महाभारतम्-05-उद्योगपर्व-017
← उद्योगपर्व-016 | महाभारतम् पञ्चमपर्व महाभारतम्-05-उद्योगपर्व-017 वेदव्यासः |
उद्योगपर्व-018 → |
लोकपालैः सह नहुषनिषूदनोपायं मन्त्रयन्तमिन्द्रमेत्य भगस्त्येन नहुषस्य देवराज्यात्परिभ्रंशनिवेदनम् ।। 1 ।।
|
शल्य उवाच। | 5-17-1x |
अथ संचिन्तयानस्य देवराजस्य धीमतः। | 5-17-1a 5-17-1b |
तपस्वी तत्र भगवानगस्त्यः प्रत्यदृश्यत। | 5-17-2a 5-17-2b |
विश्वरूपविनाशेन वृत्रासुरवधेन च। | 5-17-3a 5-17-3b |
दिष्ट्या हतारिं पश्यामि भवन्तं वलसूदन। | 5-17-4a |
इन्द्र उवाच। | 5-17-4x |
स्वागतं ते महर्षेऽस्तु प्रीतोऽहं दर्शनात्तत। | 5-17-4b 5-17-4c |
शल्य उवाच। | 5-17-5x |
पूजितं चोपविष्टं तमासेन मुनिसत्तमम्। | 5-17-5a 5-17-5b |
श्रोतुमिच्छामि भगवन्कथ्यमानं द्विजोत्तम। | 5-17-6a 5-17-6b |
अगस्त्य उवाच। | 5-17-7x |
श्रृणु शक्र प्रियं वाक्यं यथा राजा दुरात्मवान् । | 5-17-7a 5-17-7b |
श्रमार्ताश्च वहन्तस्तं नहुषं पापकारिणम् । | 5-17-8a 5-17-8b |
पप्रच्छुर्नहुषं देवं संशयं जयतां वर। | 5-17-9a 5-17-9b |
एते प्रमाणं भवत उताहो नेति वासव। | 5-17-10a 5-17-10b |
ऋषय ऊचुः। | 5-17-11x |
अधर्मे संप्रवृत्तस्त्वं धर्मं न प्रतिपद्यसे। | 5-17-11a 5-17-11b |
अगस्त्य उवाच। | 5-17-12x |
ततो विवदमानः स मुनिभिः सह वासव । | 5-17-12a 5-17-12b |
तेनाभूद्धततेजाश्च निःश्रीकश्च महीपतिः । | 5-17-13a 5-17-13b |
यस्मात्पूर्वैः कृतं राजन्ब्रह्मर्षिभिरनुष्ठितम् । | 5-17-14a 5-17-14b |
यच्चापि त्वमृषीन्मूढ ब्रह्मकल्पान्दुरासदान् ।। | 5-17-15a |
वाहान्कृत्व्रा वाहयसि तेन स्वर्गाद्धतप्रभः । | 5-17-16a 5-17-16b |
दशवर्षसहस्राणि सर्परूपधरो महान्। | 5-17-17a 5-17-17b |
` दृष्ट्वा युधिष्ठिरं नाम तव वंशसमुद्भवम्। | 5-17-18a 5-17-18b |
एवं भ्रष्टो दुरात्मा स देवराज्यादरिन्दम। | 5-17-19a 5-17-19b |
त्रिविष्टपं प्रपद्यस्व पाहि लोकाञ्शचीपते। | 5-17-20a 5-17-20b |
शल्य उवाच। | 5-17-21x |
ततो देवा भृशं तुष्टा महर्षिगणसंवृताः। | 5-17-21a 5-17-21b |
गन्धर्वा देवकन्याश्च सर्वे चाप्सरसां गणाः। | 5-17-22a 5-17-22b |
उपागम्याब्रुवन्सर्वे दिष्ट्या वर्धसि शक्रुहन् । | 5-17-23a 5-17-23b 5-17-23c |
।। इति श्रीमन्महाभाते उद्योगपर्वणि |
उद्योगपर्व-016 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | उद्योगपर्व-018 |