महाभारतम्-01-आदिपर्व-093
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1-93-1 सदागतिम् वायुम्।। 1-93-6 गृद्धां सक्ताम्। विवृतामनाच्छादिताम्।। 1-93-8 न्यमन्त्रयत एहीत्याकारितवान्। व्यहरतां विहारं चक्रतुः।। 1-93-20 उपस्प्रष्टुं आचमनादिकं कर्तुम्।। 1-93-25 शरीरकृन्निषेक्ता। प्राणदाताऽभयप्रदः।। त्रिनवतितमोऽध्यायः
कण्व उवाच। | 1-93-1x |
एवमुक्तस्तया शक्रः संदिदेश सदागतिम्। प्रातिष्ठत तदा काले मेनका वायुना सह।। | 1-93-1a 1-93-1b |
अथापश्यद्वरारोहा तपसा दग्धकिल्बिषम्। मिश्वामित्रं तप्यमानं मेनका भीरुराश्रमे।। | 1-93-2a 1-93-2b |
अभिवाद्य ततः सा तं प्राक्रीडदृषिसन्निधौ। अपोवाह च वासोऽस्या मारुतः शशिसंनिभम्।। | 1-93-3a 1-93-3b |
सागच्छत्त्वरिता भूमिं वासस्तदभिलिप्सती। कुत्सयन्तीव सव्रीडं मारुतं वरवर्णिनी।। | 1-93-4a 1-93-4b |
पश्यतस्तस्य राजर्षेरप्यग्निसमतेजसः। विश्वामित्रस्ततस्तां तु विषमस्थामनिन्दिताम्।। | 1-93-5a 1-93-5b |
गृद्धां वाससि संभ्रान्तां मेनकां मुनिसत्तमः। अनिर्देश्यवयोरूपामपश्यद्विवृतां तदा।। | 1-93-6a 1-93-6b |
तस्या रूपगुणान्दृष्ट्वा स तु विप्रर्षभस्तदा। चकार भावं संसर्गे तया कामवशं गतः।। | 1-93-7a 1-93-7b |
न्यमन्त्रयत चाप्येनां सा चाप्यैच्छदनिन्दिता। तौ तत्र सुचिरं कालमुभौ व्यवहरतां तदा।। | 1-93-8a 1-93-8b |
रममाणौ यथाकामं यतैकदिवसं तथा। `एवं वर्षसहस्राणामतीतं नान्वचिन्तयत्।। | 1-93-9a 1-93-9b |
कामक्रोधावजितवान्मुनिर्नित्यं समाहितः। चिरार्जितस्य तपसः क्षयं स कृतवान्मुनिः।। | 1-93-10a 1-93-10b |
तपसः संक्षयादेव मुनिर्मोहं समाविशत्। मोहाभिभूतः क्रोधात्मा ग्रसन्मूलफलान्मुनिः।। | 1-93-11a 1-93-11b |
पादैर्जलरवं कृत्वा अन्तर्द्वीपे कुटीं गतः। मेनका गन्तुकामा तु शुश्राव जलनिस्वनम्।। | 1-93-12a 1-93-12b |
तपसा दीप्तवीर्योऽसावाकाशादेति याति च। अद्य संज्ञां विजानामि ययाऽद्य तपसः क्षयः।। | 1-93-13a 1-93-13b |
गन्तुं न युक्तमित्युक्त्वा ऋतुस्नाताथ मेनका। कामरागाभिभूतस्य मुनेः पार्स्वं जगाम ह।।' | 1-93-14a 1-93-14b |
जनयामास स मुनिर्मेनकायां शकुन्तलाम्। प्रस्थे हिमवतो रम्ये मालिनीमभितो नदीम्।। | 1-93-15a 1-93-15b |
`देवगर्भोपमां बालां सर्वाभरणभूषिताम्। शयानां शयने रम्ये मेनका वाक्यमब्रवीत्।। | 1-93-16a 1-93-16b |
महर्षेरुग्रतपसस्तेजस्त्वमसि भामिनि। तस्मात्स्वर्गं गमिष्यामि देवकार्यार्थमागता।।' | 1-93-17a 1-93-17b |
जातमुत्सृज्य तं गर्भं मेनका मालिनीमनु। कृतकार्या ततस्तूर्णमगच्छच्छक्रसंसदम्।। | 1-93-18a 1-93-18b |
तं वने विजने गर्भं सिंहव्याघ्रसमाकुले। दृष्ट्वा शयानं शकुनाः समन्तात्पर्यवारयन्। नेमां हिंस्युर्वने बालां क्रव्यादा मांसगृद्धिनः।। | 1-93-19a 1-93-19b 1-93-19c |
पर्यरक्षन्त तां तत्र शकुन्ता मेनकात्मजाम्। उपस्प्रष्टुं गतश्चाहमपश्यं शयितामिमाम्।। | 1-93-20a 1-93-20b |
निर्जने विपिने रम्ये शकुन्तैः परिवारिताम्। `मां दृष्ट्वैवाभ्यपद्यन्त पादयोः पतिता द्विजाः। अब्रुञ्शकुनाः सर्वे कलं मधुरभाषिणः।। | 1-93-21a 1-93-21b 1-93-21c |
विश्वामित्रसुतां ब्रह्मन्न्यासभूतां भरस्व वै। कामक्रोधावजितवान्सखा ते कौशिकीं गतः।। | 1-93-22a 1-93-22b |
तस्मात्पोषय तत्पुत्रीं दयावानिति तेऽब्रुवन्। सर्वभूतरुतज्ञोऽहं दयावान्सर्वजन्तुषु।।' | 1-93-23a 1-93-23b |
आनयित्वा ततश्चैनां दुहितृत्वे न्यवेशयम्।। | 1-93-24a |
शरीरकृत्प्राणदाता यस्य चान्नानि भुञ्जते। क्रमेणैते त्रयोऽप्युक्ताः पितरो धर्मशासने।। | 1-93-25a 1-93-25b |
निर्जने तु वने यस्माच्छकुन्तैः परिवारिता। शकुन्तलेति नामास्याः कृतं चापि ततो मया।। | 1-93-26a 1-93-26b |
एवं दुहितरं विद्धि मम विप्र शकुन्तलाम्। शकुन्तला च पितरं मन्यते मामनिन्दिता।। | 1-93-27a 1-93-27b |
शकुन्तलोवाच। | 1-93-28x |
एतदाचष्ट पृष्टः सन्मम जन्म महर्षये। सुतां कण्वस्य मामेवं विद्धि त्वं मनुजाधिप।। | 1-93-28a 1-93-28b |
कण्वं हि पितरं मन्ये पितरं स्वमजानती। इति ते कथितं राजन्यथावृत्तं श्रुतं मया।। | 1-93-29a 1-93-29b |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि संभवपर्वणि त्रिनवतितमोऽध्यायः।। 93 ।। |
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