महाभारतम्-05-उद्योगपर्व-071

← उद्योगपर्व-070 महाभारतम्
पञ्चमपर्व
महाभारतम्-05-उद्योगपर्व-071
वेदव्यासः
उद्योगपर्व-072 →

युधिष्ठिरेण श्रीकृष्णंप्रति सन्ध्यर्थं हास्तिनपुरगामनप्रार्थनासूचकवचनोपन्यासः ।। 1 ।। श्रीकृष्णेन तत्र स्वस्य गमनकथनम् ।। 2 ।।

  1. 001
  2. 002
  3. 003
  4. 004
  5. 005
  6. 006
  7. 007
  8. 008
  9. 009
  10. 010
  11. 011
  12. 012
  13. 013
  14. 014
  15. 015
  16. 016
  17. 017
  18. 018
  19. 019
  20. 020
  21. 021
  22. 022
  23. 023
  24. 024
  25. 025
  26. 026
  27. 027
  28. 028
  29. 029
  30. 030
  31. 031
  32. 032
  33. 033
  34. 034
  35. 035
  36. 036
  37. 037
  38. 038
  39. 039
  40. 040
  41. 041
  42. 042
  43. 043
  44. 044
  45. 045
  46. 046
  47. 047
  48. 048
  49. 049
  50. 050
  51. 051
  52. 052
  53. 053
  54. 054
  55. 055
  56. 056
  57. 057
  58. 058
  59. 059
  60. 060
  61. 061
  62. 062
  63. 063
  64. 064
  65. 065
  66. 066
  67. 067
  68. 068
  69. 069
  70. 070
  71. 071
  72. 072
  73. 073
  74. 074
  75. 075
  76. 076
  77. 077
  78. 078
  79. 079
  80. 080
  81. 081
  82. 082
  83. 083
  84. 084
  85. 085
  86. 086
  87. 087
  88. 088
  89. 089
  90. 090
  91. 091
  92. 092
  93. 093
  94. 094
  95. 095
  96. 096
  97. 097
  98. 098
  99. 099
  100. 100
  101. 101
  102. 102
  103. 103
  104. 104
  105. 105
  106. 106
  107. 107
  108. 108
  109. 109
  110. 110
  111. 111
  112. 112
  113. 113
  114. 114
  115. 115
  116. 116
  117. 117
  118. 118
  119. 119
  120. 120
  121. 121
  122. 122
  123. 123
  124. 124
  125. 125
  126. 126
  127. 127
  128. 128
  129. 129
  130. 130
  131. 131
  132. 132
  133. 133
  134. 134
  135. 135
  136. 136
  137. 137
  138. 138
  139. 139
  140. 140
  141. 141
  142. 142
  143. 143
  144. 144
  145. 145
  146. 146
  147. 147
  148. 148
  149. 149
  150. 150
  151. 151
  152. 152
  153. 153
  154. 154
  155. 155
  156. 156
  157. 157
  158. 158
  159. 159
  160. 160
  161. 161
  162. 162
  163. 163
  164. 164
  165. 165
  166. 166
  167. 167
  168. 168
  169. 169
  170. 170
  171. 171
  172. 172
  173. 173
  174. 174
  175. 175
  176. 176
  177. 177
  178. 178
  179. 179
  180. 180
  181. 181
  182. 182
  183. 183
  184. 184
  185. 185
  186. 186
  187. 187
  188. 188
  189. 189
  190. 190
  191. 191
  192. 192
  193. 193
  194. 194
  195. 195
  196. 196



` जनमेजय उवच।

5-71-1x

प्रयाते सञ्जये साधौ कौरवान्प्रति वै तदा।
किं चक्रुः पाण्डवास्तत्र मम पूर्वपितामहाः ।।

5-71-1a
5-71-1b

एतत्सर्वं द्विजश्रेष्ठ विस्तरं मम सत्तम।
कथयस्व प्रयत्नेन श्रोतुमिच्छामि पण्डित ।।

5-71-2a
5-71-2b

वैशंपायन उवाच।

5-71-3x

सञ्जये प्रतियाते तु धर्मराजो युधिष्ठिरः।
अर्जुनं भीमसेनं च माद्रीपुत्रौ च भारत ।।

