृष्टेन कर्मणा। रणे चचार गोविन्दस्तृणीकृत्य महारथान्'।। | 5-100-22a 5-100-22b |
रथं रथवरस्याजौ युक्तं लब्धोदकैर्हयैः। दृष्ट्वा कुरुबलश्रेष्ठाः पुनर्विमनसोऽभवन्।। | 5-100-23a 5-100-23b |
विनिःस्वसन्तस्ते राजन्भग्नदंष्ट्रा इवोरगाः। घिगहोऽतिगतः पार्थः कृष्णश्चेत्यब्रुवन्पृथक्।। | 5-100-24a 5-100-24b |
तत्सैन्यं सर्वतो दृष्ट्वा रोमहर्षणमद्भुतम्। त्वरध्वमिति चाक्रन्दन्नैतदस्तीति चावुवन्।। | 5-100-25a 5-100-25b |
सर्वक्षत्रस्य मिषतो रथेनैकेन दंशितौ। बालः क्रीडनकेनेव कदर्थीकृत्य नो बलम्।। | 5-100-26a 5-100-26b |
क्रोशतां यतमानानामसंसक्तौ परन्तपौ। दर्शयित्वाऽत्मनो वीर्यं प्रयातौ सर्वराजसु।। | 5-100-27a 5-100-27b |
`यथा देवासुरे युद्धे तृणीकृत्य च दानवान्। इन्द्राविष्णू पुरा राजञ्जम्भस्य वधकाङ्क्षिणौ'।। | 5-100-28a 5-100-28b |
तौ प्रयातौ पुनर्दृष्ट्वा तदाऽन्ये सैनिकाब्रुवन्। त्वरध्वं कुरवः सर्वे वधे कृष्णकिरीटिनोः।। | 5-100-29a 5-100-29b |
रथं युङ्क्त्वा हि दाशार्हो मिषतां सर्वधन्विनाम्। जयद्रथाय यात्येष कदर्थीकृत्य नो रणे।। | 5-100-30a 5-100-30b |
तत्र केचिन्मिथो राजन्समभाषन्त भूमिपाः। अदृष्टपूर्वं सङ्ग्रामे तदृष्ट्वा महदद्भुतम्।। | 5-100-31a 5-100-31b |
सर्वसैन्यानि राजा च धृतराष्ट्रोऽत्ययं गतः। दुर्योधनापराघेन क्षत्रं कृत्स्ना च मेदिनी।। | 5-100-32a 5-100-32b |
विलयं समनुप्राप्ता तच्च राजा न बुध्यते। इत्येवं क्षत्रियास्तत्र ब्रुवन्त्यन्ये च भारत।। | 5-100-33a 5-100-33b |
सिन्धुराजस्य यत्कृत्यं गतस्य यमसादनम्। तत्करोतु वृथादृष्टिर्धार्तराष्ट्रोऽनुपायवित्।। | 5-100-34a 5-100-34b |
ततः शीघ्रतरं प्रायात्पाण्डवः सैन्धवं प्रति। विवर्तमाने तिग्मांशौ हृष्टैः पीतोदकैर्हयैः।। | 5-100-35a 5-100-35b |
तं प्रयान्तं महाबाहुं सर्वशस्त्रभृतां वरम्। नाशक्नुवन्वारयितुं योधाः क्रुद्धमिवान्तकम्।। | 5-100-36a 5-100-36b |
विद्राव्य तु ततः सैन्यं पाण्डवः शत्रुतापनः। यथा मृगगणान्सिंहः सैन्धवार्थे व्यलोडयत्।। | 5-100-37a 5-100-37b |
गाहमानस्त्वनीकानि तूर्णमश्वानचोदयत्। बलाकाभं तु दाशार्हः पाञ्चजन्यं व्यनादयत्।। | 5-100-38a 5-100-38b |
कौन्तेयेनाग्रतः सृष्टा न्यपतन्पृष्ठतः शराः। तूर्णात्तूर्णतरं ह्यश्वाः प्रावहन्वातरंहसः।। | 5-100-39a 5-100-39b |
ततो नृपतयः क्रुद्धाः परिवव्रुर्धनञ्जयम्। क्षत्रिया बहवश्चान्ये जयद्रथवधैषिणम्।। | 5-100-40a 5-100-40b |
सैन्येषु विप्रयातेषु धिष्ठितं पुरुषर्षभम्। दुर्योधनोऽत्वयात्पार्थं त्वरमाणो महाहवे।। | 5-100-41a 5-100-41b |
वातोद्धूतपताकं तं रथं जलदनिःस्वनम्। घोरं कपिध्वजं दृष्ट्वा विषण्णा रथिनोऽभवन्।। | 5-100-42a 5-100-42b |
दिवाकरेऽथ रजसा सर्वतः संवृते भृशम्। शरार्ताश्चरणे योधाः शेकुः कृष्णौ न वीक्षितुम्।। | 5-100-43a 5-100-43b |
।। इति श्रीमन्महाभारते द्रोणपर्वणि जयद्रथवधपर्वणि चतुर्दशदिवसयुद्धे शततमोऽध्यायः।। 100 ।। |
5-100-5 पुरुषानति पुरुषेभ्योऽतिशयः। असम्भ्रमत्। उपसर्गात्पूर्वमार्षोऽट्।। 5-100-11 विदधतुर्दर्शितवन्तौ।। 5-100-16 उपावर्तयत्परिलोडितवान्।। 5-100-18 श्रमं मनःकायखेदम्। ग्लानि बलापचयम्। वमथुं फेनोद्रमम्।। 5-100-39 प्रावहन् अत्यक्रामन्।। 5-100-49 धिष्ठितं किञ्चिदवस्थितम्।। 5-100-100 शततमोऽध्यायः।।
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