महाभारतम्-01-आदिपर्व-002
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समन्तपञ्चकाख्यानं।। 1 ।। अक्षौहिण्यादिपरिमाण।। 2 ।। आदिपर्वादिसर्वपर्वणां संक्षेपेण वृत्तान्तकथनं।। 3 ।। नारतश्रवणफलकथनं।। 4 ।।
ऋषय ऊचुः। | 1-2-1x |
समन्तपञ्चकमिति यदुक्तं सूतनन्दन। एतत्सर्वं यथातत्त्वं श्रोतुमिच्छामहे वयम्।। | 1-2-1a 1-2-1b |
सौतिरुवाच। | 1-2-2x |
शृणुध्वं मम भो विप्रा ब्रुवतश्च कथाः शुभाः। समन्तपञ्चकाख्यं च श्रोतुमर्हथ सत्तमाः।। | 1-2-2a 1-2-2b |
त्रेताद्वापरयोः सन्धौ रामः शस्त्रभृतां वरः। असकृत्पार्थिवं क्षत्रं जघानामर्षचोदितः।। | 1-2-3a 1-2-3b |
स सर्वं क्षत्रमुत्साद्य स्ववीर्येणानलद्युतिः। समन्तपञ्चके पञ्च चकार रुधिरह्रदान्।। | 1-2-4a 1-2-4b |
स तेषु रुधिराम्भःसु ह्रदेषु क्रोधमूर्च्छितः। पितॄन्संतर्पयामास रुधिरेणेति नः श्रुतम्।। | 1-2-5a 1-2-5b |
अथर्चीकादयोऽभ्येत्य पितरो राममब्रुवन्। राम राम महाभाग प्रीताः स्म तव भार्गव।। | 1-2-6a 1-2-6b |
अनया पितृभक्त्या च विक्रमेण तव प्रभो। वरं वृणीष्व भद्रं ते यमिच्छसि महाद्युते।। | 1-2-7a 1-2-7b |
राम उवाच। | 1-2-8x |
यदि मे पितरः प्रीता यद्यनुग्राह्यता मयि। यच्च रोषाभिभूतेन क्षत्रमुत्सादितं मया।। | 1-2-8a 1-2-8b |
अतश्च पापान्मुच्येऽहमेष मे प्रार्थितो वरः। ह्रदाश्च तीर्थभूता मे भवेयुर्भुवि विश्रुताः।। | 1-2-9a 1-2-9b |
एवं भविष्यतीत्येवं पितरस्तमथाब्रुवन्। तं क्षमस्वेति निषिषिधुस्ततः स विरराम ह।। | 1-2-10a 1-2-10b |
तेषां समीपे यो देशो ह्रदानां रुधिराम्भसाम्। समन्तपञ्चकमिति पुण्यं तत्परिकीर्तितम्।। | 1-2-11a 1-2-11b |
येन लिङ्गेन यो देशो युक्तः समुपलक्ष्यते। तेनैव नाम्ना तं देशं वाच्यमाहुर्मनीषिणः।। | 1-2-12a 1-2-12b |
अन्तरे चैव संप्राप्ते कलिद्वापरयोरभूत्। समन्तपञ्चके युद्धं कुरुपाण्डवसेनयोः।। | 1-2-13a 1-2-13b |
तस्मिन्परमधर्मिष्ठे देशे भूदोषवर्जिते। अष्टादश समाजग्मुरक्षौहिण्यो युयुत्सया।। | 1-2-14a 1-2-14b |
समेत्य तं द्विजास्ताश्च तत्रैव निधं गताः। एतन्नामाभिनिर्वृत्तं तस्य देशस्य वै द्विजाः।। | 1-2-15a 1-2-15b |
पुण्यश्च रमणीयश्च स देशो वः प्रकीर्तितः। तदेतत्कथितं सर्वं मया ब्राह्मणसत्तमाः।। यथा देशः स विख्यातस्त्रिषु लोकेषु सुव्रताः।। | 1-2-16a 1-2-16b 1-2-16c |
ऋषय ऊचुः। | 1-2-17x |
अक्षौहिण्य इति प्रोक्तं यत्त्वया सूतनन्दन। एतदिच्छामहे श्रोतुं सर्वमेव यथातथम्।। | 1-2-17a 1-2-17b |
अक्षौहिण्याः परीमाणं नराश्वरथदन्तिनाम्। यथावच्चैव नो ब्रूहि सर्वं हि विदितं तव।। | 1-2-18a 1-2-18b |
सौतिरुवाच। | 1-2-19x |
एको रथो गजश्चैको नराः पञ्च पदातयः। त्रयश्च तुरगास्तज्ज्ञैः पत्तिरित्यभिधीयते।। | 1-2-19a 1-2-19b |
पत्तिं तु त्रिगुणामेतामाहुः सेनामुखं बुधाः। त्रीणि सेनामुखान्येको गुल्म इत्यभिधीयते।। | 1-2-20a 1-2-20b |
त्रयो गुल्मा गणो नाम वाहिनी तु गणास्त्रयः। स्मृतास्तिस्रस्तु वाहिन्यः पृतनेति विचक्षणैः।। | 1-2-21a 1-2-21b |
चमूस्तु पृतनास्तिस्रस्तिस्रश्चम्वस्त्वनीकिनी। अनीकिनीं दशगुणां प्राहुरक्षौहिणीं बुधाः।। | 1-2-22a 1-2-22b |
अक्षौहिण्याः प्रसंख्याता रथानां द्विजसत्तमाः। संख्यागणिततत्त्वज्ञैः सहस्राण्येकविंशतिः।। | 1-2-23a 1-2-23b |
शतान्युपरि चैवाष्टौ तथा भूयश्च सप्ततिः। गजानां च परीमाणमेतदेव विनिर्दिशेत्।। | 1-2-24a 1-2-24b |
ज्ञेयं शतसहस्रं तु सहस्राणि नवैव तु। नराणामपि पञ्चाशच्छतानि त्रीणि चानघाः।। | 1-2-25a 1-2-25b |
पञ्च षष्टिसहस्राणि तथाश्वानां शतानि च। दशोत्तराणि षट् प्राहुर्यथावदिह संख्यया।। | 1-2-26a 1-2-26b |
एतामक्षौहिणीं प्राहुः संख्यातत्त्वदितो जनाः। यां वः कथितवानस्मि विस्तरेण तपोधनाः।। | 1-2-27a 1-2-27b |
एतया संख्यया ह्यासन्कुरुपाण्डवसेनयोः। अक्षौहिण्यो द्विजश्रेष्ठाः पिण्डिताष्टादशैव तु।। | 1-2-28a 1-2-28b |
समेतास्तत्र वै देशे तत्रैव निधं गताः। कौरवान्कारणं कृत्वा कालेनाद्भुतकर्मणा।। | 1-2-29a 1-2-29b |
अहानि युयुधे भीष्मो दशैव परमास्त्रवित्। अहानि पञ्च द्रोणस्तु ररक्ष कुरुवाहिनीम्।। | 1-2-30a 1-2-30b |
अहनी युयुधे द्वे तु कर्णः परबलार्दनः। शल्योऽर्धदिवसं चैव गदायुद्धमतः परम्।। | 1-2-31a 1-2-31b |
तस्यैव दिवसस्यान्ते द्रौणिहार्दिक्यगौतमाः। प्रसुप्तं निशि विश्वस्तं जघ्नुर्यौधिष्ठिरं बलम्।। | 1-2-32a 1-2-32b |
यत्तु शौनक सत्रे ते भारताख्यानमुत्तमम्। जनमेजयस्य तत्सत्रे व्यासशिष्येण धीमता।। | 1-2-33a 1-2-33b |
कथितं विस्तरार्थं च यशो वीर्यं महीक्षिताम्। पौष्यं तत्र च पौलोममास्तीकं चादितः स्मृतम्।। | 1-2-34a 1-2-34b |
विचित्रार्थपदाख्यानमनेकसमयान्वितम्। प्रतिपन्नं नरैः प्राज्ञैर्वैराग्यमिव मोक्षिभिः।। | 1-2-35a 1-2-35b |
आत्मेव वेदितव्येषु प्रियेष्विव हि जीवितम्। इतिहासः प्रधानार्थः श्रेष्ठः सर्वागमेष्वयम्।। | 1-2-36a 1-2-36b |
अनाश्रित्येदमाख्यानं कथा भुवि न विद्यते। आहारमनपाश्रित्य शरीरस्येव धारणम्।। | 1-2-37a 1-2-37b |
तदेतद्भारतं नाम कविभिस्तूपजीव्यते। उदयतेप्सुभिर्भृत्यैरभिजात इवेश्वरः।। | 1-2-38a 1-2-38b |
इतिहासोत्तमे यस्मिन्नर्पिता बुद्धिरुत्तमा। स्वरव्यञ्जनयोः कृत्स्ना लोकवेदाश्रयेव वाक्।। | 1-2-39a 1-2-39b |
तस्य प्रज्ञाभिपन्नस्य विचित्रपदपर्वणः। सूक्ष्मार्थन्याययुक्तस्य वेदार्थैर्भूषितस्य च।। | 1-2-40a 1-2-40b |
भारतस्येतिहासस्य श्रूयतां पर्वसंग्रहः। पर्वानुक्रमणी पूर्वं द्वितीयः पर्वसंग्रहः।। | 1-2-41a 1-2-41b |
भारतस्येतिहासस्य श्रूयतां पर्वसंग्रहः। पर्वानुक्रमणी पूर्वं द्वितीयः पर्वसंग्रहः।। | 1-2-41a 1-2-41b |
पौष्यं पौलोममास्तीकमादिरंशावतारणम्। ततः संभवपर्वोक्तमद्भुतं रोमहर्षणम्।। | 1-2-42a 1-2-42b |
दाहो जतुगृहस्यात्र हैडिम्बं पर्व चोच्यते। ततो बकवधः पर्व पर्व चैत्ररथं ततः।। | 1-2-43a 1-2-43b |
ततः स्वयंवरो देव्याः पाञ्चाल्याः पर्व चोच्यते। क्षात्रधर्मेण निर्जित्य ततो वैवाहिकं स्मृतम्।। | 1-2-44a 1-2-44b |
विदुरागमनं पर्व राज्यलाभस्तथैव च। अर्जुनस्य वने वासः सुभद्राहरणं ततः।। | 1-2-45a 1-2-45b |
सुभद्राहरणादूर्ध्वं ज्ञेया हरणहारिका। ततः खाण्डवदाहाख्यं तत्रैव मयदर्शनम्।। | 1-2-46a 1-2-46b |
सभापर्व ततः प्रोक्तं मन्त्रपर्व ततः परम्। जरासन्धवधः पर्व पर्व दिग्विजयं तथा।। | 1-2-47a 1-2-47b |
पर्व दिग्विजयादूर्ध्वं राजसूयिकमुच्यते। ततश्चार्घाभिहरणं शिशुपालवधस्ततः।। | 1-2-48a 1-2-48b |
द्यूतपर्व ततः प्रोक्तमनुद्यूतमः परम्। तत आरण्यकं पर्व किर्मीरवध एवच।। | 1-2-49a 1-2-49b |
अर्जुनस्याभिगमनं पर्व ज्ञेयमतः परम्। ईश्वरार्जुनयोर्युद्धं पर्व कैरातसंज्ञितम्।। | 1-2-50a 1-2-50b |