5-71-3a
5-71-3b

विराटं द्रुपदं चैव केकयानां महारथान्।
अब्रुवीदुपसङ्गम्य शङ्खचक्रगदाधरम् ।
अभियाचामहे गत्वा प्रयातुं कुरुसंसदम् ।।

5-71-4a
5-71-4b
5-71-4c

यथा भीष्मेण द्रोणेन बाह्लीकेन च धीमता।
अन्यैश्च कुरुभिः सार्धं न युध्येमहि संयुगे ।।

5-71-5a
5-71-5b

एष नः प्रथमः कल्प एतन्निश्रेय उत्तमम् ।
एवमुक्ताः सुमनसस्तेऽभिजग्मुर्जनार्दनम् ।।

5-71-6a
5-71-6b

पाण्डवैः सह राजानो मरुत्वन्त इवामराः।
तदा च दुःसहाः सर्वे सदस्यास्ते नरर्षभाः ।।

5-71-7a
5-71-7b

जनार्दनं समासाद्य कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः ।
अब्रवीत्परवीरध्नं दाशार्हं पाण्डुनन्दनः ।।'

5-71-8a
5-71-8b

अयं स कालः संप्राप्तो मित्राणां मित्रवत्सल ।
न च त्वदन्यं पश्यामि यो न आपत्सु तारयेत् ।।

5-71-9a
5-71-9b

त्वां हि माधवमाश्रित्य निर्भया मोघदर्पितम् ।
धार्तराष्ट्रं सहामात्यं स्वयं समनुयुङ्क्ष्महे ।।

5-71-10a
5-71-10b

यथा हि सर्वास्वापत्सु पासि वृष्णीनरिन्दम्।
तथा ते पाण्डवा रक्ष्याः पाह्यस्मान्महतो भयात् ।।

5-71-11a
5-71-11b

श्रीभगवानुवाच।

5-71-12x

अयमस्मि महाबाहो ब्रूहि यत्ते विवक्षितम् ।
करिष्यामि हि तत्सर्वं यत्त्वं वक्ष्यसि भारत ।।

5-71-12a
5-71-12b

युधिष्ठिर उवाच।

5-71-13x

श्रुतं ते धृतराष्ट्रस्य सपुत्रस्य चिकीर्षितम्।
एतद्धि सकलं कृष्ण सञ्जयो मां यदब्रवीत् ।।

5-71-13a
5-71-13b

` मृदुपूर्वं साममिश्रं सममुग्रं च माधव ।
न कतृं न्यायमास्थाय गर्हिताश्च ततो वयम् ।।'

5-71-14a
5-71-14b

तन्मतं धृतराष्ट्रस्य सोऽस्यात्मा विवृतान्तरः।
यथोक्तं दूत आचष्टे वध्यः स्यादन्यथा ब्रुवन् ।।

5-71-15a
5-71-15b

अप्रदानेन राज्यस्य शान्तिमस्मासु मार्गति।
लुब्धः पापेन मनसा चरन्नसममात्मनः ।।

5-71-16a
5-71-16b

यत्तद्द्वादशवर्षाणि वनेषु ह्युषिता वयम्।
छद्मना शरदं चैकां धृतराष्ट्रस्य शासनात् ।।

5-71-17a
5-71-17b

स्थाता नः समये तस्मिन्धृतराष्ट्र इति प्रभो।
नाहास्म समयं कृष्ण तद्धि नो ब्राह्मणा विदुः ।।

5-71-18a
5-71-18b

गृद्धो राजा धृतराष्ट्रः स्वधर्मं नानुपश्यति ।
वश्यत्वात्पुत्रगृद्धित्वान्मन्दस्यान्वेति शासनं ।।

5-71-19a
5-71-19b

सुयोधनमते तिष्ठन्राजाऽस्मासु जनार्दन।
मिथ्याचरति लुब्धः संश्चरन्हि प्रियमात्मनः ।।

