महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-103
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अर्जुनेन दुर्योधनपराजयः।। 1 ।।
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सञ्जय उवाच। | 5-103-1x |
एवमुक्त्वाऽर्जुनं राजा त्रिभिर्मर्मातिगैः शरैः। अभ्यविध्यन्महावेगैश्चतुर्भिश्चतुरो हयान्।। | 5-103-1a 5-103-1b |
वासुदेवं च दशभिः प्रत्यविध्यत्स्तनान्तरे। प्रतोदं चास्य भल्लेन च्छित्त्वा भूमावपातयत्।। | 5-103-2a 5-103-2b |
तं चतुर्दशभिः पार्थश्चित्रपुङ्खैः शिलाशितैः। अविध्यत्तूर्णमव्यग्रस्ते चाभ्रश्यन्त वर्मणि।। | 5-103-3a 5-103-3b |
तेषां नैष्फल्यमालोक्य पुनर्नव च पञ्च च। प्राहिणोन्निशितान्बाणांस्ते चाभ्रश्यन्त वर्मणः।। | 5-103-4a 5-103-4b |
अष्टाविंशांस्तु तान्बाणानस्तान्विप्रेक्ष्य निष्फलान्। अब्रवीत्परवीरघ्नः कृष्णोऽर्जुनमिदं वचः।। | 5-103-5a 5-103-5b |
अदृष्टपूर्वं पश्यामि शिलानामिव सर्पणम्। त्वया सम्प्रेषिताः पार्थ नार्थं कुर्वन्ति पत्रिणः।। | 5-103-6a 5-103-6b |
कच्चिद्गाण्डीवजः प्राणस्तथैव भरतर्षभ। मुष्टिश्च ते यथा पूर्वं भुजयोश्च बलं तव।। | 5-103-7a 5-103-7b |
न वा कच्चिदयं कालः प्राप्तः स्यादद्य पश्चिमः। तव चैवास्य शत्रोश्च तन्ममाचक्ष्व पृच्छतः।। | 5-103-8a 5-103-8b |
विस्मयो मे महान्पार्थ तव दृष्ट्वा शरानिमान्। व्यर्थान्निपतितान्सङ्खे दुर्योधनरथं प्रति।। | 5-103-9a 5-103-9b |
वज्राशनिसमा घोराः परकायावभेदिनः। शराः कुर्वन्ति ते नार्थं पार्थ काऽद्य विडम्बना।। | 5-103-10a 5-103-10b |
अर्जुन उवाच। | 5-103-11x |
द्रोणेन नियतं कृष्ण धार्तराष्ट्रे निदर्शितम्। अन्ते विहितमस्त्राणामेतत्कवचधारणम्।। | 5-103-11a 5-103-11b |
अस्मिन्नन्तर्हितं कृष्ण त्रैलोक्यमपि वर्मणि। एको द्रोणो हि वैदैतदहं तस्माच्च सत्तमात्।। | 5-103-12a 5-103-12b |
न शक्यमेतत्कवचं बाणैर्भेत्तुं कथञ्चन। अपि वज्रेण गोविन्द स्वयं मघवता युधि।। | 5-103-13a 5-103-13b |
जानंस्त्वमपि वै कृष्ण मां विमोहयसे कथम्। यद्वृत्तं त्रिषु लोकेषु यच्च केशव वर्तते।। | 5-103-14a 5-103-14b |
यथा भविष्यद्यच्चैव तत्सर्वं विदितं तव। न त्विदं वेद वै कश्चिद्यथा त्वं मधुसूदन।। | 5-103-15a 5-103-15b |
एष दुर्योधनः कृष्ण द्रोणेन विहितामिमाम्। तिष्ठत्यभीतवत्सङ्ख्ये बिभ्रत्कवचधारणाम्।। | 5-103-16a 5-103-16b |
यत्त्वत्र विहितं कार्यं नैष तद्वेत्ति माधव। स्त्रीवदेष बिभर्त्येतां युक्तां कवचधारणाम्।। | 5-103-17a 5-103-17b |
