महाभारतम्-05-उद्योगपर्व-011
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ऋषिभिर्देवैश्च नहुपस्य वरदानपूर्वकमिन्द्रराज्ये अभिषेचनम् ।। 1 ।। कदाचन स्वावलीकनेन कलुषितमनसा नहुपेण काम्यमानायै इन्द्राण्यै बृहस्पतिना अभयप्रदानम् ।। 2 ।।
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शल्य उवाच। | 5-11-1x |
ऋषयोऽथाब्रुवन्सर्वे देवाश्च त्रिदिवेश्वराः। | 5-11-1a 5-11-1b |
तेजस्वी च यशस्वी च धार्मिकश्चैव नित्यदा। | 5-11-2a 5-11-2b |
स तानुवाच नहुषो देवानृपिगणांस्तथा । | 5-11-3a 5-11-3b |
दुर्बलोऽहं न मे शक्तिर्भवतां परिपालने। | 5-11-4a 5-11-4b |
तमब्रुवन्पुनः सर्वे देवा ऋषिपुरोगमाः । | 5-11-5a 5-11-5b |
परस्परभयं घोरमस्माकं हि न संशयः । | 5-11-6a 5-11-6b |
देवदानवयक्षाणामृषीणां रक्षसां तथा। | 5-11-7a 5-11-7b |
तेज आदास्यसे पश्यन्बलवांश्च भविष्यसि। | 5-11-8a 5-11-8b |
ब्रह्मर्षीश्चापि देवांश्च गोपायस्व त्रिविष्टपे । | 5-11-9a |
शल्य उवाच। | 5-11-9x |
अभिषिक्तः स राजेन्द्र ततो राजा त्रिविष्टपे ।। | 5-11-9b |
धर्मं पुरस्कृत्य तदा सर्वलोकाधिपोऽभवत्। | 5-11-10a 5-11-10b |
धर्मात्मा सततं भूत्वा कामात्मा समपद्यत। | 5-11-11a 5-11-11b |
कैलासे हिमवत्पृष्ठे मन्दरे श्वेतपर्वते। | 5-11-12a 5-11-12b |
अप्सरोभिः परिवृतो देवकन्यासमावृतः । | 5-11-13a 5-11-13b |
श्रृण्वन्दिव्या बहुविधाः कथाः श्रुतिमनोहराः । | 5-11-14a 5-11-14b |
विश्वावसुर्नारदश्च गन्धर्वाप्सरसां गणाः। | 5-11-15a 5-11-15b |
मारुतः सुरभिर्वाति मनोज्ञः सत्वशीतलः । | 5-11-16a 5-11-16b |
संप्राप्ता दर्शनं देवी शक्रस्य महिषी प्रिया। | 5-11-17a 5-11-17b |
इन्द्रस्य महिषी देवी कस्मान्मां नोपतिष्ठति। | 5-11-18a 5-11-18b |
आगच्छतु शची मह्यं क्षिप्रमद्य निवेशनम् । | 5-11-19a 5-11-19b |
रक्ष मां नहुषाद्ब्रह्मंस्त्वामस्मि शरणं गता। | 5-11-20a 5-11-20b |
देवराजस्य दयितामत्यन्तं सुखभागिनीम्। | 5-11-21a 5-11-21b |
उक्तवानसि मां पूर्वमृतां तां कुरु वै गिरम्। | 5-11-22a 5-11-22b |
तस्मादेतद्भवेत्सत्यं त्वयोक्तं द्विजसत्तम। | 5-11-23a 5-11-23b |
यदुक्तासि मया देवि सत्यं तद्भविता ध्रुवम् । | 5-11-24a 5-11-24b |
न भेतव्यं च नहुषात्सत्यमेतद्ब्रवीमि ते। | 5-11-25a 5-11-25b |
अथ शुश्राव नहुष इन्द्राणीं शरणीं गताम्। | 5-11-26a 5-11-26b |
।। इति श्रीमन्महाभारते उद्योगपर्वणि |
5-11-2 नोऽस्माकं राजा भव ।। 2 ।।
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