महाभारतम्-05-उद्योगपर्व-010
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विष्णवाज्ञया ऋषिभिर्वृत्रस्य आसुधाद्यवध्यत्ववरदानपूर्वकं इन्द्रवृत्रयोः सन्धिकरणम् ।। 1 ।। कदाचन समुद्रतीरे वृत्रं दृष्टवता इन्द्रेण वृत्रोपरि सवज्रे फेने प्रक्षिप्ते तत्प्रविष्टेन विष्णुना वृत्रहननम् ।। 2 ।। वृत्रवधजन्यब्रह्महत्यापीडितस्येन्द्रस्य स्वर्गात्प्रवासः ।। 3 ।।
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इन्द्र उवाच। | 5-10-1x |
सर्वं व्याप्तमिदं देवा वृत्रेण जगदव्ययम्। | 5-10-1a 5-10-1b |
समर्थो ह्यभवं पूर्वमसमर्थोऽस्मि सांप्रतम्। | 5-10-2a 5-10-2b |
तेजस्वी च महात्मा च युद्धे चामितविक्रमः । | 5-10-3a 5-10-3b |
तस्माद्विनिश्चयमिमं शृणुध्वं त्रिदिवौकसः। | 5-10-4a 5-10-4b |
तेन संमन्त्र्य वेत्स्यामो वधोपायं दुरात्मनः । | 5-10-5a |
शल्य उवाच। | 5-10-5x |
एवमुक्ते मघवता देवाः शर्षिगणास्तदा। | 5-10-5b 5-10-5c |
ऊचुश्च सर्वे देवेशं विष्णुं वृत्रभयार्दिताः। | 5-10-6a 5-10-6b |
अमृतं चाहृतं विष्णो दैत्याश्च निहता रणे। | 5-10-7a 5-10-7b |
त्वं प्रभुः सर्वदेवानां त्वया सर्वमिदं ततम्। | 5-10-8a 5-10-8b |
गतिर्भव त्वं देवानां सेन्द्राणाममरोत्तम। | 5-10-9a 5-10-9b |
विष्णुरुवाच। | 5-10-10x |
अवश्यं करणीयं मे भवतां हितमुत्तमम्। | 5-10-10a 5-10-10b |
गच्छध्वं सर्षिगन्धर्वा यत्रासौ विश्वरूपधृक्। | 5-10-11a 5-10-11b |
भविष्यति जयो देवाः शक्रस्य मम तेजसा । | 5-10-12a 5-10-12b |
गच्छध्वमृषिभिः सार्धं गन्धर्वैश्च सुरोत्तमाः । | 5-10-13a 5-10-13b |
शल्य उवाच। | 5-10-14x |
एवमुक्ते तु देवेन ऋषयस्त्रिदशास्तथा । | 5-10-14a 5-10-14b |
समीपमेत्य च यदा सर्व एव महौजसः। | 5-10-15a 5-10-15b |
ग्रसन्तमिव लोकांस्त्रीन्सूर्याचन्द्रमसौ यथा। | 5-10-16a 5-10-16b |
ऋषयोऽथ ततोऽभ्येत्य वृत्रमूचुः प्रियं वचः। | 5-10-17a 5-10-17b |
न च शक्नोषि निर्जेषुं वासवं बलिनां वर। | 5-10-18a 5-10-18b |
पीड्यन्ते च प्रजाः सर्वाः सदेवासुरमानुषाः । | 5-10-19a 5-10-19b |
अवाप्स्यसि सुखं त्वं च शक्रलोकांश्च शाश्वतान्। | 5-10-20a 5-10-20b |
उवाच तानृषीन्सर्वान्प्रणम्य शिरसाऽसुरः । | 5-10-21a 5-10-21b |
यद्ब्रूथ तच्छ्रुतं सर्वं ममापि श्रृणुतानघाः। | 5-10-22a 5-10-22b 5-10-22c |
ऋषय ऊचुः । | 5-10-23x |
सकृत्सतां सङ्गतमीप्सितव्यं | 5-10-23a 5-10-23b 5-10-23c 5-10-23d |