पश्य बाह्वोश्च मे वीर्यं धनुषश्च जनार्दन। पराजयिष्ये कौरव्यं कवचेनापि रक्षितम्।। | 5-103-18a 5-103-18b |
इदमङ्गिरसे प्रादाद्देवेशो वर्म भास्वरम्। तस्माद्वृहस्पतिः प्राप ततः प्राप पुरन्दरः।। | 5-103-19a 5-103-19b |
पुनर्ददौ सुरपतिर्मह्यं वर्म ससङ्ग्रहम्। दैवं यद्यस्य वर्मैतद्ब्रह्मणा वा स्वयं कृतम्। नैनं गोप्स्यति दुर्बुद्धिमद्य बाणहतं मया।। | 5-103-20a 5-103-20b 5-103-20c |
सञ्जय उवाच। | 5-103-21x |
एवमुक्त्वाऽर्जुनो बाणानभिमन्त्र्य व्यकर्षयत्। मानवास्त्रेण मानार्हस्तीक्ष्णावरणभेदिना।। | 5-103-21a 5-103-21b |
विकृष्यमाणांस्तेनैव धनुर्मध्यगताञ्छरान्। तानस्यास्त्रेण चिच्छेद द्रौणिः सर्वास्त्रघातिना।। | 5-103-22a 5-103-22b |
तान्निकृत्तानिषून्दृष्ट्वा दूरतो ब्रह्मवादिना। न्यवेदयत्केशवाय विस्मितः श्वेतवाहनः।। | 5-103-23a 5-103-23b |
नैतदस्त्रं मया शक्यं द्विः प्रयोक्तुं जनार्दन। अस्त्रं मामेव हन्याद्धि हन्याच्चापि बलं मम।। | 5-103-24a 5-103-24b |
ततो दुर्योधनः कृष्णौ नवभिर्नवभिः शरैः। अविध्यत रणे राजञ्शरैराशीविषोपमैः।। | 5-103-25a 5-103-25b |
भूय एवाभ्यवर्षच्च समरे कृष्णपाण्डवौ। शरवर्षेण महता ततोऽहृष्यन्त तावकाः। चक्रुर्वादित्रनिनदान्सिंहनादरवांस्तथा।। | 5-103-26a 5-103-26b 5-103-26c |
ततः क्रुद्धो रणे पार्थः सृक्विणी परिसंलिहन्। नापश्यच्च ततोऽस्याङ्गं यन्न स्याद्वर्मरक्षितम्।। | 5-103-27a 5-103-27b |
ततोऽस्य निशितैर्बाणैः सुमुक्तैरन्तकोपमैः। हयांश्चकार निर्देहानुभौ च पार्ष्णिसारथी।। | 5-103-28a 5-103-28b |
धनुरस्याच्छिनत्तूर्णं हस्तावापं च वीर्यवान्। रथं च शकलीकर्तुं सव्यसाची प्रचक्रमे।। | 5-103-29a 5-103-29b |
दुर्योधनं च बाणाभ्यां तीक्ष्णाभ्यां विरथीकृतम्। आविद्ध्यद्धस्ततलयोरुभयोरर्जुनस्तदा।। | 5-103-30a 5-103-30b |
[प्रयत्नज्ञो हि कौन्तयो नखमांसान्तरेषुभिः। स वेदनाभिराविग्नः पलायनपरायणः।।] | 5-103-31a 5-103-31b |
तं कृच्छ्रामापदं प्राप्तं दृष्ट्वा परमधन्विनः। समापेतुः परीप्सन्तो धनञ्जयशरार्दितम्।। | 5-103-32a 5-103-32b |
तं रथैर्बहुसाहस्रैः कल्पितैः कुञ्जरैर्हयैः। पदात्योघैश्च संरब्धैः परिवव्रुर्धनञ्जयम्।। | 5-103-33a 5-103-33b |
अथ नार्जुनगोविन्दौ न रथो वा व्यदृश्यत। अस्त्रवर्षेण महता शरौघैश्चापि संवृतौ।। | 5-103-34a 5-103-34b |
ततोऽर्जुनोऽस्त्रवीर्येण निजघ्ने तां वरूथिनीम्। तत्र व्यङ्गी कृताः पेतुः शतशोऽथ रथद्विपाः।। | 5-103-35a 5-103-35b |
