महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-074
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अर्जुनप्रतिज्ञाश्रवणचकितस्य जयद्रथस्य द्रोणतुर्योधनाश्यासनम्।। 1 ।।
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सञ्जय उवाच। | 5-74-1x |
श्रुत्वा तु तं महाशब्दं पाण्डूनां पुत्रगृद्धिनाम्। चारैः प्रवेदितस्त्रस्तः समुत्थाय जयद्रथः।। | 5-74-1a 5-74-1b |
शोकसम्मूढहृदयो दुःखेनाभ्याहतो भृशम्। मज्जमान इवागाधे विपुले शोकसागरे। जगाम समितिं राज्ञां सैन्धवो विमृशन्बहु।। | 5-74-2a 5-74-2b 5-74-2c |
स तेषां नरदेवानां सकाशे पर्यदेवयत्। अभिमन्युपितुर्भीतः सव्रीडो वाक्यमब्रवीत्।। | 5-74-3a 5-74-3b |
योऽसौ पाण्डोः किल क्षेत्रे जातः शक्रेण कामिना। स निनीषति दुर्बुद्धिर्मां किलैकं यमक्षयम्।। | 5-74-4a 5-74-4b |
स्वस्ति वोऽस्तु गमिष्यामि स्वगृहं जीवितेप्सया। | 5-74-5a |
अथवास्त्रप्रतिबलास्त्रात मां क्षत्रियर्षभाः। पार्थेन प्रार्थितं वीरास्ते सन्दत्त ममाभयम्।। | 5-74-6a 5-74-6b |
द्रोणदुर्योधनकृपाः कर्णमद्रेशबाह्लिकाः। दुःशासनादयः शक्तास्त्रातुमप्यन्तकार्दितम्।। | 5-74-7a 5-74-7b |
किमङ्ग पुनरेकेन फल्गुनेन जिघांसता। न त्रास्यन्ति भवन्तो मां समस्ताः पतयः क्षितेः।। | 5-74-8a 5-74-8b |
प्रतिज्ञां पाण्डवेयानां श्रुत्वा मम महद्भयम्। सीदन्ति मम गात्राणि मुमूर्षोरिव पार्थिवाः।। | 5-74-9a 5-74-9b |
वधो नूनं प्रतिज्ञातो मम गाण्डीवधन्वना। तथाहि हृष्टाः क्रोशन्ति शोककालेऽपि पाण्डवाः।। | 5-74-10a 5-74-10b |
तन्न देवा न गन्धर्वा नासुरोरगराक्षसाः। उत्सहन्तेऽन्यथा कर्तुं कुत एव नराधिपाः।। | 5-74-11a 5-74-11b |
तस्मान्मामनुजानीत भद्रं वोऽस्तु नरर्षभाः। अदर्शनं गमिष्यामि न मां द्रक्ष्यन्ति पाण्डवाः।। | 5-74-12a 5-74-12b |
सञ्जय उवाच। | 5-74-13x |
एवं विलपमानं तं भयाद्व्याकुलचेतसम्। आत्मकार्यगरीयस्त्वाद्राजा दुर्योधनोऽब्रवीत्।। | 5-74-13a 5-74-13b |
न भेतव्यं नरव्याघ्र को हि त्वां पुरुषर्षभ। मध्ये क्षत्रियवीराणां तिष्ठन्तं प्रार्थयेद्युधि।। | 5-74-14a 5-74-14b |
`एतेषां नरदेवानां मत्तमातङ्गगामिनाम्। सङ्घातमुपयातानामपि विभ्येत्पुरन्दरः'।। | 5-74-15a 5-74-15b |
अहं वैकर्तनः कर्णश्चित्रसेनो विविंशतिः। भूरिश्रवाः शलः शल्यो वृषसेनो दुरासदः।। | 5-74-16a 5-74-16b |
पुरुमित्रो जयो भोजः काम्भोजश्च सुदक्षिणः। सत्यव्रतो महाबाहुर्विकर्णो दुर्मुखश्च ह।। | 5-74-17a 5-74-17b |
दुःशासनः सुबाहुश्च कालिङ्गश्चाप्युदायुधः। विन्दानुविन्दावावन्त्यौ द्रोणो द्रौणिश्च सौबलः।। | 5-74-18a 5-74-18b |
`मायावी बलवाञ्छूरो राक्षसश्चाप्यलम्बुसः'। एते चान्ये च बहवो नानाजनपदेश्वराः। ससैन्यास्त्वाभिगोप्स्यन्ति व्येतु ते मानसो ज्वरः।। | 5-74-19a 5-74-19b 5-74-19c |