इन्द्रलोकाभिगमनं पर्व ज्ञेयमतः परम्। नलोपाख्यानमपि च धार्मिकं करुणोदयम्।। | 1-2-51a 1-2-51b |
तीर्थयात्रा ततः पर्व कुरुराजस्य धीमतः। जटासुरवधः पर्व यक्षयुद्धमतः परम्।। | 1-2-52a 1-2-52b |
निवातकवचैर्युद्धं पर्व चाजगरं ततः। मार्कण्डेयसमास्या च पर्वानन्तरमुच्यते।। | 1-2-53a 1-2-53b |
संवादश्च ततः पर्व द्रौपदीसत्यभामयोः। घोषयात्रा ततः पर्व ततः प्रायोपवेशनेम्। मन्त्रस्य निश्चयं चैव मृगस्वप्नोद्भवं ततः।। | 1-2-54a 1-2-54b 1-2-54c |
व्रीहिद्रौणिकमाख्यानमैन्द्रद्युम्नं तथैव च। द्रौपदीहरणं पर्व जयद्रथविमोक्षणम्।। | 1-2-55a 1-2-55b |
रामोपाख्यानमत्रैव पर्व ज्ञेयमतः परम्। पतिव्रताया माहात्म्यं सावित्र्याश्चैवमद्भुतम्।। | 1-2-56a 1-2-56b |
कुण्डलाहरणं पर्व ततः परमिहोच्यते। आरणेयं ततः पर्व वैराटं तदनन्तरम्।। पाण्डवानां प्रवेशश्च समयस्य च पालनम्।। | 1-2-57a 1-2-57b 1-2-57c |
कीचकानां वधः पर्व पर्व ग्रोग्रहणं ततः। अभिमन्योश्च वैराट्याः पर्व वैवाहिकं स्मृतम्।। | 1-2-58a 1-2-58b |
उद्योगपर्व विज्ञेयमत ऊर्ध्वं महाद्भुतम्। ततः संजययानाख्यं पर्व ज्ञेयमतः परम्।। | 1-2-59a 1-2-59b |
प्रजागरं तथा पर्व धृतराष्ट्रस्य चिन्तया। पर्व सानत्सुजातं वै गुह्यमध्यात्मदर्शनम्।। | 1-2-60a 1-2-60b |
यानसन्धिस्ततः पर्व भगवद्यानमेव च। मातलीयमुपाख्यानं चरितं गालवस्य च।। | 1-2-61a 1-2-61b |
सावित्रं वामदेव्यं च वैन्योपाख्यानमेव च। जामदग्न्यमुपाख्यानं पर्व षोडशराजकम्।। | 1-2-62a 1-2-62b |
सभाप्रवेशः कृष्णस्य विदुलापुत्रशासनम्। उद्योगः सैन्यनिर्याणं विश्वोपाख्यानमेव च।। | 1-2-63a 1-2-63b |
ज्ञेयं विवादपर्वात्र कर्णस्यापि महात्मनः। `मन्त्रस्य निश्चयं कृत्वा कार्यस्य समनन्तरम्।। | 1-2-64a 1-2-64b |
श्वेतस्य वासुदेवेन चित्रं बहुकथाश्रयम्।' निर्याणं च ततः पर्व कुरुपाण्डवसेनयोः।। | 1-2-65a 1-2-65b |
रथातिरथसंख्या च पर्वोक्तं तदनन्तरम्। उलूकदूतागमनं पर्वामर्षविवर्धनम्।। | 1-2-66a 1-2-66b |
अम्बोपाख्यानमत्रैव पर्व ज्ञेयमतः परम्।। भीष्माभिषेचनं पर्व ततश्चाद्भुतमुच्यते।। | 1-2-67a 1-2-67b |
जम्बूखम्डविनिर्माणं पर्वोक्तं तदनन्तरम्।। भूमिपर्व ततः प्रोक्तं द्वीपविस्तारकीर्तनम्।। | 1-2-68a 1-2-68b |
`दिव्यं चक्षुर्ददौ यत्र संजयाय महामुनिः।' पर्वोक्तं भगवद्गीता पर्व भीष्मवधस्ततः। द्रोणाभिषेचनं पर्व संशप्तकवधस्ततः।। | 1-2-69a 1-2-69b 1-2-69c |
अभिमन्युवधः पर्व प्रतिज्ञा पर्व चोच्यते। जयद्रथवधः पर्व घटोत्कचवधस्ततः।। | 1-2-70a 1-2-70b |
ततो द्रोणवधः पर्व विज्ञेयं लोमहर्षणम्। मोक्षो नारायणास्त्रस्य पर्वानन्तरमुच्यते।। | 1-2-71a 1-2-71b |
कर्णपर्व ततो ज्ञेयं शल्यपर्व ततः परम्। ह्रदप्रवेशनं पर्व गदायुद्धमतः परम्।। | 1-2-72a 1-2-72b |
सारस्वतं ततः पर्व तीर्थवंशानुकीर्तनम्। अत ऊर्ध्वं सुबीभत्सं पर्व सौप्तिकमुच्यते।। | 1-2-73a 1-2-73b |
ऐषीकं पर्व चोद्दिष्टमत ऊर्ध्वं सुदारुणम्। जलप्रदानिकं पर्व स्त्रीविलापस्ततः परम्।। | 1-2-74a 1-2-74b |
श्राद्धपर्व ततो ज्ञेयं कुरूणामौर्ध्वदेहिकम्। चार्वाकनिग्रहः पर्व रक्षसो ब्रह्मरूपिणः।। | 1-2-75a 1-2-75b |
आभिषेचनिकं पर्व धर्मराजसर्य धीमतः। प्रविभागो गृहाणां च पर्वोक्तं तदनन्तरम्।। | 1-2-76a 1-2-76b |
शान्तिपर्व ततो यत्र राजधर्मानुशासनम्। आपद्धर्मश्च पर्वोक्तं मोक्षधर्मस्ततः परम्।। | 1-2-77a 1-2-77b |
शुकप्रश्नाभिगमनं ब्रह्मप्रश्नानुशासनम्। प्रादुर्भावश्च दुर्वासःसंवादश्चैव मायया।। | 1-2-78a 1-2-78b |
ततः पर्व परिज्ञेयमानुशासनिकं परम्। स्वर्गारोहणिकं चैव ततो भीष्मस्य धीमतः।। | 1-2-79a 1-2-79b |
पर्व चाश्रमवासाख्यं पुत्रदर्शनमेव च। नारदागमनं पर्व ततः परमिहोच्यते।। | 1-2-81a 1-2-81b |
मौसलं पर्व चोद्दिष्टं ततो घोरं सुदारुणम्। महाप्रस्थानिकं पर्व स्वर्गारोहणिकं ततः।। | 1-2-82a 1-2-82b |
हरिवंशस्ततः पर्व पुराणं खिलसंज्ञितम्। विष्णुपर्व शिशोश्चर्या विष्णोः कंसवधस्तथा।। | 1-2-83a 1-2-83b |
भविष्यं पर्व चाप्युक्तं खिलेष्वेवाद्भुतं महत्। एतत्पर्वशतं पूर्णं व्यासेनोक्तं महात्मना।। | 1-2-84a 1-2-84b |
यथावत्सूतपुत्रेण रौमहर्षणिना ततः। उक्तानि नैमिशारण्ये पर्वाण्यष्टादशैव तु।। | 1-2-85a 1-2-85b |
समासो भारतस्यायमत्रोक्तः पर्वसंग्रहः। पौष्यं पौलोममास्तीकमादिरंशावतारणम्।। | 1-2-86a 1-2-86b |
संभवो जतुवेश्माख्यं हिडिम्बबकयोर्वधः। तथा चैत्ररथं देव्याः पाञ्चाल्याश्च स्वयंवरः।। | 1-2-87a 1-2-87b |
क्षात्रधर्मेण निर्जित्य ततो वैवाहिकं स्मृतम्। विदुरागमनं चैव राज्यलाभस्तथैव च।। | 1-2-88a 1-2-88b |
वनवासोऽर्जुनस्यापि सुभद्राहरणं ततः। हरणाहरणं चैव दहनं खाण्डवस्य च।। | 1-2-89a 1-2-89b |
पौलोमे भृगुवंशस्य विस्तारः परिकीर्तितः। आस्तीके सर्वनागानां गरुडस्य च संभवः।। | 1-2-91a 1-2-91b |
क्षीरोदमथं चैव जन्मोच्चैःश्रवसस्तथा। यजतः सर्पसत्रेण राज्ञः पारिक्षितस्य च।। | 1-2-92a 1-2-92b |
कथेयमभिनिर्वृत्ता भारतानां महात्मनाम्। विविधाः संभवा राज्ञामुक्ताः संभवपर्वणि।। | 1-2-93a 1-2-93b |
अन्येषां चैव शूराणामृषेर्द्वैपायनस्य च। अंशावतरणं चात्र देवानां परिकीर्तितम्।। | 1-2-94a 1-2-94b |
दैत्यानां दानवानां च यक्षाणां च महौजसाम्। नागानामथ सर्पाणां गन्धर्वाणां पतत्त्रिणाम्।। | 1-2-95a 1-2-95b |
अन्येषां चैव भूतानां विविधानां समुद्भवः। महर्षेराश्रमपदे कण्वस्य च तपस्विनः।। | 1-2-96a 1-2-96b |
शकुन्तलायां दुष्यन्ताद्भरतश्चापि जज्ञिवान्। यस्य लोकेषु नाम्नेदं प्रथितं भारतं कुलम्।। | 1-2-97a 1-2-97b |
वसूनां पुनरुत्पत्तिर्भागीरथ्यां महात्मनाम्। शन्तनोर्वेश्मनि पुनस्तेषां चारोहणं दिवि।। | 1-2-98a 1-2-98b |
तेजोंशानां च संपातो भीष्मस्याप्यत्र संभवः। राज्यान्निवर्तनं तस्य ब्रह्मचर्यव्रते स्थितिः।। | 1-2-99a 1-2-99b |
प्रतिज्ञापालनं चैव रक्षा चित्राङ्गदस्य च। हते चित्राङ्गदे चैव रक्षा भ्रातुर्यवीयसः।। | 1-2-100a 1-2-100b |
विचित्रवीर्यस्य तथा राज्ये संप्रतिपादनम्। धर्मस्य नृषु संभूतिरणीमाण्डव्यशापजा।। | 1-2-101a 1-2-101b |
कृष्णद्वैपायनाच्चैव प्रसूतिर्वरदानजा। धृतराष्ट्रस्य पाण्डोश्च पाण्डवानां च संभवः।। | 1-2-102a 1-2-102b |
वारणावतयात्रा च मन्त्रो दुर्योधनस्य च। कूटस्य धार्तराष्ट्रेण प्रेषणं पाण्डवान्प्रति।। | 1-2-103a 1-2-103b |
हितोपदेशश्च पथि धर्मराजस्य धीमतः। विदुरेण कृतो यत्र हितार्थं म्लेच्छभाषया।। | 1-2-104a 1-2-104b |
विदुरस्य च वाक्येन सुरुङ्गोपक्रमक्रिया। निषाद्याः पञ्चपुत्रायाः सुप्ताया जतुवेश्मनि।। | 1-2-105a 1-2-105b |
पुरोचनस्य चात्रैव दहनं संप्रकीर्तितम्। पाण्डवानां वने घोरे हिडिम्बायाश्च दर्शनम्।। | 1-2-106a 1-2-106b |