5-71-20a
5-71-20b

इतो दुःखतरं किं नु यदहं मातरं ततः।
संविधातुं न शक्नोमि मित्राणां वा जनार्दन ।।

5-71-21a
5-71-21b

काशिभिश्चेदिपाञ्चालैर्मत्स्यैश्च मधुसूदन।
भवता चैव नाथेन पञ्च ग्रामा वृता मया ।।

5-71-22a
5-71-22b

अविस्थलं वृकस्थलं माकन्दी वारणावतम्।
अवसानं च गोविन्द कंचिदेवात्र पञ्चम् ।।

5-71-23a
5-71-23b

पञ्च नस्तात दीयन्तां ग्रामा वा नगराणि वा।
वसेम सहिता येषु मा च नो भरता नशन् ।।

5-71-24a
5-71-24b

न च तानपि दुष्टात्मा धार्तराष्ट्रोऽनुमन्यते।
स्वाम्यमात्मनि मत्वाऽसावतो दुःखतरं नु किं ।।

5-71-25a
5-71-25b

कुले जातस्य वृद्धस्य परवित्तेषु गृद्ध्यतः।
लोभः प्रज्ञानमाहन्ति प्रज्ञा हन्ति हता ह्रियं ।।

5-71-26a
5-71-26b

ह्रीर्हता बाधते धर्मं धर्मो हन्ति हतः श्रियम् ।
श्रीर्हता पुरुषं हन्ति पुरुषस्याधं वधः ।।

5-71-27a
5-71-27b

अधनाद्धि निवर्तन्ते ज्ञातयः सुहृदो द्विजाः।
अपुष्पादफलाद्वृक्षाद्यथा कृष्ण पतत्रिणः ।।

5-71-28a
5-71-28b

एतच्च मरणं तात उन्मत्तपतितादिव।
ज्ञातयो विनिवर्तन्ते प्रेतसत्वादिवासवः ।।

5-71-29a
5-71-29b

नातः पापीयसीं कांचिदवस्थां शम्बरोऽब्रवीत् ।
यत्र नैवाऽद्य न प्रातर्भोजनं प्रतिदृश्यते ।।

5-71-30a
5-71-30b

धनमाहुः परं धर्मं धने सर्वं प्रतिष्ठितम्।
जीवन्ति धनिनो लोके मृता ये त्वधना नराः ।।

5-71-31a
5-71-31b

ये धनादपकर्षन्ति नरं स्वबलमास्थिताः।
ते धर्ममर्थं कामं च प्रमथ्नन्ति नरं च तम् ।।

5-71-32a
5-71-32b

एतामवस्थां प्राप्यैके मरणं वव्रिरे जनाः।
ग्रामायैके वनायैके नाशायैके प्रवव्रजुः ।।

5-71-33a
5-71-33b

उन्मादमेके पुष्यन्ति यान्त्यन्ये द्विषतां वशम्।
दास्यमेके च गच्छन्ति परेषामर्थहेतुना ।।

5-71-34a
5-71-34b

आपदेवास्य मरणात्पुरुषस्य गरीयसी।
श्रियो विनाशस्तद्ध्यस्य निमित्तं धर्मकामयोः ।।

5-71-35a
5-71-35b

यदस्य धर्म्यं मरणं शाश्वतं लोकवर्त्मवत्।
समन्तात्सर्वभूतानां न तदत्येति कश्चन ।।

5-71-36a
5-71-36b

न तथा बाध्यते कृष्ण प्रकृत्या निर्धनो जनः।
यथा भद्रां श्रियं प्राप्य तया हीनः सुखैधितः ।।

5-71-37a
5-71-37b

स तदाऽऽत्मापराधेन संप्राप्तो व्यसनं महत्।
सेन्द्रान्गर्हयते देवान्नात्मानं च कथंचन ।।

5-71-38a
5-71-38b

न चास्य सर्वशास्राणि प्रभवन्ति निबर्हणे ।
सोऽभिक्रुध्याति भृत्यानां सुहृदश्चाभ्यसूयति ।।

5-71-39a
5-71-39b

तत्तदा मन्युरेवैति स भूयः संप्रमुह्यति।
स मोहवशमापन्नः क्रूरं कर्म निषेवते ।।

5-71-40a
5-71-40b

पापकर्मतया चैव सङ्करं तेन पुष्यति।
सङ्करो नरकायैव सा काष्ठा पापकर्मणाम् ।।

5-71-41a
5-71-41b

न चेत्प्रबुध्यते कृष्ण नरकायैव गच्छति।
तस्य प्रबोधः प्रज्ञैव प्रज्ञाचक्षुस्तरिष्यति ।।

