महाभारतम्-05-उद्योगपर्व-161
← उद्योगपर्व-160 | महाभारतम् पञ्चमपर्व महाभारतम्-05-उद्योगपर्व-161 वेदव्यासः |
उद्योगपर्व-162 → |
उलूकेन पाण्डवानुपेत्य युधिष्ठिरार्जुनौप्रति दुर्योधनसन्देशकथनम् ।। 1 ।।
|
सञ्जय उवाच। | 5-161-1x |
सेनानिवेशं संप्राप्तः कैतव्यः पाण्डवस्य ह । | 5-161-1a 5-161-1b |
अभिज्ञो दूतवाक्यानां यथोक्तं ब्रुवतो मम। | 5-161-2a 5-161-2b |
युधिष्ठिर उवाच। | 5-161-3x |
उलूक न भयं तेऽस्ति ब्रूहि त्वं विगतज्वरः । | 5-161-3a 5-161-3b |
सञ्जय उवाच। | 5-161-4x |
ततो द्युतिमतां मध्ये पाण्डवानां महात्मनाम्। | 5-161-4a 5-161-4b |
द्रुपदस्य सपुत्रस्य विराटस्य च संनिधौ । | 5-161-5a 5-161-5b |
उलूक उवाच। | 5-161-6x |
इदं त्वामब्रवीद्राजा धार्तराष्ट्रो महामनाः । | 5-161-6a 5-161-6b |
पराजितोऽसि द्यूतेन कृष्णा चानायिता सभाम् । | 5-161-7a 5-161-7b |
द्वादशैव तु वर्षाणि वने धिष्ण्याद्विवासितः । | 5-161-8a 5-161-8b |
अमर्षं राज्यहरणं वनवासं च पाण्डव। | 5-161-9a 5-161-9b |
अशक्तेन च यच्छप्तं भीमसेनेन पाण्डव । | 5-161-10a 5-161-10b |
लोहाभिसारो निर्वृत्तः कुरुक्षेत्रमकर्दमम्। | 5-161-11a 5-161-11b |
असमागम्य भीष्मेण संयुगे किं विकत्थसे । | 5-161-12a 5-161-12b |
एवं कत्थसि कौन्तेय अकत्थन्पुरुषो भव। | 5-161-13a 5-161-13b |
द्रोणं च बलिनां श्रेष्ठं शचीपतिसमं युधि। | 5-161-14a 5-161-14b |
ब्राह्मे धनुषि चाचार्यं वेदयोरन्तगं द्वयोः। | 5-161-15a 5-161-15b |
द्रोणं महाद्युतिं पार्थ जेतुमिच्छसि तन्मृषा । | 5-161-16a 5-161-16b |
अनिलो वा वहेन्मेरुं द्यौर्वापि निपतेन्महीम् । | 5-161-17a 5-161-17b |
को ह्यस्ति जीविताकाङ्क्षी प्राप्येममरिमर्दनम् । | 5-161-18a 5-161-18b |
कथमाभ्यामभिध्यातः संसृष्टो दारुणेन वा । | 5-161-19a 5-161-19b |
किं दुर्दुरः कूपशयो यथेमां | 5-161-20a 5-161-20b 5-161-20c 5-161-20d |
प्राच्यैः प्रतीच्यैरथ दाक्षिणात्यै- | 5-161-21a 5-161-21b 5-161-21c 5-161-21d |
नानाजनौघं युधि संप्रवृद्धं | 5-161-22a 5-161-22b 5-161-22c 5-161-22d |
इत्येवमुक्त्वा राजानं धर्मपुत्रं युधिष्ठिरम्। | 5-161-23a 5-161-23b |
अकत्थमानो युध्यस्व कत्थेसेऽर्जुन किं बहु। | 5-161-24a 5-161-24b |
यदीदं कत्थनाल्लोके सिध्येत्कर्म धनञ्जय । | 5-161-25a 5-161-25b |
जानामि ते वासुदेवं सहायं | 5-161-26a 5-161-26b 5-161-26c 5-161-26d |
न तु पर्यायधर्मेण राज्यं प्राप्नोति मानुषः । | 5-161-27a 5-161-27b |
त्रयोदश समा भुक्तं राज्यं विलपतस्तव । | 5-161-28a 5-161-28b |
क्व तदा गाण्डिवं तेऽभूद्यत्त्वं दासपणैर्जितः। | 5-161-29a 5-161-29b |
सगदाद्भीमसेनाद्वा पार्थाद्वापि सगाण्डिवात् । | 5-161-30a 5-161-30b |
सा वो दास्ये समापन्नान्मोचयामास पार्षती । | 5-161-31a 5-161-31b |
अवोचं यत्षण्डतिलानहं वस्तथ्यमेव तत् । | 5-161-32a 5-161-32b |
सूदकर्मणि च श्रान्तं विराटस्य महानसे । | 5-161-33a 5-161-33b |
एवमेतत्सदां दण्डं क्षत्रियाः क्षत्रिये दधुः । | 5-161-34a 5-161-34b |
न भयाद्वासुदेवस्य न चापि तव फाल्गुन । | 5-161-35a 5-161-35b |
न माया हीन्द्रजालं वा कुहका वापि भीषणा । | 5-161-36a 5-161-36b |
वासुदेवसहस्रं वा फाल्गुनानां शतानि वा। | 5-161-37a 5-161-37b |
संयुगं गच्छ भूष्मेण भिन्धि वा शिरसा गिरिम्। | 5-161-38a 5-161-38b |
शारद्वतमहामीनं विविंशतिमहोरगम् । | 5-161-39a 5-161-39d |
भीष्मवेगमपर्यन्तं द्रोणग्राहदुरासदम्। | 5-161-40a 5-161-40b |
दुःशासनौघं शलशल्यमत्स्यं | 5-161-41a 5-161-41b 5-161-41c 5-161-41d |
शस्त्रौघमक्षय्यमतिप्रवृद्धं | 5-161-42a 5-161-42b 5-161-42c 5-161-42d |
तदा मनस्ते त्रिदिवादिवाशुचे- | 5-161-43a 5-161-43b 5-161-43c 5-161-43d |
।। इति श्रीमन्महाभारते |
उद्योगपर्व-160 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | उद्योगपर्व-162 |