महाभारतम्-07-द्रोणपर्व-055
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व्यासेन युधिष्ठिरं प्रति षोडशराजकीयाख्यानकथनप्रारम्भः।। 1 ।। नारदेन सृञ्जयम्प्रति मरुत्तराजचरितकथनम्।। 2 ।।
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सञ्जय उवाच। | 5-55-1x |
श्रुत्वा मृत्युसमुत्पत्तिं कर्माण्यनुपमानि च। धर्मराजः पुनर्वाक्यं प्रसाद्यैनमथाब्रवीत्।। | 5-55-1a 5-55-1b |
युधिष्ठिर उवाच। | 5-55-2x |
गुरवः पुण्यकर्माणः शक्रप्रतिमविक्रमाः। पूर्वं राजर्षयो ब्रह्मन्कियन्तो मृत्युना हताः।। | 5-55-2a 5-55-2b |
भूय एव तु मां तथ्यैर्वचोभिरभिबृंहय। राजर्षीणां पुराणानां समाश्वासय कर्मभिः।। | 5-55-3a 5-55-3b |
कियन्त्यो दक्षिणा दत्ताः काश्च दत्ता महात्मभिः। राजर्षिभिः पुण्यकृद्भिस्तद्भवान्प्रब्रवीतु मे।। | 5-55-4a 5-55-4b |
`व्यास उवाच। | 5-55-5x |
अन्येपि यज्वनां लोका अन्ये चापि तपस्विनाम्। क्षमावतां च त्रींल्लोकाञ्शूरा गच्छन्ति भारत।। | 5-55-5a 5-55-5b |
क्षत्रियस्य तुं सङ्ग्रामे शत्रून्हत्वा हतस्य वा। फलमत्यन्तमित्याहुर्धर्मशास्त्रविदो जनाः।। | 5-55-6a 5-55-6b |
वेदविद्याव्रतस्नाता यज्वानः पुत्रिणश्च ये। तेभ्यः परार्थ्या यज्वानो यज्वभ्यश्च तनुत्यजः।। | 5-55-7a 5-55-7b |
स वीरो यज्वनो नित्यं क्षत्रियानार्जुनिर्गतः। लोकान्पुण्यतमानिष्टानिति विद्धि विशाम्पते।। | 5-55-8a 5-55-8b |
सर्वेषां नृपसिंहानां शृणु यज्ञान्नृपोत्तम। तानतिक्रम्य गच्छन्ति स्वर्गकामास्तनुत्यजः।। | 5-55-9a 5-55-9b |
युधिष्ठिर उवाच। | 5-55-10x |
सर्वेषां यज्वनां यज्ञं श्रोतुमिच्छामि सुव्रत। दक्षिणाश्चानुरूपेभ्यो दत्ता राजर्षिसत्तमैः'।। | 5-55-10a 5-55-10b |
व्यास उवाच। | 5-55-11x |
शैब्यस्य नृपतेः पुनः सृञ्जयो नाम नामतः। सखायौ तस्य चेवोभौ ऋषी पर्वतनारदौ।। | 5-55-11a 5-55-11b |
तौ कदाचिद्गृहं तस्य प्रविष्टौ तद्दिदृक्षया। विधिवच्चार्चितौ तेन प्रीतौ तत्रोषतुः सुखम्।। | 5-55-12a 5-55-12b |
तं कदाचित्सुखासीनं ताभ्यां सह शुचिस्मिता। दुहिताऽभ्यागमत्कन्या सृञ्जयं वरवर्णिनी।। | 5-55-13a 5-55-13b |
तयाऽभिवादितः कन्यामभ्यनन्दद्यथाविधि। तत्सलिङ्गाभिराशीर्भिरिष्टाभिरभितः स्थिताम्।। | 5-55-14a 5-55-14b |
तां निरीक्ष्याब्रवीद्वाक्यं पर्वतः प्रहसन्निव। कस्येयं चञ्चलापाङ्गी सर्वलक्षणसम्मता।। | 5-55-15a 5-55-15b |