5-71-42a
5-71-42b

प्रज्ञालाभे हि पुरुषः शास्त्राण्येवान्ववेक्षते ।
शास्त्रनिष्ठः पुनर्धर्मं तस्य ह्रीरङ्गमुत्तमम् ।।

5-71-43a
5-71-43b

ह्रीमान्हि पापं प्रद्वेष्टि तस्य श्रीरभिवर्धते।
श्रीमान्स यावद्भवति तावद्भवति पूरुषः ।।

5-71-44a
5-71-44b

धर्मनित्यः प्रशान्तात्मा कार्ययोगवहः सदा।
नाधर्मे कुरुते बुद्धिं न च पापे प्रवर्तते ।।

5-71-45a
5-71-45b

अह्रीको वा विमूढो वा नैव स्त्री न पुनः पुमान्।
नास्याधिकारो धर्मेऽस्ति यथा शूद्रस्तथैव सः ।।

5-71-46a
5-71-46b

ह्रीमानवति देवांश्च पितॄनात्मानमेव च।
तेनामृतत्वं व्रजति सा काष्ठा पुण्यकर्मणाम् ।।

5-71-47a
5-71-47b

तदिदं मयि ते दृष्टं प्रत्यक्षं मधुसूदन।
यथा राज्यात्परिभ्रष्टो वसामि वसतीरिमाः ।।

5-71-48a
5-71-48b

ते वयं न श्रियं हातुमलं न्यायेन केनचित्।
अत्र नो यतमानानां वधश्चेदपि साधु तत् ।।

5-71-49a
5-71-49b

तत्र नः प्रथमः कल्पो यद्वयं ते च माधव।
प्रशान्ताः समभूताश्च श्रियं तामश्रुवीमहि ।।

5-71-50a
5-71-50b

तत्रैषा परमा काष्ठा रौद्रकर्मक्षयोदया।
यद्वयं कौरवान्हत्वा तानि राष्ट्राण्यवाप्नुमः ।।

5-71-51a
5-71-51b

ये पुनः स्युरसंबद्धा अनार्याः कृष्ण शत्रवः।
तेषामप्यवधः कार्यः किंपुनर्ये स्युरीदृशाः ।।

5-71-52a
5-71-52b

ज्ञातयश्चैव भूयिष्ठाः सहाया गुरवश्च नः।
तेषां वधोऽतिपापीयान्किं नु युद्धेऽस्ति शोभनम् ।।

5-71-53a
5-71-53b

पापः क्षत्रियधर्मोऽयं वयं च क्षत्रबन्धवः।
स नः स्वधर्मोऽधर्मो वा वृत्तिरन्या विगर्हिता ।।

5-71-54a
5-71-54b

शूद्रः करोति शुश्रूषां वैश्मा वै पण्यजीविकाः ।
वयं वधेन जीवामः कपालं ब्राह्मणैर्वृतम् ।।

5-71-55a
5-71-55b

क्षत्रियः क्षत्रियं हन्ति मत्स्यो मत्स्येन जीवति।
श्वा श्वानं हन्ति दाशार्ह पश्य धर्मो यथागतः ।।

5-71-56a
5-71-56b

युद्धे कृष्ण कलिर्नित्यं प्राणाः सीदन्ति संयुगे।
बलं तु नीतिमाधाय युध्ये जयपराजयौ ।।

5-71-57a
5-71-57b

नात्मच्छन्देन भूतानां जीवितं मरणं तथा।
नाप्यकाले सुखं प्राप्यं दुःखं वाऽपि यदूत्तम ।।

5-71-58a
5-71-58b

एको ह्यपि बहून्हन्ति घ्नन्त्येकं बहवोऽप्युत।
शूरं कापुरुषो हन्ति अयशस्वी यशस्विनम् ।।

5-71-59a
5-71-59b

जयो नैवोभयोर्दृष्टो नोभयोश्च पराजयः।
तथैवापचयो दृष्टो व्यपयाने क्षयव्ययौ ।।

5-71-60a
5-71-60b

सर्वथा वृजिनं युद्धं को ध्नन्न प्रतिहन्यते।
हतस्य च हृषीकेश समौ जयपराजयौ ।।

5-71-61a
5-71-61b

पराजयश्च मरणान्मन्ये नैव विशिष्यते।
यस्य स्याद्विजयः कृष्ण तस्यप्यपचयो ध्रुवम् ।।

