महाभारतम्-05-उद्योगपर्व-151
← उद्योगपर्व-150 | महाभारतम् पञ्चमपर्व महाभारतम्-05-उद्योगपर्व-151 वेदव्यासः |
उद्योगपर्व-152 → |
युधिष्ठिरेण भ्रातॄन्प्रति कस्यचित्सेनापतित्वकल्पने स्वस्वाभिप्रायनिवेदनचोदना ।। 1 ।।
तैः स्वस्वाभिप्रायनिवेदनानन्तरं युधिष्ठिरेण श्रीकृष्णंप्रति तदभिप्रायनिवेदनप्रार्थना ।। 2 ।।
श्रीकृष्णेन धृष्टद्युम्नस्य सेनापतित्वेन वरणस्य स्वाभिमतत्वकथने राज्ञां हर्षात्समुद्धोपः ।। 3 ।।
युधिष्ठिरादीनां सर्वेषां कुरुक्षेत्रप्रवेशः ।। 4 ।।
|
वैशंपायन उवाच। | 5-151-1x |
जनार्दनवचः श्रुत्वा धर्मराजो युधिष्ठिरः। | 5-151-1a 5-151-1b |
श्रुतं भवद्भिर्यद्वृत्तं सभायां कुरुसंसदि । | 5-151-2a 5-151-2b |
तस्मात्सेनाविभागं मे कुरुध्वं नरसत्तमाः । | 5-151-3a 5-151-3b |
तासां ये पतयः सप्त विख्यातास्तान्निबोधत। | 5-151-4a 5-151-4b |
सात्यकिश्चेकितानश्च भीमसेनश्च वीर्यवान् । | 5-151-5a 5-151-5b |
सर्वे वेदविदः शूराः सर्वे सुचिरितव्रताः । | 5-151-6a 5-151-6b |
इष्वस्त्रकुशलाः सर्वे तथा सर्वास्त्रयोधिनः । | 5-151-7a 5-151-7b |
यः सहेत रणे भीष्णं शरार्चिःपावकोपमम् । | 5-151-8a 5-151-8b 5-151-8c |
सहदेव उवाच। | 5-151-9x |
संयुक्त एकदुःखश्च वीर्यवांश्च महीपतिः। | 5-151-9a 5-151-9b |
मत्स्यो विराटो बलवान्कृतास्त्रो युद्धदुर्मदः । | 5-151-10a 5-151-10b |
वैशंपायन उवाच। | 5-151-11x |
तथोक्ते सहदेवेन वाक्ये वाक्यविशारदः । | 5-151-11a 5-151-11b |
वयसा शास्त्रतो धैर्यात्कुलेनाभिजनेन च । | 5-151-12a 5-151-12b |
वेद चास्त्रं भारद्वाजाहुर्धर्षः सत्यसङ्गरः । | 5-151-13a 5-151-13b |
श्लाघ्यः पार्थिववंशस्य प्रमुखे वाहिनीपतिः। | 5-151-14a 5-151-14b |
यस्तताप तपो घोरं सदारः पृथिवीपतिः । | 5-151-15a 5-151-15b |
पितेवास्मान्समाधत्ते यः सदा पार्थिवर्षभः । | 5-151-16a 5-151-16b |
स द्रोणभीष्मावायातौ सहेदिति मतिर्मम । | 5-151-17a 5-151-17b |
माद्रीसुताभ्यामुक्ते तु स्वमते कुरुनन्दनः। | 5-151-18a 5-151-18b |
योयं तपःप्रभावेन ऋषिसन्तोषणेन च । | 5-151-19a 5-151-19b |
धनुष्मान्कवची खङ्गी रथमारुह्य दंशितः । | 5-151-20a 5-151-20b |
गर्जन्निव महामेघो रथघोषेण वीर्यवान् । | 5-151-21a 5-151-21b |
सिंहोरस्कः सिंहभुजः सिंहवक्षा महाबलः । | 5-151-22a 5-151-22b |
शुभ्रूः सुदंष्ट्रः सुहनुः सुबाहुः सुमुखोऽकृशः । | 5-151-23a 5-151-23b |
अभेद्यः सर्वशस्त्राणां प्रभिन्न इव वारणः । | 5-151-24a 5-151-24b |
धृष्टद्युम्नमहं मन्ये सहेद्भीष्मस्य सायकान्। | 5-151-25a 5-151-25b |
यमदूतसमान्वेगे निपाते पावकोपमान् । | 5-151-26a 5-151-26b |
पुरुष तं न पश्यामि यः सहेत महाव्रतम्। | 5-151-27a 5-151-27b |
क्षिप्रहस्तश्चित्रयोधी मतः सेनापतिर्मम । | 5-151-28a 5-151-28b |
`अर्जुनेनैवमुक्ते तु भीमो वाक्यं समाददे।' | 5-151-29a 5-151-29b 5-151-29c |
यस्य सङ्ग्राममध्ये तु दिव्यमस्त्रं प्रकुर्वतः । | 5-151-30a 5-151-30b |
न तं युद्धे प्रपश्यामि यो भिन्द्यात्तु शिखण्डिनाम् । | 5-151-31a 5-151-31b |
द्वैरथे समरे नान्यो भीष्मं हन्यान्महाव्रतम् । | 5-151-32a 5-151-32b |
युधिष्ठिर उवाच। | 5-151-33x |
सर्वस्य जगतस्तात सारासारं बालाबलम् । | 5-151-33a 5-151-33b |
यमाह कृष्णो दाशार्हः सोऽस्तु सेनापतिर्मम । | 5-151-34a 5-151-34b |
एष नो विजये मूलमेष तात विपर्यये। | 5-151-35a 5-151-35b |
एष धाता विधाता च सिद्धिरत्र प्रतिष्ठिता। | 5-151-36a 5-151-36b |