उषा स्विद्भाः स्विदर्कस्य ज्वलनस्य शिखापि वा। श्रीर्द्द्रिः कीर्तिंर्धृतिः षुष्टिः सिद्धिश्चन्द्रमसः प्रभा।। | 5-55-16a 5-55-16b |
सञ्जय उवाच। | 5-55-17x |
एवं ब्रुवाणं देवर्षिं नृपतिः सृञ्जयोऽब्रवीत्। ममेयं भगवन्कन्या वर्या वरमभीप्सति।। | 5-55-17a 5-55-17b |
नारदस्त्वब्रवीदेनं देहि मह्यमिमां नृप। भार्यार्थं सुमहच्छ्रेयः प्राप्तुं चेदिच्छसे नृप।। | 5-55-18a 5-55-18b |
ददानीत्येवं संहृष्टः सृञ्जयः प्राह नारदम्। | 5-55-19a |
व्यास उवाच। | 5-55-19x |
`एवमुक्ते नृपतिना क्रोधपर्याकुलेक्षणः'। पर्वतस्तु सुसङ्क्रुद्धो नारदं वाक्यमब्रवीत्।। | 5-55-19b 5-55-19c |
पूर्वं ममैव मनसा विद्धि भार्यां वृतामृषे। यस्मादपाचरस्तस्मात्स्वर्गं न गच्छसि।। | 5-55-20a 5-55-20b |
एवमुक्तो नारदस्तं प्रत्युवाचोत्तरं वचः। मनोवाग्बुद्धिसम्भाषा सत्यं तोयमथाग्नयः।। | 5-55-21a 5-55-21b |
पाणिग्रहममन्त्राश्च प्रथितं दारलक्षणम्। न त्वेषां निश्चिता निष्ठा त्वया सा मनसा स्मृता।। | 5-55-22a 5-55-22b |
`एवं विद्वांस्तु मां यस्मादनुव्याहृतवानसि'। तस्मात्त्वमपि न स्वर्गं गमिष्यसि मया विना। अन्योन्यमेवं शप्त्वा वै तस्थतुस्तत्र तौ तदा।। | 5-55-23a 5-55-23b 5-55-23c |
अथ सोऽपि नृपो विप्रान्पानाच्छादनभोजनैः। पुत्रकामः परं शक्त्या यत्नाच्चोपाचरच्छुचिः।। | 5-55-24a 5-55-24b |
तस्य प्रसन्ना विप्रेन्द्राः कदाचित्पुत्रदर्शिनः। तपःस्वाध्यायनिरता वेदवेदाङ्गपारगाः।। | 5-55-25a 5-55-25b |
सहिता नारदं प्राहुर्देह्यस्मै पुत्रमीप्सितम्। तथेत्युक्त्वा द्विजैरुक्तः सृञ्जयं नारदोऽब्रवीत्।। | 5-55-26a 5-55-26b |
तुभ्यं प्रसन्ना राजर्षे पुत्रमीप्सन्ति ब्राह्मणाः। वरं वृणीष्व भद्रं ते यादृशं पुत्रमीप्सितम्।। | 5-55-27a 5-55-27b |
तथोक्तः प्राञ्जली राजा पुत्रं वव्रे गुणान्वितम्। यशस्विनं कीर्तिमन्तं तेजस्विनमरिन्दमम्।। | 5-55-28a 5-55-28b |
यस्य मूत्रं पुरीषं च क्लेदः स्वेदश्च काञ्चनम्। `सर्वं भवेत्प्रसादाद्वै तादृशं तनयं वृणे।। | 5-55-29a 5-55-29b |
व्यास उवाच। | 5-55-30x |
तथा भविष्यतीत्युक्ते जज्ञे तस्योप्सितः सुतः। काञ्चनस्याकरः श्रीमान्प्रसादाद्वै सुकाङ्क्षितः।। | 5-55-30a 5-55-30b |
रुदितस्य च नेत्राभ्यामपतत्तस्य नेत्रजम्। मूत्रं पुरीषं स्वेदश्च सर्वं भवति काञ्चनम्'। सुवर्णष्ठीविरित्येव तस्य नामाभवत्कृतम्।। | 5-55-31a 5-55-31b 5-55-31c |