5-71-62a
5-71-62b

अन्ततो दयितं ध्नन्ति केचिदप्यपरे जनाः ।
तस्याङ्गबलहीनस्य पुत्रान्भ्रातॄनपश्यतः ।।

5-71-63a
5-71-63b

निर्वेदो जीविते कृष्ण सर्वतश्चोपजायते।
ये ह्येव धीरा ह्रीमन्त आर्याः करुणवेदिनः ।।

5-71-64a
5-71-64b

त एव युद्धे हन्यन्ते यवीयान्मुच्यते जनः।
हत्वाऽप्यनुशयो नित्यं परानपि जनार्दन ।।

5-71-65a
5-71-65b

अनुबद्धश्च पापोऽत्र शेषश्चाप्यवशिष्यते।
शेषो हि बलमासाद्य न शेषमनुशेषयेत् ।।

5-71-66a
5-71-66b

सर्वोच्छेदे च यतते वैरस्यान्तविधित्सया।
जयो वैरं प्रसृजति दुःखमास्ते पराजितः ।।

5-71-67a
5-71-67b

सुखं प्रशान्तः स्वपिति हित्वा जयपराजयौ ।
जातवैरश्च पुरुषो दुःखं स्वपिति नित्यदा ।।

5-71-68a
5-71-68b

अनिर्वृत्तेन मनसा ससर्प इव वेश्मनि।
उत्सादयति यः सर्वं यशसा स विमुच्यते ।।

5-71-69a
5-71-69b

अकीर्तिं सर्वभूतेषु शाश्वतीं स नियच्छति।
न हि वैराणि शाम्यन्ति दीर्घकालधृतान्यपि ।।

5-71-70a
5-71-70b

आख्यातारश्च विद्यन्ते पुमांश्चेद्विद्यते कुले।
न चापि वैरं वैरेण केशव व्युपशाम्यति ।।

5-71-71a
5-71-71b

हविषाऽग्निर्यथा कृष्ण भूय एवाभिवर्धते।
अतोऽन्यथा नास्ति शान्तिर्नित्यमन्तरमन्ततः ।।

5-71-72a
5-71-72b

अन्तरं लिप्समानानामयं दोषो निरन्तरः ।
पौरुषे यो हि बलवानाधिर्हृदयबाधनः।
तस्य त्यागेन वा शान्तिर्मरणेनापि वा भवेत् ।।

5-71-73a
5-71-73b
5-71-73c

अथवा मूलघातेन द्विषतां मधुसूदन ।
फलनिर्वृत्तिरिद्धा स्यात्तन्नृशंसतरं भवेत् ।।

5-71-74a
5-71-74b

या तु त्यागेन शान्तिः स्यात्तदृते वध एव सः।
संशयाच्च समुच्छेदाद्द्विषतामात्मनस्तथा ।।

5-71-75a
5-71-75b

न च त्यक्तुं तदिच्छामो न चेच्छामः कुलक्षयम्।
अत्र या प्रणिपातेन शान्तिः सैव गरीयसी ।।

5-71-76a
5-71-76b

सर्वथा यतमानानामयुद्धमभिकाङ्क्षताम्।
सान्त्वे प्रतिहते युद्धं प्रसिद्धं नापराक्रमः ।।

5-71-77a
5-71-77b

प्रतिघातेन सान्त्वस्य दारुणं संप्रवर्तते।
तच्छुनामिव संपाते पण्डितैरुपलक्षितम्।।

5-71-78a
5-71-78b

लाङ्गूलचालनं क्ष्वेडा प्रतिवाचो विवर्तनम् ।
दन्तदर्शनमारावस्ततो युद्धं प्रवर्तते ।।

5-71-79a
5-71-79b

तत्र यो बलवान्कृष्ण जित्वा सोत्ति तदामिषम्।
एवमेव मनुष्येषु विशेषो नास्ति कश्चन ।।

5-71-80a
5-71-80b

सर्वथा त्वेतदुचितं दुर्बलेषु बलीयसाम्।
अनादरो विरोधश्च प्रणिपाती हि दुर्बलः ।।

5-71-81a
5-71-81b

पिता राजा च वृद्धश्च सर्वथा मानमर्हति।
तस्मान्मान्यश्च पूज्यश्च धृतराष्ट्रो जनार्दन ।।