दृढं सतां सङ्गतं चापि नित्यं | 5-10-24a 5-10-24b 5-10-24c 5-10-24d |
इन्द्रः सतां संमतश्च निवासश्च महात्मनाम्। | 5-10-25a 5-10-25b |
तेन ते सह शक्रेण सन्धिर्भवतु नित्यदा। | 5-10-26a 5-10-26b |
शल्य उवाच। | 5-10-27x |
महर्षिवचनं श्रुत्वा तानुवाच महाद्युतिः। | 5-10-27a 5-10-27b |
ब्रवीमि यदहं देवास्तत्सर्वं क्रियते यदि। | 5-10-28a 5-10-28b |
न शुष्केण न चाद्रेण नाश्मना न च दारुणा । | 5-10-29a 5-10-29b |
वध्यो भवेयं विप्रेन्द्राः शक्रस्य सह दैवतैः । | 5-10-30a 5-10-30b |
बाढमित्येव ऋषयस्तमूचुर्भरतर्षभ। | 5-10-31a 5-10-31b |
` ततः सन्धिं मिथः कृत्वा ऋषयो दीप्ततेजसः। | 5-10-32a 5-10-32b |
युक्तः सदाऽभवच्चापि शक्रो हर्षसमन्वितः। | 5-10-33a 5-10-33b |
` अभिसन्धिर्महेन्द्रस्य सन्धिकर्मणि यः कृतः। | 5-10-34a 5-10-34b |
छिद्रान्वेषी समुद्विग्नः सदा वसति देवराट्। | 5-10-35a 5-10-35b |
सन्ध्याकाल उपावृत्ते मुहूर्ते चातिदारुणे। | 5-10-36a 5-10-36b |
सन्ध्येयं वर्तते रौद्रा न रात्रिर्दिवसं न च। | 5-10-37a 5-10-37b |
यदि वृत्रं न हन्म्यद्य वञ्चयित्वा महासुरम्। | 5-10-38a 5-10-38b |
एवं संचिन्तयन्नेव शक्रो विष्णुमनुस्मरन्। | 5-10-39a 5-10-39b |
नायं युष्को न चाद्रोऽयं न च शस्त्रमिदं तथा। | 5-10-40a 5-10-40b |
सवज्रमथ फेनं तं क्षिप्रं वृत्रे निसृष्टवान्। | 5-10-41a 5-10-41b |
निहते तु ततो वृत्रे दिशो वितिमिराऽभवन्। | 5-10-42a 5-10-42b |
ततो देवाः सगन्धर्वा यक्षरक्षोमहोरगाः । | 5-10-43a 5-10-43b |
नमस्कृतः सर्वभूतैः सर्वभूतान्यसान्त्वयत्। | 5-10-44a 5-10-44b |
विष्णुं त्रिभुवनश्रेष्ठं पूजयामास धर्मवित्। | 5-10-45a 5-10-45b |
अनृतेनाभिभूतोऽभूच्छक्रः परमदुर्मनाः । | 5-10-46a 5-10-46b |
` महादेवस्य भूतैश्च स पुनर्ब्रह्महा इति। | 5-10-47a 5-10-47b |
सोऽन्तमाश्रित्य लोकानां नष्टसंज्ञो विचेतनः। | 5-10-48a 5-10-48b |
प्रतिच्छन्नोऽवसच्चाप्सु चेष्टमान इवोरगः । | 5-10-49a 5-10-49b |
भूमिः प्रध्वस्तसंकाशा निर्वृक्षा शुष्ककानना । | 5-10-50a 5-10-50b |
संक्षोभश्चापि सत्वानामनावृष्टिकृतोऽभवत्। | 5-10-51a 5-10-51b |
अराजकं जगत्सर्वमभिभूतमुपद्रवैः। | 5-10-52a 5-10-52b |
दिवि देवर्षयश्चापि देवराजविनाकृताः। | 5-10-53a 5-10-53b |
।। इति श्रीमन्महाभारते उद्योगपर्वणि |
5-10-4 क्षयं गृहम् ।। 4 ।।
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