त्वं चापि रथिनां श्रेष्ठः स्वयं शूरोऽमितद्युते। स कथं पाण्डवेयेभ्यो भयं पश्यसि वैन्धव।। | 5-74-20a 5-74-20b |
अक्षौहिण्यो महावीर्य मदीयास्तव रक्षणे। यत्ता योत्स्यन्ति माभैस्त्वं सैन्धव व्येतु ते भयम्।। | 5-74-21a 5-74-21b |
सञ्जय उवाच। | 5-74-22x |
एवमाश्वासितो राजन्पुत्रेण तव सैन्धवः। दुर्योधनेन सहितो द्रोणं रात्रावुपागमत्।। | 5-74-22a 5-74-22b |
उपसङ्गृह्य चरणौ द्रोणाय स विशाम्पतिः। उपोपविश्य प्रणतः पर्यपृच्छदिदं वचः।। | 5-74-23a 5-74-23b |
निमित्ते दूरपातित्वे लघुत्वे दृढवेधने। मम ब्रवीतु भगवान्विशेषं फल्गुनस्य च।। | 5-74-24a 5-74-24b |
विद्याविशेषमिच्छामि ज्ञातुमाचार्य तत्त्वतः। अर्जुनस्यात्मनश्चैव याथातथ्यं प्रचक्ष्व मे।। | 5-74-25a 5-74-25b |
द्रोण उवाच। | 5-74-26x |
सममाचार्यकं तात तव चैवार्जुनस्य च। योगाद्दुःखोषितत्वाच्च तस्मात्त्वत्तोऽधिकोऽर्जुनः।। | 5-74-26a 5-74-26b |
न तु ते युधि सन्त्रासः कार्यः पार्थात्कथञ्चन। अहं हि रक्षिता तात भयात्त्वां नात्र संशयः।। | 5-74-27a 5-74-27b |
न हि मद्बाहुगुप्तस्य प्रभवन्त्यमरा अपि। व्यूहयिष्यामि तं व्यूहं यं पार्थो न तरिष्यति।। | 5-74-28a 5-74-28b |
तस्माद्युध्यस्व माभैस्त्वं स्वधर्ममनुपालय। पितृपैतामहं मार्गमनुयाहि महारथ।। | 5-74-29a 5-74-29b |
अधीता विधिवद्वेदा अग्नयः सुहुतास्त्वया। इष्टं च बहुभिर्यज्ञैर्न ते मृत्युर्भयङ्करः।। | 5-74-30a 5-74-30b |
दुर्लभं मानुषैर्मन्दैर्महाभाग्यमवाप्य तु। भुजवीर्यार्जिताँल्लोकान्दिव्यान्प्राप्स्यस्यनुत्तमान्।। | 5-74-31a 5-74-31b |
कुरवः पाण्डवाश्चैव वृष्णयोऽन्ये च मानवाः। अहं च सहपुत्रेण अध्रुवा इति चिन्त्यताम्।। | 5-74-32a 5-74-32b |
पर्यायेण वयं सर्वे कालेन बलिना हताः। परलोकं गमिष्यामः स्वैःस्वैः कर्मभिरन्विताः।। | 5-74-33a 5-74-33b |
तपस्तप्त्वा तु याँल्लोकान्प्राप्नुवन्ति तपस्विनः। क्षत्रधर्माश्रिताः वीराः क्षत्रियाः प्राप्नुवन्ति तान्।। | 5-74-34a 5-74-34b |
एवमाश्वासितो राजा भारद्वाजेन सैन्धवः। अपानुदद्भयं पार्थाद्युद्धाय च मनो दधे।। | 5-74-35a 5-74-35b |
ततः प्रहर्षः सैन्यानां तस्य चासीद्विशाम्पते। वादित्राणां ध्वनिश्चोग्रः सिंहनादरवैः सह।। | 5-74-36a 5-74-36b |
।। इति श्रीमन्महाभारते द्रोणपर्वणि प्रतिज्ञापर्वणि चतुःसप्ततितमोऽध्यायः।। 74 ।। |
5-74-4 किलेत्यरुचौ।। 5-74-5 स्वगृहाज्जीवितेप्सया इति ङ. पाठः।। 5-74-6 पार्थेन पार्थिवा वीरास्तंद्ददध्वं ममाभयम् इति क.ट.पाठः।। 5-74-24 निमित्ते लक्ष्यभेदने।। 5-74-26 योगादभ्यासात्। दुःखोचितत्वाच्च इति क.ट.ङ.पाठः।। 5-74-30 मृत्युभवं भयम् इति क.पाठः।। 5-74-74 चतुःसप्ततितमोऽध्यायः।।
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