ब्रवीतु वदतां श्रेष्ठो निशा समभिवर्तते। | 5-151-37a 5-151-37b |
रात्रेः शेषे व्यतिक्रान्ते प्रयास्यामो रणाजिरम् । | 5-151-38a 5-151-38b |
वैशंपायन उवाच। | 5-151-39x |
तस्य तद्वचनं श्रुत्वा धर्मराजस्य धीमतः। | 5-151-39a 5-151-39b |
ममाप्येते महाराज भवद्भिर्य उदाहृताः। | 5-151-40a 5-151-40b |
सर्व एव समर्था हि तव शत्रुं प्रबाधितुम्। | 5-151-41a 5-151-41b |
किं पुनर्धार्तराष्ट्राणां लुब्धानां पापचेतसाम्। | 5-151-42a 5-151-42b |
कृतो यत्नो महांस्तत्र शमः स्यादिति भारत । | 5-151-43a 5-151-43b |
कृतार्थं मन्यते बाल आत्मनमविचक्षणः । | 5-151-44a 5-151-44b |
युज्यतां वाहिनी साधु वधसाध्या हि मे मताः । | 5-151-45a 5-151-45b |
भीमसेनं च सङ्क्रुद्धं यमौ चापि यमोपमौ । | 5-151-46a 5-151-46b |
अभिमन्युं द्रौपदेयान्विराटद्रुपदावपि। | 5-151-47a 5-151-47b |
सारवद्बलमस्माकं दुष्प्रधर्षं दुरासदम्। | 5-151-48a 5-151-48b |
धृष्टद्युम्नमहं मन्ये सेनापतिमरिन्दम। | 5-151-49a |
वैशंपायन उवाच। | 5-151-49x |
एवमुक्ते तु कृष्णेन संप्राहृष्यन्नरोत्तमाः ।। | 5-151-49b |
तेषां प्रहृष्टमनसां नादः समभवन्महान्। | 5-151-50a 5-151-50b |
हयवारणशब्दाश्च नेमिघोषाश्च सर्वतः। | 5-151-51a 5-151-51b |
तद्रुग्रं सागरनिभं क्षुब्धं बलसमागमम्। | 5-151-52a 5-151-52b |
धावतामाहुयानानां तनुत्राणि च बध्नताम् । | 5-151-53a 5-151-53b |
गङ्गेव पूर्णा दुर्धर्षा समदृश्यत वाहिनी । | 5-151-54a 5-151-54b |
सौभद्रो द्रौपदेयाश्च धृष्टद्युम्नस्य पार्षतः । | 5-151-55a 5-151-55b |
ततः शब्दः समभवत्सुमुद्रस्येव पर्वणि । | 5-151-56a 5-151-56b |
| 5-151-57a 5-151-57b |
| 5-151-58a 5-151-58b |
फल्गु यच्चं बलं किंचिद्यच्चापि कृशदुर्बलम्। | 5-151-59a 5-151-59b |
उपप्लाव्ये तु पाञ्चाली द्रौपदी सत्यवादिनी । | 5-151-60a 5-151-60b |
कृत्वा मूलप्रतीकारं गुल्मैः स्थावरजङ्गमैः । | 5-151-61a 5-151-61b |
ददतो गां हिरण्यं च ब्राह्मणैरभिसंवृताः। | 5-151-62a 5-151-62b |
केकया धृष्टकेतुश्च पुत्रः काश्यस्य चाभिभूः । | 5-151-63a 5-151-63b |
हृष्टास्तुष्टाः कवचिनः सशस्त्राः समलङ्कृताः। | 5-151-64a 5-151-64b |
जघनार्धे विराटश्च याज्ञसेनिश्च सौमकिः । | 5-151-65a 5-151-65b |
रथायुतानि चत्वारि हयाः पञ्चगुणास्तथा । | 5-151-66a 5-151-66b |
अनाधृष्टिश्चेकितानो धृष्टकेतुश्च सात्यकिः । | 5-151-67a 5-151-67b |
आसाद्य तु कुरुक्षेत्रं व्यूढानीकाः प्रहारिणः । | 5-151-68a 5-151-68b |
तेऽवगाह्य कुरुक्षेत्रं शङ्खान्दध्मुररिन्दमाः। | 5-151-69a 5-151-69b |
पाञ्चजन्यस्य निर्घोषं विस्फूर्जितमिवाशनेः । | 5-151-70a 5-151-70b |
शङ्खदुन्दुभिसंहृष्टः सिंहनादस्तरस्विनाम् । | 5-151-71a 5-151-71b |
।। इति श्रीमन्महाभारते |
5-151-9 संयुक्तः संबन्धी।। 5-151-12 कुलेन वंशेन । अभिजनेन स्वजनसमूहेन ।। 5-151-17 अङ्गिरसो द्रोणस्य ।। 5-151-38 शस्त्राणामधिवासनं गन्धाद्यैः पूजनम् ।। 5-151-48 अस्माकं बलं कर्तृ ।। 5-151-50 योगो युद्धाय सज्जीभवनम् ।। 5-151-58 शकटा अनांसि। आपणो वणिग्वीथ्युपलक्षितं विक्रेयद्रव्यम् ।। 5-151-61 मूलप्रतीकारं धनदाररक्षाम् । गुल्मैः स्थावरैः प्रकाररूपैः। जंगमैः परितः स्थानेस्थाने शूरसंघैः। स्कन्धावारेण सैन्येन ।। 5-151-65 जघनार्धे पश्चिमार्धे ।। 5-151-70 समहृष्यन्त रोमाञ्चितानि ।।
उद्योगपर्व-150 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | उद्योगपर्व-152 |