तस्मिन्वरप्रदानेन वर्धयत्यमितं धनम्। कारयामास नृपतिः सौवर्णं सर्वमीप्सितम्।। | 5-55-32a 5-55-32b |
गृहप्राकारदुर्गाणि ब्राह्मणावसथान्यपि। शय्यासनानि यानानि स्थालीपिठरभाजनम्।। | 5-55-33a 5-55-33b |
तस्य राज्ञोऽपि यद्वेश्म बाह्याश्चोपस्कराश्च ये। सर्वं तत्काञ्चनमयं कालेन परिवर्धितम्।। | 5-55-34a 5-55-34b |
अथ दस्युगणाः श्रुत्वा दृष्ट्वा चैनं तथाविधम्। सम्भूय तस्य नृपतेः समारब्धाश्चिकीर्षितुम्।। | 5-55-35a 5-55-35b |
केचित्तत्राब्रुवन्राज्ञः पुत्रं गृह्णीम वै स्वयम्। सोऽस्याकरः काञ्चनस्य तस्य यत्नं चरामहे।। | 5-55-36a 5-55-36b |
ततस्ते दस्यवो लुब्धाः प्रविश्य नृपतेर्गृहम्। राजपुत्रं तथाऽऽजह्रुः सुवर्णष्ठीविनं बलात्।। | 5-55-37a 5-55-37b |
गृह्यैनमनुपायज्ञा नीत्वाऽरण्यमचेतसः। हत्वा विशस्य चापश्यँ ल्लुब्धा वसु न किञ्चन।। | 5-55-38a 5-55-38b |
तस्य प्राणैर्विमुक्तस्य नष्टं तत्काञ्चनं वरम्। दस्यवश्च तदाऽन्योन्यं जघ्नुर्मूर्खा विचेतसः।। | 5-55-39a 5-55-39b |
हत्वा परस्परं नष्टाः कुमारं चाद्भुतं भुवि। असम्भाव्यं गता घोरं नरकं दुष्टकारिणः।। | 5-55-40a 5-55-40b |
तं दृष्ट्वा निहतं पुत्रं वरदत्तं महातपाः। विललाप सुदुःखार्तो बहुधा करुणं नृपः।। | 5-55-41a 5-55-41b |
विलपन्तं निशम्याथ पुत्रशोकहतं नृपम्। प्रत्यदृश्यत देवर्षिर्नारदस्तस्य सन्निधौ।। | 5-55-42a 5-55-42b |
उवाच चैनं दुःखार्तं विलपन्तमचेतसम्। सृञ्जयं नारदो यद्यत्तन्निबोध युधिष्ठिर।। | 5-55-43a 5-55-43b |
नारद उवाच। | 5-55-44x |
`त्यज शोकं महाराज वैक्लब्यं त्यज बुद्धिमन्। न मृतः शोचतो जीवेन्मुह्यतो वा नराधिप।। | 5-55-44a 5-55-44b |
त्यज शोकं नृपश्रेष्ठ न शोचन्ति भवद्विधाः। वीरो भवान्महाराज ज्ञानवृद्धोऽपि मे मतः'। कामानामवितृप्तस्त्वं सृञ्जयेह मरिष्यसि।। | 5-55-45a 5-55-45b 5-55-45c |
यस्य चैते वयं गेहे उषिता ब्रह्मवादिनः। आविक्षितं मरुत्तं च मृतं सृञ्जय शुश्रुम।। | 5-55-46a 5-55-46b |
संवर्तो याजयामास स्पर्धया वै बृहस्पतेः। यस्मै राजर्षये प्रादाद्धनं स भगवान्प्रभुः। हैमं हिमवतः पादं यियक्षोर्विविधैः सवैः।। | 5-55-47a 5-55-47b 5-55-47c |
यस्य सेन्द्रामरगणा बृहस्पतिपुरोगमाः। देवा विश्वसृजः सर्वे यजनान्ते समासते। यज्ञवाटस्य सौवर्णाः सर्वे चासन्परिच्छदाः।। | 5-55-48a 5-55-48b 5-55-48c |
