महाभारतम्-01-आदिपर्व-232
← आदिपर्व-231 | महाभारतम् प्रथमपर्व महाभारतम्-01-आदिपर्व-232 वेदव्यासः |
आदिपर्व-233 → |
सुन्दोपसुन्दलमीपे तिलोत्तमाया आगमनम्।। 1 ।।
तस्यां सकामयोस्तयोः परस्परं गदाप्रहारेण मरणम्।। 2 ।।
तिलोत्तमाया ब्रह्मणा वरदानम्।। 3 ।।
नारदोक्तामिमां कथां श्रुतवद्भिः पाण्डवैः तत्समक्षं द्रौपदीविषये समयकरणम्।। 4 ।।
नारद उवाच। | 1-232-1x |
जित्वा तु पृथिवीं दैत्यौ निःसपत्नौ गतव्यथौ। कृत्वा त्रैलोक्यमव्यग्रं कृतकृत्यौ बभूवतुः।। | 1-232-1a 1-232-1b |
देवगन्धर्वयक्षाणां नागपार्थिवरक्षसाम्। आदाय सर्वरत्नानि परां तुष्टिमुपागतौ।। | 1-232-2a 1-232-2b |
यदा न प्रतिषेद्धारस्तयोः सन्तीह केचन।। निरुद्योगौ तदा भूत्वा विजह्रातेऽमराविव।। | 1-232-3a 1-232-3b |
स्त्रीभिर्माल्यैश्च गन्धैश्च भक्ष्यभोज्यैः सुपुष्कलैः। पानैश्च विविधैर्हृद्यैः परां प्रीतिमवापतुः।। | 1-232-4a 1-232-4b |
अन्तःपुरवनोद्याने पर्वतेषु वनेषु च। यथेप्सितेषु देशेषु विजह्रातेऽमराविव।। | 1-232-5a 1-232-5b |
ततः कदाचिद्विन्ध्यस्य प्रस्थे समशिलातले। पुष्पिताग्रेषु सालेषु विहारमभिजग्मतुः।। | 1-232-6a 1-232-6b |
दिव्येषु सर्वकामेषु समानीतेषु तावुभौ। वरासनेषु संहृष्टौ सह स्त्रीभिर्निषीदतुः।। | 1-232-7a 1-232-7b |
ततो वादित्रनृत्ताभ्यामुपातिष्ठन्त तौ स्त्रियः। गीतैश्च स्तुतिसंयुक्तैः प्रीत्या समुपजग्मिरे।। | 1-232-8a 1-232-8b |
ततस्तिलोत्तमा तत्र वने पुष्पाणि चिन्वती। वेषं सा क्षिप्तमाधाय रक्तेनैकेन वाससा।। | 1-232-9a 1-232-9b |
नदीतीरेषु जातान्सा कर्णिकारान्प्रचिन्वती। शनैर्जगाम तं देशं यत्रास्तां तौ महासुरौ।। | 1-232-10a 1-232-10b |
तौ तु पीत्वा वरं पानं मदरक्तान्तलोचनौ। दृष्ट्वैव तां वरारोहां व्यथितौ संबभूवतुः।। | 1-232-11a 1-232-11b |
तावुत्थायासनं हित्वा जग्मतुर्यत्र सा स्थिता। उभौ च कामसंमत्तावुभौ प्रार्थयतश्च ताम्।। | 1-232-12a 1-232-12b |
दक्षिणे तां करे सुभ्रूं सुन्दो जग्राह पाणिना। उपसुन्दोपि जग्राह वामे पाणौ तिलोत्तमाम्।। | 1-232-13a 1-232-13b |
वरप्रदानमत्तौ तावौरसेन बलेन च। धनरत्नमदाभ्यां च सुरापानमदेन च।। | 1-232-14a 1-232-14b |
सर्वैरेतैर्मदैर्मत्तावन्योन्यं भ्रुकुटीकृतौ। मदकामसमाविष्टौ परस्परमथोचतुः।। | 1-232-15a 1-232-15b |
मम भार्या तव गुरुरिति सुन्दोऽभ्यभाषत। मम भार्या तव वधूरुपसुन्दोऽभ्यभाषत।। | 1-232-16a 1-232-16b |
नैषा तव ममैषेति ततस्तौ मन्युराविशत्। तस्या रूपेण संमत्तौ विगतस्नेहसौहृदौ।। | 1-232-17a 1-232-17b |