ते हता हन्यमानाश्च न्यगृह्णंस्तं रथोत्तमम्। स रथः स्तम्भितस्तस्थौ क्रोशमात्रे समन्ततः।। | 5-103-36a 5-103-36b |
ततोऽर्जुनं वृष्णिवीरस्त्वरितो वाक्यमब्रवीत्। धनुर्विष्फारयात्यर्थमहं ध्मास्यामि चाम्बुजम्।। | 5-103-37a 5-103-37b |
ततो विष्फार्य बलवद्गाण्डीवं जघ्निवान्रिपून्। महता शरवर्षेण तलशब्देन चार्जुनः।। | 5-103-38a 5-103-38b |
पाञ्चजन्यं च बलवान्दध्मौ तारेण केशवः। रजसा ध्वस्तपक्ष्मान्तः प्रस्विन्नवदनो भृशम्।। | 5-103-39a 5-103-39b |
`तेनाच्युतोष्ठपुटपूरितमारुतेन शङ्खान्तरोदरविवृद्धविनिःसृतेन। नादेन सासुरवियत्सुरलोकपाल-- मुद्विग्नमीश्वर जगत्स्फुटतीव सर्वम्'।। | 5-103-40a 5-103-40b 5-103-40c 5-103-40d |
तस्य शङ्खस्य नादेन धनुषो निःस्वनेन च। निःसत्वाश्च ससत्वाश्च क्षितौ पेतुस्तदा जनाः।। | 5-103-41a 5-103-41b |
तैर्विमुक्तो रथो रेजे वाय्वीरित इवाम्बुदः। जयद्रथस्य गोप्तारस्ततः क्षुब्धाः सहानुगाः।। | 5-103-42a 5-103-42b |
ते दृष्ट्वा सहसा पार्थं गोप्तारः सैन्धवस्य तु। चक्रुर्नादान्महेष्वासाः कम्पयन्तो वसुन्धराम्।। | 5-103-43a 5-103-43b |
बाणशब्दरवांश्चोग्रान्विमिश्राञ्शङ्खनिःस्वनैः। प्रादुश्चक्रुर्महात्मानः सिंहनादरवानपि।। | 5-103-44a 5-103-44b |
तं श्रुत्वा निनदं घोरं तावकानां समुत्थितम्। प्रदध्मतुः शङ्खवरौ वासुदेवधनञ्जयौ।। | 5-103-45a 5-103-45b |
तेन शब्देन महता पूरितेयं वसुन्धरा। सशैला सार्णवद्वीपा सपाताला विशाम्पते।। | 5-103-46a 5-103-46b |
स शब्दो भरतश्रेष्ठ व्याप्य सर्वा दिशो दश। प्रतिसस्वान तत्रैव कुरुपाण्डवयोर्बले।। | 5-103-47a 5-103-47b |
तावका रथिनस्तत्र दृष्ट्वा कृष्णधनञ्जयौ। सम्भ्रमं परमं प्राप्तास्त्वरमाणा महारथाः।। | 5-103-48a 5-103-48b |
अथ कृष्णौ महाभागौ तावका वीक्ष्य दंशितौ। अभ्यद्रवन्त सङ्क्रुद्धास्तदद्भुतमिवाभवत्।। | 5-103-49a 5-103-49b |
।। इति श्रीमन्महाभारते द्रोणपर्वणि जयद्रथवधपर्वणि चतुर्दशदिवसयुद्धे त्र्यधिकशततमोऽध्यायः।। 103 ।। |
5-103-7 गाण्डीवतो बाणाः इति ड.पाठः। गण्डीवतः प्राणा इति क.ट.पाठः।। 5-103-17 युक्तां अन्यप्रयुक्ताम्।। 5-103-20 ससङ्ग्रहं सोपदेशम्। दैवं दैवः कृतम्।। 5-103-28 निर्देहान् निकृत्तावयवान्।। 5-103-31 नखमांसान्तरे इषुभिराविद्ध्यदिति पूर्वेणान्वयः। सन्धिरार्षः। अयं श्लोकः झ.पाठ एवास्ति।। 5-103-36 क्रोशमात्रे सैंधवतोर्थात्।। 5-103-103 त्र्यधिकशततमोऽध्यायः।।
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