महाभारतम्-05-उद्योगपर्व-009
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शल्येन इन्द्रस्यापि दुःखानुभवे कथिते युधिष्ठिरपृच्छया तेन विस्तरेण तत्कथनोपक्रमः ।। 1 ।। इन्द्रजिघांसया त्वष्ट्रा सृष्टस्य त्रिशिरसो विश्वरूपस्य तपोभङ्गाय इन्द्रेण अप्सरसां प्रेषणम् ।। 2 ।। अप्सरोभिस्तस्याधर्षणीयत्वे ज्ञाते इन्द्रेण वज्रपातनात्तस्य हननम् ।। 3 ।। हतेपि तस्मिन् जीवतीव दृश्यमाने भयादिन्द्रप्रार्थनया यदृच्छया आगतेन तक्ष्णा तच्छिरश्छेदनम् ।। 4 ।। विश्वरूपहननकुपितेन त्वष्ट्रा पुनरिन्द्रवधाय वृत्रस्योत्पादनम् ।। 5 ।। वृत्रेणेन्द्रे पराजिते सेन्द्राणां देवानां विष्णुं प्रति गमनम् ।। 6 ।।
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युधिष्ठिर उवाच। | 5-9-1x |
कथमिन्द्रेण राजेन्द्र सभार्येण महात्मना । | 5-9-1a 5-9-1b |
शल्य उवाच। | 5-9-2x |
शृणु राजन्पुरावृत्तमितिहासं पुरातनम्। | 5-9-2a 5-9-2b |
त्वष्टा प्रजापतिर्ह्यासीद्देवश्रेष्ठो महातपाः । | 5-9-3a 5-9-3b |
ऐन्द्रं स प्रार्थयत्स्थानं विश्वरूपो महाद्युतिः । | 5-9-4a 5-9-4b |
वेदानेकेन सोऽधीते सुरामेकेन चापिबत्। | 5-9-5a 5-9-5b |
स तपस्वी मुदुर्दान्तो धर्मे तपसि चोद्यतः । | 5-9-6a 5-9-6b |
तस्य दृष्ट्वा तपोवीर्यं सत्यं चामिततेजसः । | 5-9-7a 5-9-7b |
कथं सज्जेच्च भोगेषु न च तप्येन्महत्तपः । | 5-9-8a 5-9-8b |
इति संचिन्त्य बहुधा बुद्धिमान्भरतर्षभ । | 5-9-9a 5-9-9b |
यथा स सज्जेत्रिशिराः कामभोगेषु वै भृशम् । | 5-9-10a 5-9-10b |
शृङ्गारवेषाः सुश्रोण्यो हारैर्युक्ता मनोहरैः । | 5-9-11a 5-9-11b |
प्रलोभयत भद्रं वः शमयध्वं भयं मम। | 5-9-12a 5-9-12b |
भयं तन्मे महाघोरं क्षिप्रं नाशयताबलाः । | 5-9-13a |
अप्सरस ऊचुः। | 5-9-13x |
तथा यत्नं करिष्यामः शक्र तस्य प्रलोभने। | 5-9-13b 5-9-13c |
निर्दहन्निव चक्षुर्भ्यां योऽसावास्ते तपोनिधिः। | 5-9-14a 5-9-14b |
यतिष्यामो वशे कर्तुं व्यपनेतुं च ते भयम् । | 5-9-15a |
शल्य उवाच। | 5-9-15x |
इन्द्रेण तास्त्वनुज्ञाता जग्मुस्त्रिशिरसोऽन्तिकम्। | 5-9-15b 5-9-15c |
नृत्तं संदर्शयामासुस्तथैवाङ्गेषु सौष्ठवम्। | 5-9-16a 5-9-16b |
इन्द्रियाणि वशे कृत्वा पूर्णसागरसन्निभः। | 5-9-17a 5-9-17b |
कृताञ्जलिपुटाः सर्वा देवराजमथाब्रुवन्। | 5-9-18a 5-9-18b |
यत्ते कार्यं महाभाग क्रियतां तदनन्तरम् । | 5-9-19a 5-9-19b |
चिन्तयामास तस्यैव वधोपायं युधिष्ठिर। | 5-9-20a 5-9-20b |
विनिश्चितमतिर्धीमान्वधे त्रिशिरसोऽभवत्। | 5-9-21a 5-9-21b |
शत्रुः प्रवृद्धो नोपेक्ष्यो दुर्बलोऽपि बलीयसा। | 5-9-22a 5-9-22b |
अथ वैश्वानरनिभं घोररूपं भयावहम्। | 5-9-23a 5-9-23b |
स पपात हतस्तेन वज्रेण दृढमाहतः। | 5-9-24a 5-9-24b |
तं तु वज्रहतं दृष्ट्वा शयानमचलोपमम्। | 5-9-25a 5-9-25b |
हतोऽपि दीप्ततेजाः स जीवन्निव हि दृश्यते। | 5-9-26a 5-9-26b |
` शिरांसि तस्याजायन्त त्रीण्येव शकुनास्त्रयः। | 5-9-27a 5-9-27b 5-9-27c |
ततोऽतिभीतगात्रस्तु शक्र आस्ते विचारयन्। | 5-9-28a 5-9-28b |
तदरण्यं महाराज यत्रास्तेऽसौ निपातितः । | 5-9-29a 5-9-29b |
अपश्यदब्रवीच्चैनं सत्वरं पाकशासनः । | 5-9-30a 5-9-30b |
तक्षोवाच। | 5-9-31x |
महास्कन्धो भृशं ह्येष परशुर्नभविष्यति। | 5-9-31a 5-9-31b |
इन्द्र उवाच। | 5-9-32x |