यस्य सर्वं तदा ह्यन्नं मनोभिप्रायगं शुचि। कामतो बुभुजुर्विप्राः सर्वे चान्नार्थिनो द्विजाः। पयो दधि घृतं क्षौद्रं भक्ष्यं भोज्यं च शोभनम्।। | 5-55-49a 5-55-49b 5-55-49c |
यस्य यज्ञेषु सर्वेषु वासांस्याभरणानि च। ईप्सितान्युपतिष्ठन्ते प्रहृष्टान्वेदपारगान्।। | 5-55-50a 5-55-50b |
मरुतः परिवेष्टारो मरुत्तस्याभवन्गृहे। आविक्षितस्य राजर्षेर्विश्वेदेवाः सभासदः।। | 5-55-51a 5-55-51b |
यस्य वीर्यवतो राज्ञः सुवृष्ट्या सस्यसम्पदः। हविर्भिस्तर्पिता येन सम्यक्क्लृप्तैर्दिवौकसः।। | 5-55-52a 5-55-52b |
ऋषीणां च पितॄणां च देवानां सुखजीविनम्। ब्रह्मचर्यश्रुतिमुखैः सर्वैर्दानैश्च सर्वदा।। | 5-55-53a 5-55-53b |
शयनासनपानानि स्वर्णराशीश्च दुस्त्यजाः। तत्सर्वममितं वित्तं दत्तं विप्रेभ्य इच्छया।। | 5-55-54a 5-55-54b |
सोनुध्यातस्तु शक्रेण प्रजाः कृत्वा निरामयाः। श्रद्दधानो जिताँल्लोकान्गतः पुण्यदुहोऽक्षयान्।। | 5-55-55a 5-55-55b |
सप्रजः सनृपामात्यः सदारापत्यबान्धवः। यौवनेन सहस्राब्दं मरुत्तो राज्यमन्वशात्।। | 5-55-56a 5-55-56b |
स चेन्ममार सृञ्जय चतुर्भद्रतरस्त्वया। पुत्रात्पुण्यतरस्तुभ्यं मा पुत्रमनुतप्यथाः। अयज्वानमदक्षिण्यमभि श्वैत्येत्युदाहरत्।। | 5-55-57a 5-55-57b 5-55-57c |
।। इति श्रीमन्महाभारते द्रोणपर्वणि अभिमन्युवधपर्वणि षोडशराजकीये पञ्चपञ्चाशत्तमोऽध्यायः।। 55 ।। |
5-55-14 तत्सलिङ्गाभिस्तस्यानुरूपाभिः। अभितः पार्श्वतः।। 5-55-22 नत्वेषा निश्चिता निष्ठा मैत्री सप्तपदी सतां इति ङ. पाठः। निष्ठा सप्तमदी सतां इति घ. पाठः। सप्तपदी स्मृता इति झ. पाठः।। 5-55-23 शप्त्वावै तत्र वत्सरमूषतुः इति क.पाठः।। 5-55-25 पुत्रमीप्सवः इति घ.ङ.झ.पाठः।। 5-55-26 द्विजैरुक्ततो नारदस्तथेत्युक्त्वा सृञ्जयमब्रवीदित्यन्वयः।। 5-55-29 क्लेदः श्लेष्मादिः।। 5-55-31 सुवर्णष्ठीविरित्यनेन गण्डूषादिकमपि काञ्चनं भवतीति सूचितम्।। 5-55-35 चिकीर्षितुमपकारं कर्तुम्। कॄहिंसायामित्यस्य रूपम्।। 5-55-47 सवैः यज्ञैः।। 5-55-57 चतुर्भद्रतरः धर्मज्ञानवैराग्यैश्वर्याणि चत्वारि भद्राणि। धर्मार्थकामबलानीत्यन्ये तुभ्यं तव। अयज्वानमदक्षिण्यं पुत्रं अभिलक्ष्य मानुतप्यथाः हे श्वैत्य श्वित्यपुत्र इति उदाहरन्नारदः सृञ्जयं प्रतीति व्यासवाक्यम्। अदाक्षिण्यं इति झ.पाठः।। 5-55-55 पञ्चपञ्चाशत्तमोऽध्यायः।।
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