5-71-82a
5-71-82b

पुत्रस्नेहश्च बलवान्धृतराष्ट्रस्य माधव ।
स पुत्रवशमापन्नः प्रणिपातं प्रहास्यति ।।

5-71-83a
5-71-83b

तत्र किं मन्यसे कृष्ण प्राप्तकालमनन्तरम् ।
कथमर्थाच्च धर्माच्च न हीयेमहि माधव ।।

5-71-84a
5-71-84b

ईदृशेऽत्यर्थकृच्छ्रेऽस्मिन्कमन्यं मधुसूदन।
उपसंप्रष्टुमर्हामि त्वामृते पुरुषोत्तम ।।

5-71-85a
5-71-85b

प्रियश्च प्रियकामश्च गतिज्ञः सर्वकर्मणाम्।
को हि कृष्णास्ति नस्त्वादृक्सर्वनिश्चयवित्सुहृत् ।।

5-71-86a
5-71-86b

वैशंपायन उवाच।

5-71-87x

एवमुक्तः प्रत्युवाच धर्मराजं जनार्दनः ।
उभयोरेव वामर्थे यास्यामि कुरुसंसदम्।।

5-71-87a
5-71-87b

शमं तत्र लभेयं चेद्युष्मदर्थमहापयन् ।
पुण्यं मे सुमहद्राजंश्चरितं स्यान्महाफलम् ।।

5-71-88a
5-71-88b

मोचयेयं मृत्युपाशात्संरब्धान्कुरुसृञ्जयान्।
पाण्डवान्धार्तराष्ट्रांश्च सर्वां च पृथिवीमिमाम् ।।

5-71-89a
5-71-89b

युधिष्ठिर उवाच।

5-71-90x

न ममैतन्मतं कृष्ण यत्त्वं यायाः कुरून्प्रति ।
सुयोधनः सूक्तमपि न करिष्यति ते वचः ।।

5-71-90a
5-71-90b

समेतं पार्थिवं क्षत्रं दुर्योधनवशानुगम्।
तेषां मध्यावतरणं तव कृष्ण न रोचये ।।

5-71-91a
5-71-91b

न हि नः प्रीणयेद्द्रव्यं न देवत्वं कुतः सुखम्।
न च सर्वामरैश्वर्यं तव द्रोहेण माधव ।।

5-71-92a
5-71-92b

श्रीभगवानुवाच।

5-71-93x

जानाम्येतां महाराज धार्तराष्ट्रस्य पापताम्।
अवाच्यास्तु भविष्यामः सर्वलोके महीक्षितां ।।

5-71-93a
5-71-93b

न चापि मम पर्याप्ताः सहिताः सर्वपार्थिवाः ।
क्रुद्धस्य संयुगे स्थातुं सिंहस्येवेतरे मृगाः ।

5-71-94a
5-71-94b

अथ चेत्ते प्रवर्तेरन्मयि किंचिदसांप्रतम्।
निर्दहेयं कुरून्सर्वानिति मे धीयते मतिः ।।

5-71-95a
5-71-95b

न जातु गमनं पार्थ भवेत्तत्र निरर्थकम् ।
अर्थप्राप्तिः कदाचित्स्यादन्ततो वाप्यवाच्यता

5-71-96a
5-71-96b

` एवमुक्तः प्रत्युवाच धर्मराजो जनार्दनम् ।
भातॄणां समवेतानां सकाशे पुरुषोत्तमम् ' ।।

5-71-97a
5-71-97b

युधिष्ठिर उवाच।

5-71-98x

यत्तुभ्यं रोचते कृष्ण स्वस्ति प्राप्नुहि कौरवान्।
कृतार्थं स्वस्तिमन्तं त्वां द्रक्ष्यामि पुनरागतम् ।।

5-71-98a
5-71-98b

विष्वक्सेन कुरून्गत्वा भरताञ्शमयन्प्रभो।
यथा सर्वे सुमनसः सह स्याम सुचेतसः ।।

5-71-99a
5-71-99b

भ्राता चासि सखा चासि बीभत्सोर्मम च प्रियः।
सौहृदेनाविशङ्ख्योऽसि स्वस्ति प्राप्नुहि भूतये ।।

