महाभारतम्-01-आदिपर्व-125
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ब्रह्मलोकं जिगमिषोः पाण्डोः तव पुत्रा भविष्यन्तीत्युक्त्वा ऋषिभिः प्रतिनिवर्तनम्।। 1 ।।
वैशंपायन उवाच। | 1-125-1x |
तत्रापि तपसि श्रेष्ठे वर्तमानः स वीर्यवान्। सिद्धचारणसङ्घानां बभूव प्रियदर्शनः।। | 1-125-1a 1-125-1b |
सुश्रूषुरनहंवादी संयतात्मा जितेन्द्रियः। स्वर्गं गन्तुं पराक्रान्तः स्वेन वीर्येण भारत।। | 1-125-2a 1-125-2b |
केषांचिदभवद्भ्राता केषांचिदभवत्सखा। ऋषयस्त्वपरे चैनं पुत्रवत्पर्यपालयन्।। | 1-125-3a 1-125-3b |
स तु कालेन महता प्राप्य निष्कल्मषं तपः। ब्रह्मर्षिसदृशः पाण्डुर्बभूव भरतर्षभ।। | 1-125-4a 1-125-4b |
अमावास्यां तु सहिता ऋषयः संशितव्रताः। ब्रह्माणं द्रष्टुकामास्ते संप्रतस्थुर्महर्षयः।। | 1-125-5a 1-125-5b |
संप्रयातानृषीन्दृष्ट्वा पाण्डुर्वचनमब्रवीत्। भवन्तः क्व गमिष्यन्ति ब्रूत मे वदतां वराः।। | 1-125-6a 1-125-6b |
ऋषय ऊचुः। | 1-125-7x |
समावायो महानद्य ब्रह्मलोके महात्मनाम्। देवानां च ऋषीणां च पितॄणां च महात्मनाम्। वयं तत्र गमिष्यामो द्रष्टुकामाः स्वयंभुवम्।। | 1-125-7a 1-125-7b 1-125-7c |
वैशंपायन उवाच। | 1-125-8x |
पाण्डुरुत्थाय सहसा गन्तुकामो महर्षिभिः। स्वर्गपारं तितीर्षुः स शतशृङ्गादुदङ्मुखः।। | 1-125-8a 1-125-8b |
प्रतस्थे सह पत्नीभ्यामब्रुवंस्तं च तापसाः। उपर्युपरि गच्छन्तः शैलराजमुदङ्मुखाः।। | 1-125-9a 1-125-9b |
दृष्टवन्तो गिरौ रम्ये दुर्गान्देशान्बहून्वयम्। विमानशतसंबाधां गीतस्वरनिनादिताम्।। | 1-125-10a 1-125-10b |
आक्रीडभूमिं देवानां गन्धर्वाप्सरसां तथा। उद्यानानि कुबेरस्य समानि विषमाणि च।। | 1-125-11a 1-125-11b |
महानदीनितम्बांश्च गहनान्गिरिगह्वरान्। सन्ति नित्यहिमा देशा निर्वृक्षमृगपक्षिणः।। | 1-125-12a 1-125-12b |
सन्ति क्वचिन्महादर्यो दुर्गाः काश्चिद्दुरासदाः। नातिक्रामेत पक्षी यान्कुत एवेतरे मृगाः।। | 1-125-13a 1-125-13b |
वायुरेको हि यात्यत्र सिद्धाश्च परमर्षयः। गच्छन्त्यौ शैलराजेऽस्मिन्राजपुत्र्यौ कथं न्विमे।। | 1-125-14a 1-125-14b |
न सीदेतामदुःखार्हे मा गमो भरतर्षभ। | 1-125-15a |
पाण्डुरुवाच। | 1-125-15x |
अप्रजस्य महाभागा न द्वारं परिचक्षते।। | 1-125-15b |
स्वर्गे तेनाभितप्तोऽहमप्रजस्तु ब्रवीमि वः। सोऽहमुग्रेण तपसा सभार्यस्त्यक्तजीवितः।। | 1-125-16a 1-125-16b |
अनपत्योऽपि विन्देयं स्वर्गमुग्रेण कर्मणा। | 1-125-17a |
ऋषय ऊचुः। | 1-125-17x |
अस्ति वै तव धर्मात्मन्विद्म देवोपम शुभम्।। | 1-125-17b |
अपत्यमनघं राजन्वयं दिव्येन चक्षुषा। दैवोद्दिष्टं नरव्याघ्र कर्मणेहोपपादय।। | 1-125-18a 1-125-18b |
अक्लिष्टं फलमव्यग्रो विन्दते बुद्धिमान्नरः। तस्मिन्दृष्टे फले राजन्प्रयत्नं कर्तुमर्हसि।। | 1-125-19a 1-125-19b |
अपत्यं गुणसंपन्नं लब्धा प्रीतिकरं ह्यसि। | 1-125-20a |
वैशंपायन उवाच। | 1-125-20x |
तच्छ्रुत्वा तापसवचः पाण्डुस्चिन्तापरोऽभवत्।। | 1-125-20b |
आत्मनो मृगशापेन जानन्नुपहतां क्रियाम्।। | 1-125-21a |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि संभवपर्वणि संभवपर्वणि पञ्चविंशत्यधिकशततमोऽध्यायः।। 125 ।। |
1-125-5 अमावास्यां प्राप्य।। 1-125-10 विमानशतेन संबाधं संकटं यस्यां सा।। 1-125-19 अव्यग्रो विन्दतेऽतो व्यग्रो माभूरित्यर्थः।। 1-125-20 लभते इति लब्धा तादृशोऽसि लप्स्यसीत्यर्थः।। पञ्चविंशत्यधिकशततमोऽध्यायः।। 125 ।।
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