तत्रैव च हिडिम्बस्य वधो भीमान्महाबलात्। घटोत्कचस्य चोत्पत्तिंरत्रैव परिकीर्तिता।। | 1-2-107a 1-2-107b |
महर्षेर्दर्शनं चैव व्यासस्यामिततेजसः। तदाज्ञयैकचक्रायां ब्राह्मणस्य निवेशने।। | 1-2-108a 1-2-108b |
अज्ञातचर्यया वासो यत्र तेषां प्रकीर्तितः। बकस्य निधनं चैव नागराणां च विस्मयः।। | 1-2-109a 1-2-109b |
संभवश्चैव कृष्णाया धृष्टद्युम्नस्य चैव ह। ब्राह्मणात्समुपश्रुत्य व्यासवाक्यप्रचोदिताः।। | 1-2-110a 1-2-110b |
द्रौपदीं प्रार्थयन्तस्ते स्वयंवरदिदृक्षया। पञ्चालानभितो जग्मुर्यत्र कौतूहलान्विताः।। | 1-2-111a 1-2-111b |
अङ्गारपर्णं निर्जित्य गङ्गाकूलेऽर्जुनस्तदा। सख्यं कृत्वा ततस्तेन तस्मादेव च शुश्रुवे।। | 1-2-112a 1-2-112b |
तापत्यमथ वासिष्ठमौर्वं चाख्यानमुत्तमम्। भ्रातृभिः सहितः सर्वैः पञ्चालानभितो ययौ।। | 1-2-113a 1-2-113b |
पाञ्चालनगरे चापि लक्ष्यं भित्त्वा धनञ्जयः। द्रौपदीं लब्धवानत्र मध्ये सर्वमहीक्षिताम्।। | 1-2-114a 1-2-114b |
भीमसेनार्जुनौ यत्र संरब्धान्पृथिवीपतीन्। शल्यकर्णौ च तरसा जितवन्तौ महामृधे।। | 1-2-115a 1-2-115b |
दृष्ट्वा तयोश्च तद्वीर्यमप्रमेयममानुषम्। शङ्कमानौ पाण्डवांस्तान् रामकृष्णौ महामती।। | 1-2-116a 1-2-116b |
जग्मतुस्तैः समागन्तुं शालां भार्गववेश्मनि। पञ्चानामेकपत्नीत्वे विमर्शो द्रुपदस्य च।। | 1-2-117a 1-2-117b |
पञ्चेन्द्राणामुपाख्यानमत्रैवाद्भुतमुच्यते। द्रौपद्या देवविहीतो विवाहश्चाप्यमानुषः।। | 1-2-118a 1-2-118b |
क्षत्तुश्च धार्तराष्ट्रेण प्रेषणं पाण्डवान्प्रति। विदुरस्य च संप्राप्तिर्दर्शनं केशवस्य च।। | 1-2-119a 1-2-119b |
खाण्डवप्रस्थवासश्च तथा राज्यार्धसर्जनम्। नारदस्याज्ञया चैव द्रौपद्याः समयक्रिया।। | 1-2-120a 1-2-120b |
सुन्दोपसुन्दयोस्तद्वदाख्यानं परिकीर्तितम्। अनन्तरं च द्रौपद्या सहासीनं युधिष्ठिरम्।। | 1-2-121a 1-2-121b |
अनु प्रविश्य विप्रार्थे फाल्गुनो गृह्य चायुधम्। मोक्षयित्वा गृहं गत्वा विप्रार्थं कृतनिश्चयः।। | 1-2-122a 1-2-122b |
समयं पालयन्वीरो वनं यत्र जगाम ह। पार्थस्य वनवासे च उलूप्या पथि सङ्गमः।। | 1-2-123a 1-2-123b |
पुण्यतीर्थानुसंयानं बभ्रुवाहनजन्म च। तत्रैव मोक्षयामास पञ्च सोऽप्सरसः शुभाः।। | 1-2-124a 1-2-124b |
शापाद्ग्राहत्वमापन्ना ब्राह्मणस्य तपस्विनः। प्रभासतीर्थे पार्थेन कृष्णस्य च समागमः।। | 1-2-125a 1-2-125b |
द्वारकायां सुभद्रा च कामयानेन कामिनी। वासुदेवस्यानुमते प्राप्ता चैव किरीटिना।। | 1-2-126a 1-2-126b |
गृहीत्वा हरणं प्राप्ते कृष्णे देवकिनन्दने। अभिमन्योः सुभद्रायां जन्म चोत्तमतेजसः।। | 1-2-127a 1-2-127b |
द्रौपद्यास्तनयानां च संभवोऽनुप्रकीर्तितः। विहारार्थं च गतयोः कृष्णयोर्यमुनामनु।। | 1-2-128a 1-2-128b |
संप्राप्तिश्चक्रधनुषोः खाण्डवस्य च दाहनम्। मयस्य मोक्षो ज्वलनाद्भुजङ्गस्य च मोक्षणम्।। | 1-2-129a 1-2-129b |
महर्षेर्मन्दपालस्य शार्ङ्ग्या तनयसंभवः। इत्येतदादिपर्वोक्तं प्रथमं बहु विस्तरम्।। | 1-2-130a 1-2-130b |
अध्यायानां शते द्वे तु संख्याते परमर्षिणा। सप्तविंशतिरध्याया व्यासेनोत्तमतेजसा।। | 1-2-131a 1-2-131b |
अष्टौ श्लोकसहस्राणि अष्टौ श्लोकशतानि च। श्लोकाश्च चतुराशीतिर्मुनिनोक्ता महात्मना।। | 1-2-132a 1-2-132b |
द्वितीयं तु सभापर्व बहुवृत्तान्तमुच्यते। सभाक्रिया पाण्डवानां किङ्कराणां च दर्शनम्। | 1-2-133a 1-2-133b |
लोकपालसभाख्यानं नारदाद्देवदर्शिनः। राजसूयस्य चारम्भो जरासन्धवधस्तथा।। | 1-2-134a 1-2-134b |
गिरिव्रजे निरुद्धानां राज्ञां कृष्णेन मोक्षणम्। तथा दिग्विजयोऽत्रैव पाम्डवानां प्रकीर्तितः।। | 1-2-135a 1-2-135b |
राज्ञामागमनं चैव सार्हणानां महक्रतौ। राजसूयेऽर्घसंवादे शिशुपालवधस्तथा।। | 1-2-136a 1-2-136b |
यज्ञे विभूतिं तां दृष्ट्वा दुःखामर्षान्वितस्य च। दुर्योधनस्यावहासो भीमेन च सभातले।। | 1-2-137a 1-2-137b |
यत्रास्य मन्युरुद्भूतो येन द्यूतमकारयत्। यत्र धर्मसुतं द्यूते शकुनिः कितवोऽजयत्।। | 1-2-138a 1-2-138b |
यत्र द्यूतार्णवे मग्नां द्रौपदीं नौरिवार्णवात्। धृतराष्ट्रो महाप्राज्ञः स्नुषां परमदुःखिताम्।। | 1-2-139a 1-2-139b |
तारयामास तांस्तीर्णाञ्ज्ञात्वा दुर्योधनो नृपः। पुनरेव ततो द्यूते समाह्वयत पाण्डवान्।। | 1-2-140a 1-2-140b |
जित्वा स वनवासाय प्रेषयामास तांस्ततः। एतत्सर्वं सभापर्व समाख्यातं महात्मना।। | 1-2-141a 1-2-141b |
अध्यायाः सप्ततिर्ज्ञेयास्तथा चाष्टौ प्रसंख्यया। श्लोकानां द्वे सहस्रे तु पञ्च श्लोकशतानि च।। | 1-2-142a 1-2-142b |
श्लोकाश्चैकादश ज्ञेयाः पर्वण्यस्मिन्द्विजोत्तमाः। अतः परं तृतीयं तु ज्ञेयमारण्यकं महत्।। | 1-2-143a 1-2-143b |
वनवासं प्रयातेषु पाण्डवेषु महात्मसु। पौरानुगमनं चैव धर्मपुत्रस्य धीमतः।। | 1-2-144a 1-2-144b |
अन्नौषधीनां च कृते पाण्डवेन महात्मना। द्विजानां भरणार्थं च कृतमाराधनं रवेः।। | 1-2-145a 1-2-145b |
धौम्योपदेशात्तिग्मांशुप्रसादादन्नसंभः। हितं च ब्रुवतः क्षत्तुः परित्यागोऽम्बिकासुतात्।। | 1-2-146a 1-2-146b |
त्यक्तस्य पाण्डुपुत्राणां समीपगमनं तथा। पुनरागमनं चैव धृतराष्ट्रस्य शासनात्।। | 1-2-147a 1-2-147b |
कर्णप्रोत्साहनाच्चैव धार्तराष्ट्रस्य दुर्मतेः। वनस्थान्पाण्डवान्हन्तुं मन्त्रो दुर्योधनस्यच।। | 1-2-148a 1-2-148b |
तं दुष्टभावं विज्ञाय व्यासस्यागमनं द्रुतम्। निर्याणप्रतिषेधश्च सुरभ्याख्यानमेव च।। | 1-2-149a 1-2-149b |
मैत्रेयागमनं चात्र राज्ञश्चैवानुशासनम्। शापोत्सर्गश्च तेनैव राज्ञो दुर्योधनस्य च।। | 1-2-150a 1-2-150b |
किर्मीरस्य वधश्चात्र भीमसेनेन संयुगे। वृष्णीनामागमश्चात्र पाञ्चालानां च सर्वशः।। | 1-2-151a 1-2-151b |
श्रुत्वा शकुनिना द्यूते निकृत्या निर्जितांश्च तान्। क्रुद्धस्यानुप्रशमनं हरेश्चैव किरीटिना।। | 1-2-152a 1-2-152b |
परिदेवनं च पाञ्चाल्या वासुदेवस्य सन्निधौ। आश्वासनं च कृष्णेन दुःखार्तायाः प्रकीर्तितम्।। | 1-2-153a 1-2-153b |
तथा सौभवधाख्यानमत्रैवोक्तं महर्षिणा। सुभद्रायाः सपुत्रायाः कृष्णेन द्वारकां पुरीम्।। | 1-2-154a 1-2-154b |
नयनं द्रौपदेयानां धृष्टद्युम्नेन चैव ह। प्रवेशः पाण्डवेयानां रम्ये द्वैतवने ततः।। | 1-2-155a 1-2-155b |
धर्मराजस्य चात्रैव संवादः कृष्णया सह। संवादश्च तथा राज्ञा भीमस्यापि प्रकीर्तितः।। | 1-2-156a 1-2-156b |
समीपं पाण्डुपुत्राणां व्यासस्यागमनं तथा। प्रतिश्रुत्याथ विद्याया दानं राज्ञो महर्षिणा।। | 1-2-157a 1-2-157b |
गमनं काम्यके चापि व्यासे प्रतिगते ततः। अस्त्रहेतोर्विवासश्च पार्थस्यामिततेजसः।। | 1-2-158a 1-2-158b |
