महाभारतम्-05-उद्योगपर्व-015
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इन्द्रबोधितशचीवचनात् नहुषेण अगस्त्यादिसप्तर्षीणां स्वशिबिकायां वाहकतया योजनम् ।। 1 ।। शचीप्रार्थनया बृहस्पतिना होमेन संतोष्याग्नोरिन्द्रान्वेषणाय प्रेषणम् ।। 2 ।। अग्निना बृहस्पतिंप्रति जलवर्जं सर्वत्रान्वेषणेपीन्द्रानधिगमकथनम् ।। 3 ।।
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शल्य उवाच। | 5-15-1x |
एवमुक्तः स भगवाञ्शच्या तां पुनरब्रवीत्। | 5-15-1a 5-15-1b |
विवर्द्धितश्च ऋषिभिर्हव्यकव्यैश्च भामिनि । | 5-15-2a 5-15-2b |
गुह्यं चैतत्त्वया कार्यं नाख्यातव्यं शुभे क्वचित् । | 5-15-3a 5-15-3b |
ऋषियानेन दिव्येन मामुपैहि जगत्पते । | 5-15-4a 5-15-4b |
इत्युक्ता देवराजेन पत्नी सा कमलेक्षणा । | 5-15-5a 5-15-5b |
नहुषस्तां ततो दृष्ट्वा सस्मितो वाक्यमब्रवीत् । | 5-15-6a 5-15-6b |
भक्तं मां भज कल्याणि किमिच्छसि मनस्विनि । | 5-15-7a 5-15-7b |
न च व्रीडा त्वया कार्या सुश्रोणि मयि विश्वसेः। | 5-15-8a 5-15-8b |
इन्द्राण्युवाच। | 5-15-9x |
यो मे कृतस्त्वया कालस्तमाकाङ्क्षे जगत्पते। | 5-15-9a 5-15-9b |
कार्यं च हृदि मे यत्तद्देवराजावधारय। | 5-15-10a 5-15-10b |
वाक्यं प्रणयसंयुक्तं ततः स्यां वशगा तव। | 5-15-11a 5-15-11b |
इच्छाम्यहमथापूर्वं वाहनं ते सुराधिप । | 5-15-12a 5-15-12b |
वहन्तु त्वां महाभागा ऋषयः सङ्गता विभो। | 5-15-13a 5-15-13b |
नासुरेषु न देवेषु तुल्यो भवितुमर्हसि । | 5-15-14a 5-15-14b |
न ते प्रमुखतः स्थातुं कश्चिच्छक्नोति वीर्यवान् । | 5-15-15a |
शल्य उवाच। | 5-15-15x |
एवमुक्तस्तु नहुषः प्राहृष्यत तदा किल। | 5-15-15b 5-15-15c |
नहुष उवाच। | 5-15-16x |
अपूर्वं वाहनमिदं त्वयोक्तं वरवर्णिनि। | 5-15-16a 5-15-16b |
न ह्यल्पवीर्यो भवति यो वाहान्कुरुते मुनीन् । | 5-15-17a 5-15-17b |
मयि क्रुद्धे जगन्न स्यान्मयि सर्वं प्रतिष्ठितम्। | 5-15-18a 5-15-18b |
न मे क्रुद्धस्य पर्याप्ताः सर्वे लोकाः शुचिस्मिते। | 5-15-19a 5-15-19b |
` अहमिन्द्रोऽस्मि देवानां लोकानां च महेश्वरः। | 5-15-20a 5-15-20b 5-15-20c |
सप्तर्षयो मां वक्ष्यन्ति सर्वे ब्रह्मर्षयस्तथा । | 5-15-21a 5-15-21b |
शल्य उवाच। | 5-15-22x |
एवमुक्त्वा तु तां देवीं विसृज्य च वराननाम् । | 5-15-22a 5-15-22b |
विसृज्य सुप्रतीकं च नागमैरावतं तथा। | 5-15-23a 5-15-23b |
स तु दर्पेण महता परिभूय महामुनीन्।' | 5-15-24a 5-15-24b |
अब्रह्मण्यो बलोपेतो मत्तो मदबलेन च। | 5-15-25a 5-15-25b |
नहुषेण विसृष्टा च बृहस्पतिमथाब्रवीत्। | 5-15-26a 5-15-26b |
शक्रं मृगय शीघ्रं त्वं भक्तायाः कुरु मे दयाम्। | 5-15-27a 5-15-27b |
न भेतव्यं त्वया देवि नहुषाद्दुष्टचेतसः । | 5-15-28a 5-15-28b |
अधर्मज्ञो महर्षीणां वाहनाच्च हतः शुभे । | 5-15-29a 5-15-29b |
शक्रं चाधिगमिष्यामि माभैस्त्वं भद्रमस्तु ते। | 5-15-30a 5-15-30b |
बृहस्पतिर्महातेजा देवराजोपलब्धये। | 5-15-31a 5-15-31b |
तस्माच्च भगवान्देवः स्वयमेव हुताशनः । | 5-15-32a 5-15-32b |
स दिशः प्रदिशश्चैव पर्वतांश्च वनानि च। | 5-15-33a 5-15-33b 5-15-33c |
अग्निरुवाच। | 5-15-34x |
बृहस्पते न पश्यामि देवराजमिह क्वचित्। | 5-15-34a 5-15-34b |
न मे तत्र गतिर्ब्रह्मन्किमन्यत्करवाणि ते। | 5-15-35a 5-15-35b |
अग्निरुवाच। | 5-15-36x |
नापः प्रवेष्टुं शक्ष्यामि क्षयो मेऽत्र भविष्यति। | 5-15-36a 5-15-36b |
अद्भ्योऽग्निर्ब्रह्मतः क्षत्रमश्मनो लोहमुत्थितम् । | 5-15-37a 5-15-37b |
।। इति श्रीमन्महाभारते उद्योगपर्वणि |
5-15-21 मां वक्ष्यन्ति मम वहनं करिष्यन्ति ।। 21 ।।
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