महाभारतम्-01-आदिपर्व-204
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क्रोधाद्राजसु द्रुपदहननार्थमागतेषु राजसंमुखे भीमार्जुनयोः सज्जीभूय स्थितयोः सतोः कृष्णबलरामयोः संवादः।। 1 ।।
वैशंपायन उवाच। | 1-204-1x |
तस्मै दित्सति कन्यां तु ब्राह्मणाय तदा नृपे। कोप आसीन्महीपानामालोक्यान्योन्यमन्तिकात्।। | 1-204-1a 1-204-1b |
`ऊचुः सर्वे समागम्य परस्परहितैषिणः। वयं सर्वे समाहूता द्रुपदेन दुरात्मना। संहत्य चाभ्यगच्छाम स्वयंवरदिदृक्षया।।' | 1-204-2a 1-204-2b 1-204-2c |
अस्मानयमतिक्रम्य तृणीकृत्य च संगतान्। दातुमिच्छति विप्राय द्रौपदीं योषितां वराम्।। | 1-204-3a 1-204-3b |
अवरोप्येह वृक्षस्तु फलकाले निपात्यते। निहन्मैनं दुरात्मानं योयमस्मान्न मन्यते।। | 1-204-4a 1-204-4b |
न ह्यर्हत्येष संमानं नापि वृद्धक्रमं गुणैः। हन्मैनं सह पुत्रेण दुराचारं नृपद्विषम्।। | 1-204-5a 1-204-5b |
अयं हि सर्वानाहूय सत्कृत्य च नराधिपान्। गुणवद्भोजयित्वान्नं ततः पश्चान्न मन्यते।। | 1-204-6a 1-204-6b |
अस्मिन्राजसमवाये देवानामिव सन्नये। किमयं सदृशं कंचिन्नृपतिं नैव दृष्टवान्।। | 1-204-7a 1-204-7b |
न च विप्रेष्वधीकारो विद्यते वरणं प्रति। स्वयंवरः क्षत्रियाणामितीयं प्रथिता श्रुतिः।। | 1-204-8a 1-204-8b |
अथवा यदि कन्येयं न च कंचिद्बुभूषति। अग्नावेनां परिक्षिप्य याम राष्ट्राणि पार्थिवाः।। | 1-204-9a 1-204-9b |
ब्राह्मणो यदि चापल्याल्लोभाद्वा कृतवानिदम्। विप्रियं पार्थिवेन्द्राणां नैष वध्यः कथंचन।। | 1-204-10a 1-204-10b |
ब्राह्मणार्थं हि नो राज्यं जीवितं हि वसूनि च। पुत्रपौत्रं च यच्चान्यदस्माकं विद्यते धनम्।। | 1-204-11a 1-204-11b |
अवमानभयाच्चैव स्वधर्मस्य च रक्षणात्। स्वयंवराणामन्येषां मा भूदेवंविधा गतिः।। | 1-204-12a 1-204-12b |
इत्युक्त्वा राजशार्दूला रुष्टाः परिघबाहवः। द्रुपदं तु जिघांसन्तः सायुधाः समुपाद्रवन्।। | 1-204-13a 1-204-13b |
तान्गृहीतशरावापान्क्रुद्धानापततो बहून्। द्रुपदो वीक्ष्य संग्रासाद्ब्राह्मणाञ्छरणं गतः।। | 1-204-14a 1-204-14b |
`न भयान्नापि कार्पण्यान्न प्राणपरिरक्षणात्। जगाम द्रुपदो विप्राञ्शमार्थी प्रत्यपद्यत।।' | 1-204-15a 1-204-15b |
वेगेनापततस्तांस्तु प्रभिन्नानिव वारणान्। पाण्डुपुत्रौ महेष्वासौ प्रतियातावरिन्दमौ।। | 1-204-16a 1-204-16b |
ततः समुत्पेतुरुदायुधास्ते महीक्षितो बद्धगोधाङ्गुलित्राः। जिघांसमानाः कुरुराजपुत्रा- वमर्षयन्तोऽर्जुनभीमसेनौ।। | 1-204-17a 1-204-17b 1-204-17c 1-204-17d |
ततस्तु भीमोऽद्भुतभीमकर्मा महाबलो वज्रसमानसारः। उत्पाट्य दोर्भ्यां द्रुममेकवीरो निष्पत्रयामास यथा गजेन्द्रः।। | 1-204-18a 1-204-18b 1-204-18c 1-204-18d |
तं वृक्षमादाय रिपुप्रमाथी दण्डीव दण्डं पितृराज उग्रम्। तस्थौ समीपे पुरुषर्षभस्य पार्थस्य पार्थः पृथुदीर्घबाहुः।। | 1-204-19a 1-204-19b 1-204-19c 1-204-19d |
तत्प्रेक्ष्य कर्मातिमनुष्यबुद्धि- र्जिष्णुः स हि भ्रातुरचिन्त्यकर्मा। विसिष्मिये चापि भयं विहाय तस्थौ धनुर्गृह्य महेन्द्रकर्मा।। | 1-204-20a 1-204-20b 1-204-20c 1-204-20d |
तत्प्रेक्ष्य कर्मातिमनुष्यबुद्धि- र्जिष्णोः सहभ्रातुरचिन्त्यकर्मा। दामोदरो भ्रातरमुग्रवीर्यं हलायुधं वाक्यमिदं बभाषे।। | 1-204-21a 1-204-21b 1-204-21c 1-204-21d |
य एष सिंहर्षभखेलगामी मदद्धनुः कर्षति तालमात्रम्। एषोऽर्जुनो नात्र विचार्यमस्ति यद्यस्मि संकर्षण वासुदेवः।। | 1-204-22a 1-204-22b 1-204-22c 1-204-22d |
यस्त्वेष वृक्षं तरसाऽवभज्य राज्ञां निकारे सहसा प्रवृत्तः। वृकोदरान्नान्य इहैतदद्य कर्तुं समर्थः समरे पृथिव्याम्।। | 1-204-23a 1-204-23b 1-204-23c 1-204-23d |
योऽसौ पुरस्तात्कमलायताक्षो महातनुः सिंहगतिर्विनीतः। गौरः प्रलम्बोज्ज्वलचारुघोणो विनिःसृतः सोऽप्युत धर्मपुत्रः।। | 1-204-24a 1-204-24b 1-204-24c 1-204-24d |
यौ तौ कुमाराविव कार्तिकेयौ द्वावाश्विनेयाविति मे वितर्कः। मुक्ता हि तस्माज्जतुवेश्मदाहा- न्मया श्रुताः पाण्डुसुताः पृथा च।। | 1-204-25a 1-204-25b 1-204-25c 1-204-25d |
वैशंपायन उवाच। | 1-204-26x |
तमब्रवीन्निर्जलतोयदाभो हलायुधोऽनन्तरजं प्रतीतः। प्रीतोऽस्मि दृष्ट्वा हि पितृष्वसारं पृथां विमुक्तां सह कौरवाग्र्यैः।। | 1-204-26a 1-204-26b 1-204-26c 1-204-26d |
।। इति श्रीमन्महाभारते आदिपर्वणि स्वयंवरपर्वणि चतुरधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 204 ।। |
आदिपर्व-203 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | आदिपर्व-205 |