महादेवेन युद्धं च किरातवपुषा सह। दर्शनं लोकपालानामस्त्रप्राप्तिस्तथैव च।। | 1-2-159a 1-2-159b |
महेन्द्रलोकगमनमस्त्रार्थे च किरीटिनः। यत्र चिन्ता समुत्पन्ना धृतराष्ट्रस्य भूयसी।। | 1-2-160a 1-2-160b |
दर्शनं बृहदश्वस्य महर्षेर्भावितात्मनः। युधिष्ठिरस्य चार्तस्य व्यसने परिदेवनम्।। | 1-2-161a 1-2-161b |
नलोपाख्यानमत्रैव धर्मिष्ठं करुणोदयम्। दमयन्त्याः स्थितिर्यत्र नलस्य चरितं तथा।। | 1-2-162a 1-2-162b |
तथाक्षहृदयप्राप्तिस्तस्मादेव महर्षितः। लोमशस्यागमस्तत्र स्वर्गात्पाण्डुसुतान्प्रति।। | 1-2-163a 1-2-163b |
वनवासगतानां च पाण्डवानां महात्मनाम्। स्वर्गे प्रवृत्तिराख्याता लोमशेनार्जुनस्य वै।। | 1-2-164a 1-2-164b |
संदेशादर्जुनस्यात्र तीर्थाभिगमनक्रिया। तीर्थानां च फलप्राप्तिः पुण्यत्वं चापि कीर्तितम्।। | 1-2-165a 1-2-165b |
पुलस्त्यतीर्थयात्रा च नारदेन महर्षिणा। तीर्थयात्रा च तत्रैव पाण्डवानां महात्मनां।। | 1-2-166a 1-2-166b |
तथा यज्ञविभूतिश्च गयस्यात्र प्रकीर्तिता।। | 1-2-167a |
आगस्त्यमपि चाख्यानं यत्र वातापिभक्षणम्। लोपामुद्राभिपमनमपत्यार्थमृषेस्तथा।। | 1-2-168a 1-2-168b |
ऋश्यशृङ्गस्य चरितं कौमारब्रह्मचारिणः। जामदग्न्यस्य रामस्य चरितं भूरितेजसः।। | 1-2-169a 1-2-169b |
कार्तवीर्यवधो यत्र हैहयानां च वर्ण्यते। प्रभासतीर्थे पाण्डूनां वृष्णिभिश्च समागमः।। | 1-2-170a 1-2-170b |
सौकन्यमपि चाख्यानं च्यवनो यत्र भार्गवः। शर्यातियज्ञे नासत्यौ कृतवान्सोमपीथिनौ।। | 1-2-171a 1-2-171b |
ताभ्यां च यत्र स मुनिर्यौवनं प्रतिपादितः। मान्धातुश्चाप्युपाख्यानं राज्ञोऽत्रैवप्रकीर्तितं।। | 1-2-172a 1-2-172b |
जन्तूपाख्यानमत्रैव यत्र पुत्रेण सोमकः। पुत्रार्थमयजद्राजा लेभे पुत्रशतं च सः।। | 1-2-173a 1-2-173b |
ततः श्येनकपोतीयमुपाख्यानमनुत्तमम्। इन्द्राग्नी यत्र धर्मश्चाप्यजिज्ञासञ्शिबिं नृपम्।। | 1-2-174a 1-2-174b |
अष्टावक्रीयमत्रैव विवादो यत्र बन्दिना। अष्टावक्रस्य विप्रर्षेर्जनकस्याध्वरेऽभवत्।। | 1-2-175a 1-2-175b |
नैयायिकानां मुख्येन वरुणस्यात्मजेन च। पराजितो यत्र बन्दी विवादेन महात्मना।। | 1-2-176a 1-2-176b |
विजित्य सागरं प्राप्तं पितरं लब्धवानृषिः। यवक्रीतस्य चाख्यानं रैभ्यस्य च महात्मनः। गन्धमादनयात्रा च वासो नारायणाश्रमे।। | 1-2-177a 1-2-177b 1-2-177c |
नियुक्तो भीमसेनश्च द्रौपद्या गन्धमादने। व्रजन्पथि महाबाहुर्दृष्टवान्पवनात्मजम्।। | 1-2-178a 1-2-178b |
कदलीषण्डमध्यस्थं हनूमन्तं महाबलम्। यत्र मन्दारपुष्पार्थे नलिनीं तामधर्षयत्।। | 1-2-179a 1-2-179b |
यत्रास्य युद्धमभवत्सुमहद्राक्षसैः सह। यक्षैश्चैव महावीर्यैर्मणिमत्प्रमुखैस्तथा।। | 1-2-180a 1-2-180b |
जटासुरस्य च वधो राक्षसस्य वृकोदरात्। वृषपर्वणो राजर्षेस्ततोऽभिगमनं स्मृतम्।। | 1-2-181a 1-2-181b |
आर्ष्टिषेणाश्रमे चैषां गमनं वास एव च। प्रोत्साहनं च पाञ्चाल्या भीमस्यात्र महात्मनः।। | 1-2-182a 1-2-182b |
कैलासारोहणं प्रोक्तं यत्र यक्षैर्बलोत्कटैः। युद्धमासीन्महाघोरं मणिमत्प्रमुखैः सह।। | 1-2-183a 1-2-183b |
समागमश्च पाण्डूनां यत्र वैश्रवणेन च। समागमश्चार्जुनस्य तत्रैव भ्रातृभिः सह।। | 1-2-184a 1-2-184b |
अवाप्य दिव्यान्यस्त्राणि गुर्वर्थं सव्यसाचिना। निवातकवचैर्युद्धं हिरण्यपुरवासिभिः।। | 1-2-185a 1-2-185b |
निवातकवचैर्घोरैर्दानवैः सुरशत्रुभिः। पौलोमैः कालकेयैश्च यत्र युद्धं किरीटिनः।। | 1-2-186a 1-2-186b |
वधश्चैषां समाख्यातो राज्ञस्तेनैव धीमता। अस्त्रसंदर्शनारम्भो धर्मराजस्य सन्निधौ।। | 1-2-187a 1-2-187b |
पार्थस्य प्रतिषेधश्छ नारदेन सुरर्षिणा। अवरोहणं पुनश्चैव पाण्डूनां गन्धमादनात्।। | 1-2-188a 1-2-188b |
भीमस्य ग्रहणं चात्र पर्वताभोगवर्ष्मणा। भुजगेन्द्रेण बलिना तस्मिन्सुगहने वने।। | 1-2-189a 1-2-189b |
अमोक्षयद्यत्र चैनं प्रश्नानुक्त्वा युधिष्ठिरः। काम्यकागमनं चैव पुनस्तेषां महात्मनाम्।। | 1-2-190a 1-2-190b |
तत्रस्थांश्च पुनर्द्रष्टुं पाण्डवान्परुषर्षभान्। वासुदेवस्यागमनमत्रैव परिकीर्तितम्।। | 1-2-191a 1-2-191b |
मार्कण्डेयसमास्यायामुपाख्यानानि सर्वशः। पृथोर्वैन्यस्य यत्रोक्तमाख्यानं परमर्षिणा।। | 1-2-192a 1-2-192b |
संवादश्च सरस्वत्यास्तार्क्ष्यर्षेः सुमहात्मनः। मत्स्योपाख्यानमत्रैव प्रोच्यते तदनन्तरम्।। | 1-2-193a 1-2-193b |
मार्कण्डेयसमास्या च पुराणं परिकीर्त्यते। ऐन्द्रद्युम्नामुपाख्यानं तथैवाङ्गिरसं स्मृतम्।। | 1-2-194a 1-2-194b |
पतिव्रतायाश्चाख्यानं तथैवाङ्गिरसं स्मृतम्। द्रौपद्याः कीर्तितश्चात्र संवादः सत्यभामया।। | 1-2-195a 1-2-195b |
पुनर्द्वैतवनं चैव पाण्डवाः समुपागताः। घोषयात्रा च गन्धर्वैर्यत्र बद्धः सुयोधनः।। | 1-2-196a 1-2-196b |
ह्रियमाणस्तु मन्दात्मा मोक्षितोऽसौ किरीटिना। धर्मराजस्य चात्रैव मृगस्वप्ननिदर्शनात्।। | 1-2-197a 1-2-197b |
काम्यके काननश्रेष्ठे पुनर्गमनमुच्यते। व्रीहिद्रौणिकमाख्यानमत्रैव बहुविस्तरम्।। | 1-2-198a 1-2-198b |
दुर्वाससोऽप्युपाख्यानमत्रैव परिकीर्तितम्। जयद्रथेनापहारो द्रौपद्याश्चाश्रमान्तरात्।। | 1-2-199a 1-2-199b |
यत्रैनमन्वयाद्भीमो वायुवेगसमो जवे। चक्रे चैनं पञ्चशिखं यत्र भीमो महाबलः।। | 1-2-200a 1-2-200b |
रामायणमुपाख्यानमत्रैव बहुविस्तरम्। यत्र रामेण विक्रम्य निहतो रावणो युधि।। | 1-2-201a 1-2-201b |
सावित्र्याश्चाप्युपाख्यानमत्रैव परिकीर्तितम्। कर्णस्य परिमोक्षोऽत्र कुण्डलाभ्यां पुरंदरात्।। | 1-2-202a 1-2-202b |
यत्रास्य शक्तिं तुष्टोऽसावदादेकवधाय च। आरणेयमुपाख्यानं यत्र धर्मोऽन्वशात्सुतम्।। | 1-2-203a 1-2-203b |
जग्मुर्लब्धवरा यत्र पाण्डवाः पश्चिमां दिशम्। एतदारण्यकं पर्व तृतीयं परिकीर्तितम्।। | 1-2-204a 1-2-204b |
अत्राध्यायशते द्वे तु संख्यया परिकीर्तिते। एकोनसप्ततिश्चैव तथाऽध्यायाः प्रकीर्तिताः।। | 1-2-205a 1-2-205b |
एकादश सहस्राणि श्लोकानां षट् शतानि च। चतुःषष्टिस्तथा श्लोकाः पर्वण्यस्मिन्प्रकीर्तिताः।। | 1-2-206a 1-2-206b |
अतः परं निबोधेदं वैराटं पर्व विस्तरम्। विराटनगरे गत्वा श्मशाने विपुलां शमीम्।। | 1-2-207a 1-2-207b |
दृष्ट्वा संनिदधुस्तत्र पाण्डवा ह्यायुधान्युत। यत्र प्रविश्य नगरं छद्मना न्यवसंस्तु ते।। | 1-2-208a 1-2-208b |
पाञ्चालीं प्रार्थयानस्य कामोपहतचेतसः। दुष्टात्मनो वधो यत्र कीचकस्य वृकोदरात्।। | 1-2-209a 1-2-209b |
पाण्डवान्वेषणार्थं च राज्ञो दुर्योधनस्य च। चाराः प्रस्थापिताश्चात्र निपुणाः सर्वतोदिशं।। | 1-2-210a 1-2-210b |
न च प्रवृत्तिस्तैर्लब्धा पाण्डवानां महात्मनाम्। गोग्रहश्च विराटस्य त्रिगर्तैः प्रथमं कृतः।। | 1-2-211a 1-2-211b |