तस्या हेतोर्गदे भीमे संगृह्णीतामुभौ तदा। प्रगृह्य च गदे भीमे तस्यां तौ काममोहितौ।। | 1-232-18a 1-232-18b |
अहंपूर्वमहंपूर्वमित्यन्योन्यं निजघ्नतुः। तौ गदाभिहतौ भीमौ पेततुर्धरणीतले।। | 1-232-19a 1-232-19b |
रुधिरेणावसिक्ताङ्गौ द्वाविवार्कौ नभश्च्युतौ। ततस्ता विद्रुता नार्यः स च दैत्यगणस्तथा।। | 1-232-20a 1-232-20b |
पातालमगमत्सर्वो विषादभयकम्पितः। ततः पितामहस्तत्र सहदेवैर्महर्षिभिः।। | 1-232-21a 1-232-21b |
आजगाम विशुद्धात्मा पूजयंश्च तिलोत्तमाम्। वरेण च्छन्दयामास भगवान्प्रपितामहः।। | 1-232-22a 1-232-22b |
वरं दित्सुः स तत्रैनां प्रीतः प्राह पितामहः। आदित्यचरिताँल्लोकान्विचरिष्यसि भामिनि।। | 1-232-23a 1-232-23b |
तेजसा च सुदृष्टां त्वां न करिष्यति कश्चन। एवं तस्यै वरं दत्वा सर्वलोकपितामहः।। | 1-232-24a 1-232-24b |
इन्द्रे त्रैलोक्यमाधाय ब्रह्मलोकं गतः प्रभुः। एवं तौ सहितौ भऊत्वा सर्वार्थेष्वेकनिश्चयौ।। | 1-232-25a 1-232-25b |
तिलोत्तमार्थं संक्रुद्धावन्योन्यमभिजघ्नतुः। तस्माद्ब्रवीमि वः स्नेहात्सर्वाभरतसत्तमाः।। | 1-232-26a 1-232-26b |
यथा वो नात्र भेदः स्यात्सर्वेषां द्रौपदीकृते। तथा कुरुत भद्रं वो मम चेत्प्रियमिच्छथ।। | 1-232-27a 1-232-27b |
वैशंपायन उवाच। | 1-232-28x |
एवमुक्ता महात्मानो नारदेन महर्षिणा। समयं चक्रिरे राजंस्तेऽन्योन्यवशमागताः। समक्षं तस्य देवर्षेर्नारदस्यामितौजसः।। | 1-232-28a 1-232-28b 1-232-28c |
`एकैकस्य गृहे कृष्णा वसेद्वर्षमकल्मषा' द्रौपद्या नः सहासीनानन्योन्यं योऽभिदर्शयेत्। स नो द्वादश मासानि ब्रह्मचारी वने वसेत्।। | 1-232-29a 1-232-29b 1-232-29c |
कृते तु समये तस्मिन्पाण्डवैर्धर्मचारिभिः। नारदोऽप्यगमत्प्रीत इष्टं देशं महामुनिः।। | 1-232-30a 1-232-30b |
एवं तैः समयः पूर्वं कृतो नारदचोदितैः। न चाभिद्यन्त ते सर्वे तदान्योन्येन भारत।। | 1-232-31a 1-232-31b |
`अभ्यनन्दन्त ते सर्वे तदान्योन्यं च पाण्डवाः। एतद्विस्तरशः सर्वमाख्यातं ते नराधिप।। | 1-232-32a 1-232-32b |
काले च तस्मिन्संपन्ने यथावज्जनमेजय।।' | 1-232-33a |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि विदुरागमनराज्यलाभपर्वणि द्वात्रिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 232 ।। | |
।। समाप्तं च विदुरागमनराज्यलाभपर्व ।। |
1-232-24 तेजसाऽर्कवत्परदृष्ट्यभिभावकत्वात्सुदृष्टां सम्यग्दृष्टां न करिष्यति कश्चित्।। द्वात्रिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 232 ।।
आदिपर्व-231 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | आदिपर्व-233 |