5-71-100a
5-71-100b

अस्मान्वेत्थ परान्वेत्थ वेत्थार्थान्वेत्थ भाषितुम्।
यद्यदस्मद्धितं कृष्ण तत्तद्वाच्यः सुयोधनः ।।

5-71-101a
5-71-101b

यद्यद्धर्मेण संयुक्तमुपपद्येद्धितं वचः।
तत्तत्केशव भाषेथाः सान्त्वं वा यदि वेतरत् ।।

5-71-102a
5-71-102b

।। इति श्रीमन्महाभारते उद्योगपर्वणि
भगवद्यानपर्वणि एकसप्ततितमोऽध्यायः ।।

सम्पाद्यताम्

5-71-10 अनुयुह्क्ष्महे प्रार्थयामहे ।। 5-71-15 विवृतान्तरः प्रकाशित्तभावः ।। 5-71-17 छद्मनः अज्ञातचर्यया ।। 5-71-18 स्थातास्थास्यति । नः अस्माकम्। तस्मिन् चतुर्दशे दर्षे स्वं राज्यं गृह्णीतेत्यस्मिन्। न अहास्म न त्यक्तवन्तो वयम्।। 5-71-21 मातरं संविधातुं सम्यक् पोषयितुम्। मित्राणां कर्मणिषष्ठी ।। 5-71-23 अवसीयते संस्थीयतेऽस्मिन्नित्यवसानम् यावज्जीवकं वासस्थानम् ।। 5-71-24 नः अस्माकं कृते भरताः भरतवंश्या भीष्मादयः मानशन् मानश्यन्तु ।। 5-71-28 द्विजाः अर्थिनः ।। 5-71-29 प्रेतसत्वात् प्रगतबुद्धेर्मृतादित्यर्थः ।। 5-71-31 धर्मं धर्मकारणम्। सर्वं यज्ञदानादि ।। 5-71-35 आपत्पदार्थमाह श्रियो विनाश इति। तद्धि श्रीर्हि ।। 5-71-40 तत्तदा सर्वदेत्यर्थः ।। 5-71-48 इदं ह्रीमन्तं । ते त्वया ।। 5-71-55 कपालं भिक्षापात्रम् ।। 5-71-57 नीतिमेव बलं कृत्वा युध्ये योत्स्ये। जयपराजयौ तु आत्मच्छन्देन स्वेच्छया न भवतः। तथा तद्वत् भूतानां जीवितं मरणं च स्वेच्छया न स्तः ।। 5-71-58 नीतिमेव बलं कृत्वा युध्ये योत्स्ये। जयपराजयौ तु आत्मच्छन्देन स्वेच्छया न भवतः। तथा तद्वत् भूतानां जीवितं मरणं च स्वेच्छया न स्तः ।। 5-71-65 अनुशयः पश्चात्तापः ।। 5-71-66 शेषः शत्रोः । शेषं स्वस्य ।। 5-71-69 अनिर्वृत्तेन अस्वस्थेन ।। 5-71-72 अत इति। यतः अन्तरं छिद्रं नित्यं अपरिहार्थं अतो हेतोः अन्ततोऽन्यथा स्वस्य शत्रोर्वा नाशं विना शान्तिर्नास्ति ।। 5-71-73 अयं दोषः नाशाख्यः ।। 5-71-74 इद्धा प्रदीप्ता ।। 5-71-75 त्यागेन राज्यस्येतिः शेषः। तदृते राज्यं विना। द्विषतां संशयात् किं शत्रवश्छिद्रे भ्रष्टश्छिद्रे प्रहरिष्यन्ति उत उपेक्षां करिष्यन्तीत्येवंरूपात् । आत्मनः भ्रष्टश्रीकस्य सद्यः समुच्छेदात् नाशसंभवात्। अतो राज्यत्यागो न युक्त इति भावः ।। 5-71-78 दारुणं युद्धम् तच्छुनामिव निन्द्यमित्यर्थः ।। 5-71-79 क्ष्वेडा ध्विकौटिल्यम्। विवर्तनं भूमौ लुष्ठनम्। दन्तदर्शनं मुखस्य व्यादानेन ।। 5-71-83 प्रहास्यति न स्वीकरिष्यति ।। 5-71-99 तथा वदेति शेषः ।।

उद्योगपर्व-070 पुटाग्रे अल्लिखितम्। उद्योगपर्व-072