यत्रास्य युद्धं सुमहत्तैरासील्लोमहर्षणम्। ह्रियमाणश्च यत्रासौ भीमसेनेन मोक्षितः।। | 1-2-212a 1-2-212b |
गोधनं च विराटस्य मोक्षितं यत्र पाण्डवैः। अनन्तरं च कुरुभिस्तस्य गोग्रहणं कृतम्।। | 1-2-213a 1-2-213b |
समस्ता यत्र पार्थेन निर्जिताः कुरवो युधि। प्रत्याहृतं गोधनं च विक्रमेण किरीटिना।। | 1-2-214a 1-2-214b |
विराटेनोत्तरा दत्ता स्नुषा यत्र किरीटिनः। अभिमन्युं समुद्दिश्य सौभद्रमरिघातिनम्।। | 1-2-215a 1-2-215b |
चतुर्थमेतद्विपुलं वैराटं पर्व वर्णितम्। अत्रापि परिसंख्याता अध्यायाः परमर्षिणा।। | 1-2-216a 1-2-216b |
सप्तषष्टिरथो पूर्णाः श्लोकानामपि मे शृणु। श्लोकानां द्वे सहस्रे तु श्लोकाः पञ्चाशदेव तु।। | 1-2-217a 1-2-217b |
उक्तानि वेदविदुषा पर्वण्यस्मिन्महर्षिणा। उद्योगपर्व विज्ञेयं पञ्चमं शृण्वतः परम्।। | 1-2-218a 1-2-218b |
उपप्लाव्ये निविष्टेषु पाण्डवेषु जिगीषया। दुर्योधनोऽर्जुनश्चैव वासुदेवमुपस्थितौ।। | 1-2-219a 1-2-219b |
साहाय्यमस्मिन्समरे भवान्नौ कर्तुमर्हति। इत्युक्ते वचने कृष्णो यत्रोवाच महामतिः।। | 1-2-220a 1-2-220b |
अयुध्यमानमात्मानं मन्त्रिणं पुरुषर्षभौ। अक्षौहिणीं वा सैन्यस्य कस्य किं वा ददाम्यहम्।। | 1-2-221a 1-2-221b |
वव्रे दुर्योधनः सैन्यं मन्दात्मा यत्र दुर्मतिः। अयुध्यभानं सचिवं वव्रे कृष्मं धनंजयः।। | 1-2-222a 1-2-222b |
मद्रराजं व राजानमायान्तं पाण्डवान्प्रति। उपहारैर्वञ्चायत्वा वर्त्मन्येव सुयोधनः।। | 1-2-223a 1-2-223b |
वरदं तं वरं वव्रे साहाय्यं क्रियतां मम। शल्यस्तस्मै प्रतिश्रुत्य जगामोद्दिश्य पाण्डवान्।। | 1-2-224a 1-2-224b |
शान्तिपूर्वं चाकथयद्यत्रेन्द्रविजयं नृपः। पुरोहितप्रेषणं च पाण्डवैः कौरवान्प्रति।। | 1-2-225a 1-2-225b |
वैचित्रवीर्यस्य वचः समादाय पुरोधसः। तथेन्द्रविजयं चापि यानं चैव पुरोधसः।। | 1-2-226a 1-2-226b |
संजयं प्रेषयामास शमार्थी पाण्डवान्प्रति। यत्र दूतं महाराजो धृतराष्ट्रः प्रतापवान्।। | 1-2-227a 1-2-227b |
श्रुत्वा च पाण्डवान्यत्र वासुदेवपुरोगमान्। प्रजागरः संप्रजज्ञे धृतराष्ट्रस्य चिन्तया।। | 1-2-228a 1-2-228b |
विदुरो यत्र वाक्यानि विचित्राणि हितानि च। श्रावयामास राजानं धृतराष्ट्रं मनीषिणम्।। | 1-2-229a 1-2-229b |
तथा सनत्सुजातेन यत्राध्यात्ममनुत्तमम्। मनस्तापान्वितो राजा श्रावितः शोकलालसः।। | 1-2-230a 1-2-230b |
प्रभाते राजसमितौ संजयो यत्र वा विभो। ऐकात्म्यं वासुदेवस्य प्रोक्तवानर्जुनस्य च।। | 1-2-231a 1-2-231b |
यत्र कृष्णो दयापन्नः सन्धिमिच्छन्महामतिः। स्वयमागाच्छणं कर्तुं नगरं नागसाह्वयम्।। | 1-2-232a 1-2-232b |
प्रत्याख्यानं च कृष्णस्य राज्ञा दुर्योधनेन वै। शमार्थे याचमानस्य पक्षयोरुभयोर्हितम्।। | 1-2-233a 1-2-233b |
दम्भोद्भवस्य चाख्यानमत्रैव परिकीर्तितम्। वरान्वेषणमत्रैव मातलेश्च महात्मनः।। | 1-2-234a 1-2-234b |
महर्षेश्चापि चरितं कथितं गालवस्य वै। विदुलायाश्च पुत्रस्य प्रोक्तं चाप्यनुशासनम्।। | 1-2-235a 1-2-235b |
कर्णदुर्योधनादीनां दुष्टं विज्ञाय मन्त्रितम्। योगेश्वरत्पं कृष्णेन यत्र राज्ञां प्रदर्शितम्।। | 1-2-236a 1-2-236b |
रथमारोप्य कृष्णेन यत्र कर्णोऽनुमन्त्रितः। उपायपूर्वं शौटीर्यात्प्रत्याख्यातश्च तेन सः।। | 1-2-237a 1-2-237b |
आगम्य हास्तिनपुरादुपप्लाव्यमरिंदमः। पाण्डवानां यथावृत्तं सर्वमाख्यातवान्हरिः।। | 1-2-238a 1-2-238b |
ते तस्य वचनं श्रुत्वा मन्त्रयित्वा च यद्धितम्। साङ्ग्रामिकं ततः सर्वं सञ्जं चक्रुः परंतपाः।। | 1-2-239a 1-2-239b |
ततो युद्धाय निर्याता नराश्वरथदन्तिनः। नगराद्धास्तिनपुराद्वलसंख्यानमेवच।। | 1-2-240a 1-2-240b |
यत्र राज्ञा ह्युलूकस्य प्रेषणं पाम्डवान्प्रति। श्वोभाविनि महायुद्धे दौत्येन कृतवान्प्रभुः।। | 1-2-241a 1-2-241b |
रथातिरथसंख्यानमम्बोपाख्यानमेव च। एतत्सुबहुवृत्तान्तं पञ्चमं पर्व भारते।। | 1-2-242a 1-2-242b |
उद्योगपर्व निर्दिष्टं सन्धिविग्रहमिश्रितम्। अध्यायानां शतं प्रोक्तं षडशीतिर्महर्षिणा।। | 1-2-243a 1-2-243b |
श्लोकानां षट् सहस्राणि तावन्त्येव शतानि च। श्लोकाश्च नवतिः प्रोक्तास्तथैवाष्टौ महात्मना।। | 1-2-244a 1-2-244b |
व्यासेनोदारमतिना पर्वण्यस्मिंस्तपोधनाः। अतः परं विचित्रार्थं भीष्मपर्व प्रचक्षते।। | 1-2-245a 1-2-245b |
जम्बूखण्डविनिर्माणं यत्रोक्तं संजयेन ह। यत्र यौधिष्ठिरं सैन्यं विषादमगमत्परम्।। | 1-2-246a 1-2-246b |
यत्र युद्धमभूद्धोरं दसाहानि सुदारुणम्। कश्मलं यत्र पार्थस्य वासुदेवो महामतिः।। | 1-2-247a 1-2-247b |
मोहजं नाशयामास हेतुभिर्मोक्षदर्शिभिः। समीक्ष्यादोक्षजः क्षिप्रं युधिष्ठिरहिते रतः।। | 1-2-248a 1-2-248b |
रथादाप्लुत्य वेगेन स्वयं कृष्ण उदारधीः। प्रतोदपाणिराधावद्भीष्मं हन्तुं व्यपेतभीः।। | 1-2-249a 1-2-249b |
वाक्यप्रतोदाभिहतो यत्र कृष्णेन पाण्डवः। गाण्डीवधन्वा समरे सर्वशस्त्रभृतां वरः।। | 1-2-250a 1-2-250b |
शिखण्डिनं पुरस्कृत्य यत्र पार्थो महाधनुः। विनिघ्नन्निशितैर्बाणै रथाद्भीष्ममपातयत्।। | 1-2-251a 1-2-251b |
शरतल्पगतश्चैव भीष्मो यत्र बभूव ह। षष्ठमेतत्समाख्यातं भारते पर्व विस्तृतम्।। | 1-2-252a 1-2-252b |
अध्यायानां शतं प्रोक्तं तथा सप्तदशापरे। पञ्च श्लोकसहस्राणि संख्ययाष्टौ शतानि च।। | 1-2-253a 1-2-253b |
श्लोकाश्च चतुराशीतिरस्मिन्पर्वणि कीर्तिताः। व्यासेन वेदविदुषा संख्याता भीष्मपर्वणि।। | 1-2-254a 1-2-254b |
द्रोणपर्व ततश्चित्रं बहुवृत्तान्तमुच्यते। सैनापत्येऽभिषिक्तोऽथ यत्राचार्यः प्रतापवान्।। | 1-2-255a 1-2-255b |
दुर्योधनस्य प्रीत्यर्थं प्रतिजज्ञे महास्त्रवित्। ग्रहणं धर्मराजस्य पाण्डुपुत्रस्य धीमतः।। | 1-2-256a 1-2-256b |
यत्र संशप्तकाः पार्थमपनिन्यू रणाजिरात्। भगदत्तो महाराजो यत्र शक्रसमो युधि।। | 1-2-257a 1-2-257b |
सुप्रतीकेन नागेन स हि शान्तः किरीटिना। यत्राभिमन्युं बहवो जघ्नुरेकं महारथाः।। | 1-2-258a 1-2-258b |
जयद्रथमुखा बालं शूरमप्राप्तयौवनम्। हतेऽभिमन्यौ क्रुद्धेन यत्र पार्थेन संयुगे।। | 1-2-259a 1-2-259b |
अक्षौहिणीः सप्त हत्वा हतो राजा जयद्रथः। यत्र भीमो महाबाहुः सात्यकिश्च महारथः।। | 1-2-260a 1-2-260b |
अन्वेषणार्थं पार्थस्य युधिष्ठिरनृपाज्ञया। प्रविष्टौ भारतीं सेनामप्रधृष्यां सुरैरपि।। | 1-2-261a 1-2-261b |
संशप्तकावशेषं च कृतं निःशेषमाहवे। संशप्तकानां वीराणां कोट्यो नव महात्मनाम्।। | 1-2-262a 1-2-262b |
किरीटिनाभिनिष्क्रम्य प्रापिता यमसादनम्। धृतराष्ट्रस्य पुत्राश्च तथा पाषाणयोधिनः।। | 1-2-263a 1-2-263b |
नारायणाश्च गोपालाः समरे चित्रयोधिनः। अलम्बुषः श्रुतायुश्च जलसन्धश्च वीर्यवान्।। | 1-2-264a 1-2-264b |