मा भैस्त्वं शीघ्रमेतद्वै कुरुष्व वचनं मम। | 5-9-32a 5-9-32b |
तक्षोवाच। | 5-9-33x |
कं भवन्तमहं विद्यां घोरकर्माणमद्य वै। | 5-9-33a 5-9-33b |
इन्द्र उवाच। | 5-9-34x |
अहमिन्द्रो देवराजस्तक्षन्विदितमस्तु ते। | 5-9-34a 5-9-34b |
` मया हि निहतः शेते त्रिशिरास्त्वं च विद्वि वै। | 5-9-35a |
वैशंपायन उवाच। | 5-9-35x |
स प्रह्वः प्राञ्जलिर्भूत्वा इदं वचनमब्रवीत्' ।। | 5-9-35b |
क्रूरेण नापत्रपसे कथं शक्रेह कर्मणा। | 5-9-36a 5-9-36b |
शक्र उवाच। | 5-9-37x |
पश्चाद्धर्मं चरिष्यामि पावनार्थ सुदुश्चरम्। | 5-9-37a 5-9-37b |
अद्यापि चाहमुद्विग्नस्तक्षन्नस्माद्बिभेमि वै। | 5-9-38a 5-9-38b |
शिरः पशोस्ते दास्यन्ति भागं यज्ञेषु मानवाः । | 5-9-39a 5-9-39b |
शल्य उवाच। | 5-9-40x |
एतच्छ्रुत्वा तु तक्षा स महेन्द्रवचनात्तदा। | 5-9-40a 5-9-40b |
निकृत्तेषु ततस्तेषु निष्क्रामन्नण्डजास्त्वथ। | 5-9-41a 5-9-41b |
येन वेदानधीते स्म पिबते सोममेव च। | 5-9-42a 5-9-42b |
येन सर्वा दिशो राजन्पिबन्निव नीरीक्षते। | 5-9-43a 5-9-43b |
यत्सुरापं तु तस्यासीद्वक्रं त्रिशिरसस्तदा। | 5-9-44a 5-9-44b |
ततस्तेषु निकृत्तेषु विज्वरो मघवानथ। | 5-9-45a 5-9-45b |
जगाम त्रिदिवं देवस्तक्षाऽपि स्वगृहान्ययौ। | 5-9-46a 5-9-46b |
` तक्षापि स्वगृहं गत्वा नैव शंसति कस्यचित्। | 5-9-47a 5-9-47b |
अथ संवत्सरे पूर्णे भूताः पशुपतेः प्रभो। | 5-9-48a 5-9-48b |
तत इन्द्रो व्रतं घोरमाचरत्पाकशासनः। | 5-9-49a 5-9-49b |
समुद्रेषु पृथिव्यां च वनस्पतिषु स्त्रीषु च। | 5-9-50a 5-9-50b |
वरदस्तु वरं दत्त्वा पृथिव्यै सागराय च। | 5-9-51a 5-9-51b |
ततस्तु शुद्धो भगवान्देवैर्लोकैश्च पूजितः । | 5-9-52a 5-9-52b |
त्वष्टा प्रजापतिः श्रुत्वा शक्रेणाथ हतं सुतम्। | 5-9-53a 5-9-53b |
त्वष्टोवाच। | 5-9-54x |
तप्यमानं तपो नित्यं क्षान्तं दान्तं जितेन्द्रियम्। | 5-9-54a 5-9-54b |
तस्माच्छक्रविनाशाय वृत्रमुत्पादयाम्यहम्। | 5-9-55a 5-9-55b 5-9-55c |
उपस्पृश्य ततः क्रुद्धस्तपस्वी सुमहायशाः । | 5-9-56a 5-9-56b |
इन्द्रशत्रो विवर्धस्व प्रभावात्तपसो मम। | 5-9-57a 5-9-57b |
किं करोमीति चोवाच कालसूर्य इवोदितः। | 5-9-58a 5-9-58b |
ततो युद्धं समभवद्वृत्रवासवयोर्महत्। | 5-9-59a 5-9-59b |
ततो जग्राह देवेन्द्रं वृत्रो वीरः शतक्रतुम् । | 5-9-60a 5-9-60b |
ग्रस्ते वृत्रेण शक्रे तु संभ्रान्तास्त्रिदिवेश्वराः। | 5-9-61a 5-9-61b |
विजृम्भमाणस्य ततो वृत्रस्यास्यादपावृतात्। | 5-9-62a 5-9-62b |
ततः प्रभृति लोकस्य जृम्भिका प्राणिसंश्रिता। | 5-9-63a 5-9-63b |
ततः प्रववृते युद्धं वृत्रवासवयोः पुनः । | 5-9-64a 5-9-64b |
यदा व्यवर्धत रणे वृत्रो बलसमन्वितः। | 5-9-65a 5-9-65b |
निवृत्ते च तदा देवा विषादमगमन्परम् । | 5-9-66a 5-9-66b |
अमन्त्रयन्त ते सर्वे मुनिभिः सह भारत। | 5-9-67a 5-9-67b |
जग्मुः सर्वे महात्मानं मनोभिर्विष्णुमव्ययम्। | 5-9-68a 5-9-68b |
।। इति श्रीमन्महाभारते उद्योगपर्वणि |
5-9-11 हावाः शृङ्गारचेष्टाः । भावाः चित्तविकारा हर्षादयस्तर्युक्ताः ।। 5-9-16 सौषवं सौन्दर्यम्। प्रहर्ष लब्धभोयोऽस्मीति तोषम् ।। 5-9-28 वर्धकिः तक्षा ।। 5-9-31 नभविष्यति नङ्क्ष्यति ।। 5-9-56 ठपस्पृश्य आचम्य ।। 5-9-60 अपावृत्य मुखं संप्रसार्य ।।
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