सौमदत्तिर्विराटश्च द्रुपदश्च महारथः। घटोत्कचादयश्चान्ये निहता द्रोणपर्वणि।। | 1-2-265a 1-2-265b |
अश्वत्थामापि चात्रैव द्रोणे युधि निपातिते। अस्त्रं प्रादुश्चकारोग्रं नारायणममर्षितः।। | 1-2-266a 1-2-266b |
आग्नेयं कीर्त्यते यत्र रुद्रमाहात्म्यमुत्तमम्। व्यासस्य चाप्यागमनं माहात्म्यं कृष्णपार्थयोः।। | 1-2-267a 1-2-267b |
सप्तमं भारते पर्व महदेतदुदाहृतम्। यत्र ते पृथिवीपालाः प्रायशो निधनं गताः।। | 1-2-268a 1-2-268b |
द्रोणपर्वणि ये शऊरा निर्दिष्टाः पुरुषर्षभाः। अत्राध्यायशतं प्रोक्तं तथाध्यायाश्च सप्ततिः।। | 1-2-269a 1-2-269b |
अष्टौ श्लोकसहस्राणि तथा नव शतानि च। श्लोका नव तथैवात्र संख्यातास्तत्त्वदर्शिना।। | 1-2-270a 1-2-270b |
पाराशर्येण मुनिनां संचिन्त्य द्रोणपर्वणि। अतः परं कर्णपर्व प्रोच्यते परमाद्भुतम्।। | 1-2-271a 1-2-271b |
सारथ्ये विनियोगश्च मद्रराजस्य धीमतः। आख्यातं यत्र पौरामं त्रिपुरस्य निपातनम्।। | 1-2-272a 1-2-272b |
प्रयाणे परुषश्चात्र संवादः कर्णशल्ययोः। हंसकाकीयमाख्यानं तत्रैवाक्षेपसंहितम्।। | 1-2-273a 1-2-273b |
वधः पाण्ड्यस्य च तथा अश्वत्थाम्ना महात्मना। दण्डसेनस्य च ततो दण्डस्य च वधस्तथा।। | 1-2-274a 1-2-274b |
द्वैरथे यत्र कर्णेन धर्मराजो युधिष्टिरः। संशयं गमितो युद्धे मिषतां सर्वधन्विनाम्।। | 1-2-275a 1-2-275b |
अन्योन्यं प्रति च क्रोधो युधिष्ठिरकिरीटिनोः। यत्रैवानुनयः प्रोक्तो माधवेनार्जुनस्य हि।। | 1-2-276a 1-2-276b |
प्रतिज्ञापूर्वकं चापि वक्षो दुःशासनस्य च। भित्त्वा वृकोदरो रक्तं पीतवान्यत्र संयुगे।। | 1-2-277a 1-2-277b |
द्वैरथे यत्र पार्थेन हतः कर्णो महारथः। अष्टमं पर्व निर्दिष्टमेतद्भारतचिन्तकैः।। | 1-2-278a 1-2-278b |
एकोनसप्ततिः प्रोक्ता अध्यायाः कर्णपर्वणि। चत्वार्येव सहस्राणि नव श्लोकशतानि च।। | 1-2-279a 1-2-279b |
चतुःषष्टिस्तथा श्लोकाः पर्वण्यस्मिन्प्रकीर्तिताः। अतः परं विचित्रार्थं शल्यपर्व प्रकीर्तितम्।। | 1-2-280a 1-2-280b |
हतप्रवीरे सैन्ये तु नेता मद्रेश्वरोऽभवत्। यत्र कौमारमाख्यानमभिषेकस्य कर्म च।। | 1-2-281a 1-2-281b |
वृत्तानि चाथ युद्धानि कीर्त्यन्ते यत्र भागशः। विनाशः कुरुमुख्यानां शल्यपर्वणि कीर्त्यते।। | 1-2-282a 1-2-282b |
शल्यस्य निधनं चात्र धर्मराजान्महात्मनः। शकुनेश्च वधोऽत्रैव सहदेवेन संयुगे।। | 1-2-283a 1-2-283b |
सैन्ये च हतभूयिष्ठे किंचिच्छिष्टे सुयोधनः। ह्रदं प्रविश्य यत्रासौ संस्तभ्यापोव्यवस्थितः।। | 1-2-284a 1-2-284b |
प्रवृत्तिस्तत्र चाख्याता यत्र भीमस्य लुब्धकैः। क्षेपयुक्तैर्वचोभिश्च धर्मराजस्य धीमतः।। | 1-2-285a 1-2-285b |
ह्रदात्समुत्थितो यत्र धार्तराष्ट्रोऽत्यमर्षणः। भीमेन गदया युद्धं यत्रासौ कृतवान्सह।। | 1-2-286a 1-2-286b |
समवाये च युद्धस्य रामस्यागमनं स्मृतम्। सरस्वत्याश्च तीर्थानां पुण्यता परिकीर्तिता।। | 1-2-287a 1-2-287b |
गदायुद्धं च तुमुलमत्रैव परिकीर्तितम्। दुर्योधनस्य राज्ञोऽथ यत्र भीमेन संयुगे।। | 1-2-288a 1-2-288b |
ऊरू भग्नौ प्रसह्याजौ गदया भीमवेगया। नवमं पर्व निर्दिष्टमेतदद्भुतमर्थवत्।। | 1-2-289a 1-2-289b |
एकोनपष्टिरध्यायाः पर्वण्यत्र प्रकीर्तिताः। संख्याता बहुवृत्तान्ताः श्लोकसंख्याऽत्र कथ्यते।। | 1-2-290a 1-2-290b |
त्रीणि श्लोकसहस्राणि द्वे शते विंशतिस्तथा। मुनिना संप्रणीतानि कौरवाणां यशोभृता।। | 1-2-291a 1-2-291b |
अतः परं प्रवक्ष्यामि सौप्तिकं पर्व दारुणम्। भग्नोरुं यत्र राजानं दुर्योधनममर्षणम्।। | 1-2-292a 1-2-292b |
अपयातेषु पार्थेषु त्रयस्तेऽभ्याययू रथाः। कृतवर्मा कृपो द्रौणिः सायाह्ने रुधिरोक्षितम्।। | 1-2-293a 1-2-293b |
समेत्य ददृशुर्भूमौ पतितं रणमूर्धनि। प्रतिजज्ञे दृढक्रोधो द्रौणिर्यत्र महारथः।। | 1-2-294a 1-2-294b |
अहत्वा सर्वपाञ्चालान्धृष्टद्युम्नपुरोगमान्। पाण्डवांश्च सहामात्यान्न विमोक्ष्यामि दंशनं।। | 1-2-295a 1-2-295b |
यत्रैवमुक्त्वा राजानमपक्रम्य त्रयो रथाः। सूर्यास्तमनवेलायामासेदुस्ते महद्वनम्।। | 1-2-296a 1-2-296b |
न्यग्रोधस्याथ महतो यत्राधस्ताद्व्यवस्थिताः। ततः काकान्बहून्रात्रौ दृष्ट्वोलूकेन हिंसितान्।। | 1-2-297a 1-2-297b |
द्रौणिः क्रोधसमाविष्टः पितुर्वधमनुस्मरन्। पाञ्चालानां प्रसुप्तानां वधं प्रति मनो दधे।। | 1-2-298a 1-2-298b |
गत्वा च शिबिरद्वारि दुर्दर्शं तत्र राक्षसम्। घोररूपमपश्यत्स दिवामावृत्य धिष्ठिरम्।। | 1-2-299a 1-2-299b |
तेन व्याघातमस्त्राणां क्रियमाणमवेक्ष्य च। द्रौणिर्यत्र विरूपाक्षं रुद्रमाराध्य सत्वरः।। | 1-2-300a 1-2-300b |
प्रसुप्तान्निशि विश्वस्तान्धृष्टद्युम्नपुरोगमान्। पाञ्चालान्सपरीवारान्द्रौपदेयांश्च सर्वशः।। | 1-2-301a 1-2-301b |
कृतवर्मणा च सहितः कृपेण च निजघ्निवान्। यत्रामुच्यन्त ते पार्थाः पञ्च कृष्णबलाश्रयात्।। | 1-2-302a 1-2-302b |
सात्यकिश्च महेष्वासः शेषाश्च निधनं गताः। पाञ्चालानां प्रसुप्तानां यत्र द्रोणसुताद्वधः।। | 1-2-303a 1-2-303b |
धृष्टद्युम्नस्य सूतेन पाण्डवेषु निवेदितः। द्रौपदी पुत्रशोकार्ता पितृभ्रातृवधार्दिता।। | 1-2-304a 1-2-304b |
कृतानशनसंकल्पा यत्र भर्तृनुपाविशत्। द्रौपदीवचनाद्यत्र भीमो भीमपराक्रमः।। | 1-2-305a 1-2-305b |
प्रियं तस्याश्चिकीर्षन्वै गदामादाय वीर्यवान्। अन्वधावत्सुसंक्रुद्धो भारद्वाजं गुरोः सुतम्।। | 1-2-306a 1-2-306b |
भीमसेनभयाद्यत्र दैवेनाभिप्रचोदितः। अपाण्डवायेति रुषा द्रौणिरस्त्रमवासडदत्।। | 1-2-307a 1-2-307b |
मैवमित्यब्रवीत्कृष्णः शमयंस्तस्य तद्वचः। यत्रास्त्रमस्त्रेण च तच्छमयामास फाल्गुनः।। | 1-2-308a 1-2-308b |
द्रौणेश्च द्रोहबुद्धित्वं वीक्ष्य पापात्मनस्तदा। द्रौणिद्वैपायनादीनां शापाश्चान्योन्यकारिताः।। | 1-2-309a 1-2-309b |
मणिं तथा समादाय द्रोणपुत्रान्महारथात्। पाण्डवाः प्रददुर्हृष्टा द्रौपद्यै जितकाशिनः।। | 1-2-310a 1-2-310b |
एतद्वै दशमं पर्व सौप्तिकं समुदाहृतम्। अष्टादशास्मिन्नद्यायाः पर्वम्युक्ता महात्मना।। | 1-2-311a 1-2-311b |
श्लोकानां कथितान्यत्र शतान्यष्टौ प्रसंख्यया। श्लोकाश्च सप्ततिः प्रोक्ता मुनिना ब्रह्मवादिना।। | 1-2-312a 1-2-312b |
सौप्तिकैषीकसंबन्धे पर्वण्युत्तमतेजसी। अत ऊर्ध्वमिदं प्राहुः स्त्रीपर्व करुणोदयम्।। | 1-2-313a 1-2-313b |
पुत्रशोकाभिसंतप्तः प्रज्ञाचक्षुर्नराधिपः। कृष्णोपनीतां यत्रासावायसीं प्रतिमां दृढां।। | 1-2-314a 1-2-314b |
भीमसेनद्रोहबुद्धिर्धृतराष्ट्रो बभञ्जह। तथा शोकाभितप्तस्य धृतराष्ट्रस्य धीमतः।। | 1-2-315a 1-2-315b |
संसारदहनं बुद्ध्या हेतुभिर्मोक्षदर्शनैः। विदुरेण च यत्रास्य राज्ञ आश्वासनं कृतम्।। | 1-2-316a 1-2-316b |
धृतराष्ट्रस्य चात्रैव कौरवायोधनं तथा। सान्तःपुरस्य गमनं शोकार्तस्य प्रकीर्तितम्।। | 1-2-317a 1-2-317b |
विलापो वीरपत्नीनां यत्रातिकरुणः स्मृतः। क्रोधावेशः प्रमोहश्च गान्धारीधृतराष्ट्रयोः।। | 1-2-318a 1-2-318b |
यत्र तान्क्षत्रियाः शूरान्सङ्ग्रामेष्वनिवर्तिनः। पुत्रान्भ्रातृन्पितॄंश्चैव ददृशुर्निहतान्रणे।। | 1-2-319a 1-2-319b |
पुत्रपौत्रवधार्तायास्तथात्रैव प्रकीर्तिता। गान्धार्याश्चापि कृष्णेन क्रोधोपशमनक्रिया।। | 1-2-320a 1-2-320b |
यत्र राजा महाप्राज्ञः सर्वधर्मभृतां वरः। राज्ञांतानि शरीराणि दाहयामास शास्त्रतः।। | 1-2-321a 1-2-321b |
तोयकर्मणि चारब्धे राज्ञामुदकदानिके। गूढोत्पन्नस्य चाख्यानं कर्णस्य पृथयात्मनः।। | 1-2-322a 1-2-322b |
सुतस्यैतदिह प्रोक्तं व्यासेन परमर्षिणा। एतदेकादशं पर्व शोकवैक्लव्यकारणम्।। | 1-2-323a 1-2-323b |
प्रणीतं सज्जनमनोवैक्लव्याश्रुप्रवर्तकम्। सप्तविंशतिरध्यायाः पर्वण्यस्मिन्प्रकीर्तिताः।। | 1-2-324a 1-2-324b |
श्लोकसप्तशती चापि पञ्चसप्ततिसंयुता। संख्यया भारताख्यानमुक्तं व्यासेन धीमता।। | 1-2-325a 1-2-325b |
अतः परं शान्तिपर्व द्वादशं बुद्धिवर्धनम्। यत्र निर्वेदमापन्नो धर्मराजो युधिष्ठिरः।। | 1-2-326a 1-2-326b |
घातयित्वा पितॄन्भ्रातॄन्पुत्रान्संबन्धिमातुलान्। शान्तिपर्वणि धर्माश्च व्याख्याताःशारतल्पिकाः।। | 1-2-327a 1-2-327b |
राजभिर्वेदितव्यास्ते सम्यग्ज्ञानबुभुत्सुभिः। आपद्धर्माश्च तत्रैव कालहेतुप्रदर्शिनः।। | 1-2-328a 1-2-328b |
यान्बुद्ध्वा पुरुषः सम्यक्सर्वज्ञत्वमवाप्नुयात्। मोक्षधर्माश्च कथिता विचित्रा बहुविस्तराः।। | 1-2-329a 1-2-329b |
द्वादशं पर्व निर्दिष्टमेतत्प्राज्ञजनप्रियम्। अत्र पर्वणि विज्ञेयमध्यायानां शतत्रयम्।। | 1-2-330a |
विंशच्चैव तथाध्याया नव चैव तपोधाः। चतुर्दशसहस्राणि तथा सप्तशतानि च।। | 1-2-331a 1-2-331b |
सप्तश्लोकास्तथैवात्र पञ्चविंशतिसंख्यया। अत ऊर्ध्वं च विज्ञेयमनुशासनमुत्तमम्।। | 1-2-332a 1-2-332b |
यत्र प्रकृतिमापन्नः श्रुत्वा धर्मविनिश्चयम्। भीष्माद्भागीरथीपुत्रात्कुरुराजो युधिष्ठिरः।। | 1-2-333a 1-2-333b |
व्यवहारोऽत्र कार्त्स्न्येन धर्मार्थीयः प्रकीर्तितः। विविधानां च दानानां फलयोगाः प्रकीर्तिताः।। | 1-2-334a 1-2-334b |
तथा पात्रविशेषाश्च दानानां च परो विधिः। आचारविधियोगश्च सत्यस्य च परा गतिः।। | 1-2-335a 1-2-335b |
महाभाग्यं गवां चैव ब्राह्मणानां तथैव च। रहस्यं चैव धर्माणां देशकालोपसंहितम्।। | 1-2-336a 1-2-336b |
एतत्सुबहुवृत्तान्तमुत्तमं चानुशासनम्। भीष्मस्यात्रैव संप्राप्तिः स्वर्गस्य परिकीर्तिता।। | 1-2-337a 1-2-337b |
एतत्त्रयोदशं पर्व धर्मनिश्चयकारकम्। अध्यायानां शतं त्वत्र षट्चत्वारिंशदेव तु।। | 1-2-338a 1-2-338b |
श्लोकानां तु सहस्राणि प्रोक्तान्यष्टौ प्रसंख्यया। ततोऽश्वमेधिकं नाम पर्व प्रोक्तं चतुर्दशम्।। | 1-2-339a 1-2-339b |
तत्संवर्तमरुत्तीयं यत्राख्यानमनुत्तमम्। सुवर्णकोशसंप्राप्तिर्जन्म चोक्तं परीक्षितः।। | 1-2-340a 1-2-340b |
दग्धस्यास्त्राग्निना पूर्वं कृष्णात्संजीवनं पुनः। चर्यायां हयमुत्सृष्टं पाण्डवस्यानुगच्छतः।। | 1-2-341a 1-2-341b |
तत्र तत्र च युद्धानि राजपुत्रैरमर्षणैः। चित्राङ्गदायाः पुत्रेण स्वपुत्रेण धनंजयः।। | 1-2-342a 1-2-342b |
सङ्ग्रामे बभ्रुवाहेन संशयं चात्र जग्मिवान्। सुदर्शनं तथाऽऽख्यानं वैष्णवं धर्ममेव च। अश्वमेधे महायज्ञे नकुलाख्यानमेव च।। | 1-2-343a 1-2-343b 1-2-343c |
इत्याश्वमेधिकं पर्व प्रोक्तमेतन्महाद्भुतम्। अध्यायानां शतं चैव त्रयोऽध्यायाश्च कीर्तिताः।। | 1-2-344a 1-2-344b |
त्रीणि श्लोकसहस्राणि तावन्त्येव शतानि च। विंशतिश्च तथा श्लोकाः संख्यातास्तत्त्वदर्शिना।। | 1-2-345a 1-2-345b |
ततस्त्वाश्रमवासाख्यं पर्व पञ्चदशं स्मृतम्। यत्र राज्यं समुत्सृज्य गान्धार्या सहितो नृपः।। | 1-2-346a 1-2-346b |
धृतराष्ट्रोश्रमपदं विदुरश्च जगाम ह। यं दृष्ट्वा प्रस्थितं साध्वी पृथाप्यनुययौ तदा।। | 1-2-347a 1-2-347b |
पुत्रराज्यं परित्यज्य गुरुशुश्रूषणे रता। यत्र राजा हतान्पुत्रान्पौत्रानन्यांश्च पार्थिवान्।। | 1-2-348a 1-2-348b |
लाकान्तरगतान्वीरानपश्यत्पुनरागतान्। ऋषेः प्रसादात्कृष्णस्य दृष्ट्वाश्चर्यमनुत्तमम्।। | 1-2-349a 1-2-349b |
त्यक्त्वा शोकं सदारश्च सिद्धिं परमिकां गतः। यत्र धर्मं समाश्रित्य विदुरः सुगतिं गतः।। | 1-2-350a 1-2-350b |
संजयश्च सहामात्यो विद्वान्गावल्गणिर्वशी। ददर्श नारदं यत्र धर्मराजो युधिष्ठिरः।। | 1-2-351a 1-2-351b |
नारदाच्चैव शुश्राव वृष्णीनां कदनं महत्। एतदाश्रमवासाख्यं पर्वोक्तं महदद्भुतम्।। | 1-2-352a 1-2-352b |
द्विचत्वारिंशदध्यायाः पर्वैतदभिसङ्ख्यया। सहस्रमेकं श्लोकानां पञ्चश्लोकशतानि च।। | 1-2-353a 1-2-353b |
षडेव च तथा श्लोकाः संख्यातास्तत्त्वदर्शिना। अतः परं निबोधेदं मौसलं पर्व दारुणम्।। | 1-2-354a 1-2-354b |
यत्र ते पुरुषव्याघ्राः शस्त्रस्पर्शहता युधि। ब्रह्मदण्डविनिष्पिष्टाः समीपे लवणाम्भसः।। | 1-2-355a 1-2-355b |
आपाने पानकलिता दैवेनाभिप्रचोदिताः। एरकारूपिभिर्वज्रैर्निजघ्नुरितरेतरम्।। | 1-2-356a 1-2-356b |
यत्र सर्वक्षयं कृत्वा तावुभौ रामकेशवौ। नातिचक्रामतुः कालं प्राप्तं सर्वहरं महत्।। | 1-2-357a 1-2-357b |
यत्रार्जुनो द्वारवतीमेत्य वृष्णिविनाकृताम्। दृष्ट्वा विपादमगमत्परां चार्तिं नरर्षभः।। | 1-2-358a 1-2-358b |
स संस्कृत्य नरश्रेष्ठं मातुलं शौरिमात्मनः। ददर्श यदुवीराणामापाने वैशसं महत्।। | 1-2-359a 1-2-359b |
शरीरं वासुदेवस्य रामस्य च महात्मनः। संस्कारं लम्भयामास वृष्णीनां च प्रधानतः।। | 1-2-360a 1-2-360b |
सवृद्धबालमादाय द्वारवत्यास्ततो जनम्। ददर्शापदि कष्टायां गाण्डीवस्य पराभवम्।। | 1-2-361a 1-2-361b |
सर्वेषां चैव दिव्यानामस्त्राणामप्रसन्नताम्। नाशं वृष्णिकलत्राणां प्रभावानामनित्यताम्।। | 1-2-362a 1-2-362b |
दृष्ट्वा निर्वेदमापन्नो व्यासवाक्यप्रचोदितः। धर्मराजं समासाद्य संन्यासं समरोचयत्।। | 1-2-363a 1-2-363b |
इत्येतन्मौसलं पर्व षोडशं परिकीर्तितम्। अध्यायाष्टौ समाख्याताः श्लोकानां च शतत्रयम्।। | 1-2-364a 1-2-364b |
श्लोकानां विंशतिश्चव संख्याता तत्त्वदर्शिना। महाप्रस्थानिकं तस्मादूर्ध्वं सप्तदशं स्मृतम्।। | 1-2-365a 1-2-365b |
यत्र राज्यं परित्यज्य पाण्डवाः पुरुषर्षभाः। द्रौपद्या सहिता देव्या महाप्रस्थानमास्थिताः।। | 1-2-366a 1-2-366b |
यत्र तेऽग्निं ददृशिरे लौहित्यं प्राप्य सागरम्। यत्राग्निना चोदितश्च पार्थस्तस्मै महात्मने।। | 1-2-367a 1-2-367b |
ददौ संपूज्य तद्दिव्यं गाण्डीवं धनुरुत्तमम्। यत्र भ्रातृन्निपतितान्द्रौपदीं च युधिष्ठिरः।। | 1-2-368a 1-2-368b |
दृष्ट्वा हित्वा जगामैव सर्वाननवलोकयन्। एतत्सप्तदशं पर्व महाप्रस्थानिकं स्मृतम्।। | 1-2-369a 1-2-369b |
यत्राध्यायास्त्रयः प्रोक्ताः श्लोकानां च शतत्रयम्। विंशतिश्च तथा श्लोकाः संख्यातास्तत्त्वदर्शिना।। | 1-2-370a 1-2-370b |
स्वर्गपर्व ततो ज्ञेयं दिव्यं यत्तदमानुषम्। प्राप्तं दैवरथं स्वर्गान्नेष्टवान्यत्र धर्मराट्।। | 1-2-371a 1-2-371b |
आरोदुं सुमहाप्राज्ञ आनृशंस्याच्छुना विना। तामस्याविचलां ज्ञात्वा स्थितिं धर्मे महात्मनः।। | 1-2-372a 1-2-372b |
श्वरूपं यत्र तत्त्यक्त्वा धर्मेणासौ समन्वितः। स्वर्गं प्राप्तःसच तथा यातनाविपुला भृशम्।। | 1-2-373a 1-2-373b |
देवदूतेन नरकं यत्र व्याजेन दर्शितम्। शुश्राव यत्र धर्मात्मा भ्रातॄणां करुणागिरः।। | 1-2-374a 1-2-374b |
निदेशे वर्तमानानां देशे तत्रैव वर्तताम्। अनुदर्शितश्च धर्मेण देवराज्ञा च पाण्डवः।। | 1-2-375a 1-2-375b |
आप्लुत्याकाशगङ्गायां देहं त्यक्त्वा स मानुषम्। स्वधर्मनिर्जितं स्थानं स्वर्गे प्राप्य स धर्मराट्।। | 1-2-376a 1-2-376b |
मुमुदे पूजितः सर्वैः सेन्द्रैः सुरगणैः सह। एतदष्टादशं पर्व प्रोक्तं व्यासेन धीमता।। | 1-2-377a 1-2-377b |
अध्यायाः पञ्च संख्याताः पर्वम्यस्मिन्महात्मना। श्लोकानां द्वे शते चैव प्रसंख्याते तपोधाः।। | 1-2-378a 1-2-378b |
नव श्लोकास्तथैवान्ये संख्याताः परमर्षिणा। अष्टादशैवमेतानि पर्वाण्येतान्यशेषतः।। | 1-2-379a 1-2-379b |
खिलेषु हरिवंशश्च भविष्यं च प्रकीर्तितम्। दश श्लोकसहस्राणि विंशच्छ्लोकशतानि च।। | 1-2-380a 1-2-380b |
खिलेषु हरिवंशे च संख्यातानि महर्षिणा। एतत्सर्वं समाख्यातं भारते पर्वसंग्रहः।। | 1-2-381a 1-2-381b |
अष्टादश समाजग्मुरक्षौहिण्यो ययुत्सया। तन्महादारुणं युद्धमहान्यष्टादशाभवत्।। | 1-2-382a 1-2-382b |
यो विद्याच्चतुरो वेदान्साङ्गोपनिषदो द्विजः। न चाख्यानमिदं विद्यान्नैव स स्याद्विचक्षणः।। | 1-2-383a 1-2-383b |
अर्थशास्त्रमिदं प्रोक्तं धर्मशास्त्रमिदं महत्। कामशास्त्रमिदं प्रोक्तं व्यासेनामितबुद्धिना।। | 1-2-384a 1-2-384b |
श्रुत्वा त्विदमुपाख्यानं श्राव्यमन्यन्न रोचते। पुंस्कोकिलगिरं श्रुत्वा रूक्षा ध्वाङ्क्षस्य वागिव।। | 1-2-385a 1-2-385b |
इतिहासोत्तमादस्माञ्जायन्ते कविबुद्धयः। पञ्चभ्य इव् भूतेभ्यो लोकसंविधयस्त्रयः।। | 1-2-386a 1-2-386b |
अस्याख्यानस्य विषये पुराणं वर्तते द्विजाः। अन्तरिक्षस्य विषये प्रजा इव चतुर्विधाः।। | 1-2-387a 1-2-387b |
क्रियागुणानां सर्वेषामिदमाख्यानमाश्रयः। इन्द्रियाणां समस्तानां चित्रा इव मनः क्रियाः।। | 1-2-388a 1-2-388b |
अनाश्रित्यैतदाख्यानं कथा भुवि न विद्यते। आहारमनपाश्रित्य शरीरस्येव धारणम्।। | 1-2-389a 1-2-389b |
इदं कविवरैः सर्वैराख्यानमुपजीव्यते। उदयप्रेप्सुभिर्भृत्यैरभिजात इवेश्वरः।। | 1-2-390a 1-2-390b |
अस्य काव्यस्य कवयो न समर्था विशेषणे। साधोरिव गृहस्थस्य शेषास्त्रय इवाश्रमाः।। | 1-2-391a 1-2-391b |
धर्मे मतिर्भवतु वः सततोत्थितानां स ह्येक एव परलोकगतस्य बन्धुः। अर्थाः स्त्रियश्च निपुणैरपि सेव्यमाना नैवाप्तभावमुपयान्ति न च स्थिरत्वम्।। | 1-2-392a 1-2-392b 1-2-392c 1-2-392d |
द्वैपायनौष्ठपुटनिःसृतमप्रमेयं पुण्यं पवित्रमथ पापहरं शिवं च। यो भारतं समधिगच्छति वाच्यमानं किं तस्य पुष्करजलैरभिषेचनेन।। | 1-2-393a 1-2-393b 1-2-393c 1-2-393d |
यदह्ना कुरुते पाप ब्राह्मणस्त्विन्द्रियैश्चरन्। महाभारतमाख्याय सन्ध्यां मुच्यति पश्चिमाम्।। | 1-2-394a 1-2-394b |
यद्रात्रौ कुरुते पापं कर्मणा मनसा गिरा। महाभारतमाख्याय पूर्वां सन्ध्यां प्रमुच्यते।। | 1-2-395a 1-2-395b |
यो गोशतं कनकशृङ्गमयं ददाति विप्राय वेदविदुषे च बहुश्रुताय। पुण्यां च भारतकथां शृणुयाच्च नित्यं तुल्यं फलं भवति तस्य च तस्य चैव।। | 1-2-396a 1-2-396b 1-2-396c 1-2-396d |
आख्यानं तदिदमनुत्तमं महार्थं विज्ञेयं महदिह पर्वसंग्रहेण। श्रुत्वादौ भवति नृणां सुखावगाहं विस्तीर्णं लवणजलं यथा प्लवेन।। | 1-2-397a 1-2-397b 1-2-397c 1-2-397d |
इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि पर्वसंग्रहपर्वणि द्वितीयोऽध्यायः | ।। 2 ।। |
।। समाप्तं पर्वसंग्रहपर्व ।। |
1-2-3 क्षत्र क्षत्रियजातिं। अमर्षः स्वपितुः क्षत्रियेण हतत्वाज्जातस्य क्रोधस्यासहनं तेन चोदितः प्रेरितः।। 1-2-10 निषिषिधुः निषिद्धवन्तः। अक्षराधिक्यमार्ष।। 1-2-14 भूदोषाः निम्नोन्नतत्वकण्टकित्वादयः।। 1-2-19 पदातय इति रथादिगतानां नराण व्युदासः।। 1-2-23-26 अक्षौहिण्याः 21870 रथाः। 21871 गजाः। 109350 पदातयः। 65610 हयाः।। 1-2-28 पिण्डिता एकीभूताः।। 1-2-32 हार्दिक्यः कृतवर्मा गौतमः कृपः।। 1-2-33 ते तव सत्रे यद्भारताख्यानं मत्तः प्रवृत्तं तज्जनमेजयस्य सत्रे व्यासशिष्येण कथितमित्युत्तरेण संबन्धः।। 1-2-34 तत्र भारते।। 1-2-35 प्रतिपन्नं शरणीकृतं।। 1-2-38 अभिजातः कुलीनः।। 1-2-46 हरणं दायः पारिबर्हमिति यावत् तस्य हारिका समानयनं।। 1-2-49 अनुद्यूतं पुनर्द्यूतं।। 1-2-50 अभिगमनं तपसे गमनं।। 1-2-53 समास्या सहावस्थानं।। 1-2-57 प्रवेशः विराटनगरे। समयस्य संकेतस्य नियमस्य वा।। 1-2-70 प्रतिज्ञा जयद्रथवधार्थं।। 1-2-72 ह्रदप्रवेशनं दुर्योधनस्य।। 1-2-83 अन्यत्र कथितस्यावशिष्टं यत्पुनः प्रक्रम्य कथ्यते तत् खिलं प्रोच्यते। हरिवंशश्च तादृशः।। 1-2-90 माहात्म्यमुत्तङ्कस्य उदङ्कस्येत्यपि पाठः।। 1-2-117 भार्गवः कुलालः।। 1-2-138 कितवो द्यूतकारकः।। 1-2-150 शत्रुस्तव ऊरू भेत्स्यतीतिशापोत्सर्गः।। 1-2-220 नौ आवयोर्मध्ये ममैव साहाय्यं कर्तुमर्हतीति प्रत्येकं प्रार्थना ज्ञेया।। 1-2-231 ऐकात्म्यं एकचित्तत्वं।। 1-2-237 शौटीर्यात् गर्वात्।। 1-2-255 आचार्यः द्रोणाचार्यः।। 1-2-287 समवाये समये।। 1-2-316 संसारदहनं निरूप्येतिशेषः।। 1-2-317 आयोधनं युद्धस्थानं।। 1-2-319 क्षत्रियाः क्षत्रियस्त्रियः।। 1-2-327 शराएव तल्पो यस्य सः शरतल्पो भीष्मः तेन प्रोक्ताः। शरतल्पे भवा वा तत्रस्थेन व्याख्यातत्वात्।। 1-2-343 सुदर्शनं तथाख्यानमित्यत्र मृगदर्श तथाचैवेति-मणिदर्शनं तथाचैवेत्यपि पाठो दृश्यते।। 1-2-347 धृतराष्ट्रः आश्रमपदमिति च्छेदः सन्धिरार्षः।। 1-2-355 ब्रह्मदण्डः ब्राह्मणशापः।। 1-2-356 आपाने पानगोष्ठ्यां पानेन कलिताः विवशीकृताः। एरकाः तृणविशेषाः।। 1-2-357 नातिचक्रामतुः कालं समर्थावपि मर्यादां नोल्लङ्घितवन्तावित्यर्थः।। 1-2-359 वैशसं परस्परं विशसनं।। 1-2-372 अस्य अविचलामितिच्छेदः।। 1-2-387 विषये देशे अन्तरित्यर्थः। पुराणं अष्टादशभेदं पाद्मादि।। 1-2-394 संध्यां संध्यायां।। द्वितीयोऽध्यायः।। 2 ।।
आदिपर्व-001 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | आदिपर्व-003 |